गुरुवर आचार्य श्री ज्ञान सागर जी मुनि महाराज का आज समाधि दिवस है। महाराज की समाधि हुए बहुत दिन हो गये। अतीत के समय का ज्ञापन जीव और पुद्गलों के ऊपर आधारित है। इतना बड़ा कालखण्ड का व्यतीत होना तथा ज्ञात करना कठिन है लेकिन जीव के परिणाम के माध्यम से उस अमूर्त दृश्य की भी पहचान हो जाती है। नया-पुराना, छोटा-बड़ा, आना-जाना यह सारे विकल्प हैं। विकल्पों में उलझा हुआ प्राणी ही उस अखण्ड में भी खण्डता का बोध या अनुभव करता रहता है। जिन्हें वस्तु का स्वरूप ज्ञात होता है, वह कभी भी इन विकल्पों में उलझता नहीं। सुख-दुख एक विकल्प जन्य आत्मा की प्रणाली है, परिणाम है। अज्ञान के कारण ही सुख को अच्छा और दुख को बुरा स्वीकार किया जाता है। सुख को जानना बुरा नहीं, सुख को अच्छा मानना और दुख को बुरा मानना, यह एक प्रकार से पीड़ा है, आर्तध्यान है। आर्तध्यान में डूबे हुए इस युग के सामने धर्मध्यान के अमृत में डूबने वाले उस व्यक्तित्व का, साधक का (आचार्य ज्ञानसागरजी महाराज का) क्या प्रदर्शन किया जाये। युग हमेशा ज्ञानी के विपरीत चलता है। उनसे क्या मिला, इसके बारे में कहने की कोई आवश्यकता नहीं, हमने जब कभी जिज्ञासा की उस समय उन्होंने क्या संबोधित किया यह बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वे पार नहीं अपार थे। हमने कुछ चाहा तो उसके बदले में उन्होंने क्या हमें संकेत देने का प्रयास किया, यह बहुत महत्वपूर्ण है। रसोई बन जाती है, उसको परोसी जाती है, किन्तु महत्वपूर्ण बात यह है कि माँ जब कभी भी उस भोजन का सेवन कराती है, उस पेय को पिलाती है, उस समय उस पेय को घोल-घोल कर पिलाती है। क्या घोलती है उस समय समझ में बात नहीं आती है। लेकिन बात जब समझ में आती है, तब माँ नहीं रहती है। माँ के नहीं रहने पर प्राय: उसका महत्व और बढ़ता चला जाता है। जीवन के अनुभवों को घोलती है माँ घुट्टी में, उसी प्रकार जीवन की अनुभूतियाँ साधकों को पिलाते हैं गुरु। आचार्य कुन्दकुन्द जैसे महान् अध्यात्म प्रेमी आत्मा की बात सहजता से साधक को एक गाथा में दे देते हैं, उन्होंने कहा मोक्षमार्ग के तीन उपकरण हैं, यथा -
उवयरणां जिण मग्गे लिंग, जहजाद रूवमिदि भणिदं।
गुरुवयणं पिय विष्णओ सुक्तज्झयणं च णिद्दिष्टुं॥
स्वयं का करण साधकतम हुआ करता है और साधकतम करण के लिए उपकरण बहुत अच्छे काम में आ जाते हैं। सर्वप्रथम उन्होंने जिन लिंग को उपकरण माना है, लेकिन आचार्य कुन्दकुन्द ने सावधान किया है कि कैसा होना चाहिए वह लिंग? यथाजात होना चाहिए। मोक्षमार्ग में बुद्धि-मस्तिष्क काम नहीं करता है, मोक्षमार्ग में हृदय काम करता है, अथवा बालक का मन जैसा होता है, वैसा निर्मल मन काम करता है। यथाजात का अर्थ क्या होता है? यथाजात का अर्थ ‘जैसा जन्म' अभी लिया है, उस बच्चे को न माँ-पिता से, न भाई-बहिन से मतलब है न उसका कोई परिवार है, न व्यवसाय है, न लाभ है, न हानि है, न मेरा है, न तेरा है, कुछ भी नहीं, न संयोग है, न वियोग है।
