विगत सात दिनों से आप लोगों ने भगवान् महावीर से संबंधित भिन्न भिन्न विषयों पर चर्चा की है। यह आठवां दिन है। आप लोगों ने यह निश्चय किया है कि भगवान् महावीर के दिव्य संदेशों को उसी रूप से जीवन में उतारते हुए आदर्श उपस्थित करेंगे। भगवान् महावीर का वास्तविक बल जो शक्ति थी, वह अनेकांत में निहित थी, आज अनेकांत द्वारा ही भगवान् महावीर को देख सकते है। वे बड़े भी हैं और अगर छोटे भी कह दें तो उसकी बात मानेंगे, क्योंकि राम महावीर से पहले हुए, अत: इस अपेक्षा से छोटे हैं, पर हम संसार में बैठे हैं, अत: हमारे से बड़े हैं। अनेकांत का मतलब आग्रह, हठवाद, बकवाद नहीं। हरेक व्यक्ति के साथ वात्सल्य, प्रेम हो, यही स्याद्वाद है।भगवान् महावीर ने हरेक को अपनाया, किसी को ठुकराया नहीं, तभी वे तीन लोक के शिखर पर जा बैठे। कहा भी है -
ही से भी को ओर ही बढ़े सभी हम लोग।
छह के आगे तीन हो विश्व शाँति का योग ॥
अगर हम ‘ही' को हटाकर 'भी' का प्रयोग करें तो बहुत बड़ी बात होगी कोई हमें गाली न देगा बल्कि आरती उतारेगा, वात्सल्य रहेगा। मुख ‘ही' से ‘भी' की ओर हो, क्योंकि ही से पीठ के दर्शन होते हैं जो कि वास्तविक दर्शन नहीं हैं। पीठ तो अपजय का प्रतीक है, वास्तविक दर्शन मुख की ओर से होते हैं। भगवान् की आँखों में ज्योति है, उसको देखने पर आत्मा की ज्योति को देखने में सुविधा रहती है। भगवान् महावीर ने अनेकांत का शस्त्र लेकर यह नहीं कहा कि आप से हम भिन्न हैं। अनेकांत वाला हरेक को अपनाता है। सिद्धत्व को प्राप्त करने की शक्ति हर एक रखता है। भगवान् ने कहा कि कोई छोटा-बड़ा नहीं है। जीव अनादि काल से आ रहा है। अनन्त काल तक रहेगा, तब बड़ा-छोटा कैसे ? हम छोटे बड़े का विचार इसलिए करते हैं क्योंकि वैकालिक सत्ता से विमुख हैं। अब तो आपस में मिल जुलकर आत्मा की चर्चा में तल्लीन हो जाओ, भौतिक चकाचौंध में रस लेना छोड़ो। अनेकांत की चर्चा करो, जिससे प्रेम की डोरी में सब बंध जाये पुद्गल पिछड़ जाये और चैतन्य शक्ति जग जाये, उसी से प्रयोजन सिद्ध होगा। भगवान् महावीर ने जीव के विकास के लिए उपदेश किया, भौतिक उन्नति के लिए नहीं। उनके उपदेशों को अपनाकर कर्म बन्ध को नष्ट कर सकते हैं। उन्होंने अहिंसा परमो धर्म तथा अनेकांत का उपदेश देकर सभी जीवों से प्रेम करना सिखाया, मेरे में तेरे में का कोई अन्तर नहीं रखा। अनेकांत का मतलब समता से है। जहाँ समता है, वहाँ किसी प्रकार का झगड़ा, संघर्ष, विसंवाद नहीं, संवाद होगा। उस समता के लिए वीतरागता अपेक्षित है। समता जीव का एक अनन्य गुण है, भगवान् महावीर ने इसी को धारण कर अनेक विवेचना की हैं। राग पक्षपात का चिह्न है। समता की चरम सीमा तक जब भगवान् महावीर की दृष्टि चली गई, तभी वे निसंग हो गये और उन्होंने दुनियाँ को संगी बना लिया। उनकी दिव्य ध्वनि खिरने लगी आज उसका अभाव नहीं है, उसके बल पर आगे बढ़ने वाले अनेक सन्त महर्षि आज भी मौजूद हैं। पूर्व वक्ताओं ने कहा कि अनेकांत को समझना विवेचन करना बहुत कठिन है, पर मैं तो कहता हूँ कि अनेकान्त पर चलना बहुत सरल है, दुरूह नहीं है। लड़ाई करने पर तो पहले से अनेक तैयारियाँ करनी पड़ती है, लेकिन प्रेम से मिलने पर कुछ नहीं करना पड़ता। अनेकांत की व्याख्या करना प्ररूपण से पहले उसकी दृष्टि जाननी चाहिए प्ररूपण के अनुसार जीवन को चलाना। आज सब व्याख्या सुनने को तैयार हैं, पर अनेकान्त पर चलने की दृष्टि किसी की नहीं हुई। अपने जीवन में अनेकान्त को उतारे। नहीं तो अपने पास शान्ति नहीं, क्लान्ति रहेगी, समता का अभाव रहेगा। भगवान् महावीर 'अनेकान्त', ‘जिओ और जीने दो' तथा 'अहिंसापरमोधर्म:' के नारे से विश्व के नाथ बन गये। वे मात्र जैनियों के ही नहीं। हमें भी विश्व के साथ सम्बन्ध रखना है। दीवार या Division आदि की जरूरत नहीं। भगवान् के समवसरण में भी देव-दानव पशु, मनुष्य सब बैठते थे। हम उनके उपासक कहलाते हैं हमें उन कमियों को दूर करना है। हमें भी भगवान् महावीर की तरह कल्याण करना है। आज हमारी दशा उनसे भिन्न है, हीनावस्था को प्राप्त है। इसका कारण, महावीर की दिशा ' भी' की ओर तथा हमारी दिशा 'ही' की ओर। ६० साल ७० साल के हो जाने पर भी आप यही सोचते हैं कि मैं गद्दी का मालिक बना रहूँ, चाबी बाँधे रहूँ, बच्चों को नहीं दूँ। अगर चाबी दे दी तो घर वाले मुझे नहीं पूछेगे। मैं कहता हूँकि अगर घर वाले नहीं पूछेगे तो मैं पूछूँगा और आरती भी उतारी जाएगी। भौतिक चकाचौंध में कुछ नहीं है, आध्यात्मिक रस को अपना शेष जीवन अर्पित कर दी। भगवान् महावीर की पूजा घर में नहीं हुई, बाहर आकर ‘ही' हटाकर 'भी' को अपनाने पर हुई। आप लोग पड़ोसी को दुख हो, वह रोए, तो बहुत खुश होंगे, आप तो यहाँ तक सोचेंगे कि उसका चाहे सत्यानाश हो जाये, मेरी पूछ बढ़े। पर मैं कहता हूँ आपके पूछ है क्या ? आपकी दृष्टि हर दम क्रोध, मान, माया, लोभ की ओर लगी है, अत: अपनी दृष्टि को उपासना की, अनेकान्त की ओर करें, २५००वां निर्वाणोत्सव एक साल तक ही नहीं, बल्कि जीवन भर अपनाएँ। आज भारत सरकार ने भी आपको मदद नहीं दी है, बल्कि अनेकान्त अपरिग्रह की रक्षा के लिए, उसके संवर्धन के लिए मदद की है। लोक वैराग्य को अपनाएँ, घर से उदासीन हो, आगे के लिए अध्यात्म का रस ले सकें उसके लिए कार्य करो। संतृप्त से संतृप्त के लिए करुणा यही बनेगी। इसी में अनेकान्त का हित भी निहित है।