यह प्रथम शर्त है, प्रथम उपकरण है- यथाजात जिनलिंग। यथाजात यह शब्द बहुत महत्वपूर्ण है, उपकरण है। हम वृद्ध होना चाहते हैं, वृद्धों को समझाना चाहते हैं, बालक बनना कोई पसंद नहीं करता, यही एक मात्र चातुर्य था कला का, कि वे वृद्ध थे मैं नहीं मानता, वे बालक के समान यथाजात थे, उनको मैं बार-बार नमस्कार करता हूँ।
गुरु महाराज की क्रिया में रहस्य रहता था। ये राज आज उद्धाटित करना चाहता हूँ। आचार्य ज्ञानसागर महाराज कहा करते थे कोई यहाँ पर बालक बनना नहीं चाहता है, समझाने वाले/सिखाने वाले/पढ़ाने वाले दुनियाँ में बहुत मिलेंगे, लेकिन बालक की भाति दुनियाँ में कोई नहीं बन सकता ये ध्यान रखना और महाराज जी को बहुत अच्छा लगता था, वो कहते थे कि बालक बनना इतना आनंददायक लगता है, कह नहीं सकते। कोई विकल्प नहीं, दुनियाँ संकल्प-विकल्प में मिट जाये, लेकिन बालक तो हंसी/मुस्कान के साथ जीता है। उसका दुनियाँ से कोई लेना देना नहीं, वह मतलब की बात सोचता है, यह पागलपन है, जो ज्यादा सोचता है, वो ही पागल बनता है, बालक अभी तक पागल नहीं बना यह ध्यान रखना। जो अधिक सोचते हैं मस्तिष्क भारी हो जाता है, बोझिल हो जाता है, निश्चत रूप से उनके तकलीफ हो जाती है। एक सैकण्ड में अपनी भूलों को भूलने की कला, जिसके पास विद्यमान है, वह बालक है। एक चांटा मार दें तो वह रोने लग जाता है। अश्रुधार गालों पर आ जाती है और एक चुटकी बज जाती है, तो वह तुरन्त मुस्कराने लगता है, गाल पर वह अश्रु बूंद दिख रही है, लेकिन वह हँस रहा है। इसको बोलते हैं, बालकवत/यथाजात है। यह यथाजात बालक वृत्ति हमारे भीतर आना चाहिए। आचार्य श्री कहते थे ऐसे श्रमण को मोक्षमार्ग में हमेशा प्रसन्नता बनी रहती है। अक्षुण्ण रूप से यात्रा अंतिम क्षण तक बनी रहती है, यदि तुम भी यथाजात बने रहोगे तो तुम्हारी यात्रा सानन्द सम्पन्न हो जायेगी।
फिर इसके उपरान्त दूसरे उपकरण में आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं- गुरुवयण - गुरु के वचन माँ के वचन के तुल्य होते हैं, भाषा होती है, सीखी जाती है, स्कूलों में जाकर के। अध्ययन करके लेकिन जब कोई पूछता है कि आपकी मातृभाषा कौन सी है? अर्थात् माँ की भाषा कौन सी है? तुम्हारी मातृभाषा- ‘गुरुवयण" ये मातृभाषा है। गुरु ऐसे वचन दे देते हैं, जिससे शिशु शिष्य की यात्रा में कभी बाधा नहीं आती है, इसी को बोलते हैं घोल-घोल कर उसे पिलाया जाता है। यह शिशु भी अपने आप ही आनंद के साथ घूंट लेता चला जाता है। ग्रन्थों को पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं। गुरु ने क्या वचन दिये हैं इसे समझने की बात है। समस्याओं को हल करने की क्षमता उनके (आचार्य श्री) शब्दों में उनके वचनों में रहती थी। यह दूसरा उपकरण है। तीसरा उपकरण है विनय। हमें आज नय की आवश्यकता नहीं विनय की आवश्यकता है। नय। ज्ञान विनय को भुलाने वाला होता जा रहा है, आज विकल्प पैदा करने वाला हो गया है, तर्क पैदा करने वाला है। विनय में तक नहीं चलता है। विनय में नम्रता रहती है, विनय में स्वीकारोक्ति रहती है, विनय में हमेशा व्यक्ति लघु होता चला जाता है। विनय गुण हमेशा उसको झुकाता हुआ पुन: उठाता हुआ, यात्रा तक पहुँचा देता है, ये विनय है।
इसके उपरान्त चौथा उपकरण दिया हुआ है 'सुप्तज्झयण च णिद्विट्ट' अर्थात् ‘सूत्र का अध्ययन' यह चौथा उपकरण है। आज का युग विपरीत चल रहा है। सूत्र का अध्ययन पहले कर देता है। सेल्फ स्टेडी इस युग की महान् उपलब्धि है। विनय की कोई आवश्यकता नहीं है। गुरु के वचन क्या हैं? इसकी कोई आवश्यकता नहीं है। यथाजात क्या है? इससे कोई मतलब नहीं है। सूत्र हमारे पास है, सब काम हो जायेगा। बन्धुओं! नहीं होगा क्योंकि सूत्र का उद्धाटन भी गुरुओं की सेवा और भक्ति के माध्यम से हुआ करते हैं। धवला जी में वीरसेन स्वामी ने कहा है कि सम्यग्दृष्टि के द्वारा सम्यग्दृष्टि को समझाने के लिए सूत्रों को उद्धाटन किया जाता है। महान् जो सूत्र होते हैं, वे विश्वस्त व्यक्तियों के लिए ही दिये जाते हैं और सम्यग्दर्शन उत्पन्न होने के उपरान्त ही सूत्र का अध्ययन उद्धाटित होता रहता है।
आज विनय, गुरुवचन एवं यथाजात रूप की ओर दृष्टि नहीं है। समझ में नहीं आता सूत्र का अध्ययन क्या काम करेगा। वह केवल तोता रटन्त पाठ होता चला जाता है। कुछ भी पाठ नहीं आता तो भी यदि गुण ग्रहण होता है तो भी काम चल जाता है, यह बात आचार्य महाराज जी ने प्रवचनसार का अध्ययन कराते समय कही थी। इन चार उपकरणों के साथ रहेंगे तो सब काम अपने आप हो जायेंगे। वह शिष्य कहीं भी रहे वह स्व-पर का कल्याण कर लेगा। और ये नहीं है तो गुरु के चरणों में भी रहेगा तो भी कोई काम होने वाला नहीं है। गुरु के पास रहकर भी गुरु से दूर रह सकता है और गुरु से दूर रहकर भी शिष्य गुरु के पास रह सकता है। ये कठोर वचन हैं सुनते समय लगता है ऐसा क्यों कहा जा रहा है? हाँ ये बिल्कुल ठीक है। गुरु के साथ रहने का नाम साथ रहना नहीं है। बल्कि गुरु का हाथ जिसके मस्तिष्क पर रहता है उसका कभी भी गुरु से साथ छूटता नहीं है भले ही वह बाहर विहार करता रहे। पर एक बार का भी वह स्पर्श अनंतकालीन भीतरी कर्म श्रृंखला को तोड़ने में सक्षम रहता है। वे संस्कार, वे प्राण, वे प्रतिष्ठायें अमर हो जाती हैं। प्रतिष्ठित मूर्ति जितनी पुरानी होगी उतना ही उसमें अतिशय होगा, उतने ही उन संस्कारों में अधिक तेज आता चला जाता है, क्योंकि वह पुराना होता चला जाता है। प्रेम के साथ यदि एक बार भी हाथ फेर दिया जाता है, तो सभी काम फल पूर्ण हो जाते हैं। माँ चली जाती है, लेकिन उसका काम होता चला जाता है। संस्कार की बात है।
गुरु महाराज ने क्या नहीं दिया? हमने क्या लिया यह विचारणीय है। सागर बहुत लम्बा चौड़ा रहता है। हमारी प्यास बुझाने के लिए चुल्लू पर्याप्त हो जाता है। हमने कहाँ तक का उसका पान किया ये समझने की बात है। गुरु कभी भी शासन चलाना नहीं चाहते, शासित कोई होना चाहता है उसके लिए दिशा बोध संकेत अवश्य देते हैं। बार-बार सोचता हूँ, विचार करता हूँ मैं कब उन जैसा बनूँ। ये ही सोचता हूँ क्या मिला, क्या लिया, उसका उपयोग कहाँ तक किया? थाली सामने रख दी गई, परोस दी गई, व्यंजन परोस दिये गए, खाया कितना यह नहीं देखा जा रहा है बल्कि लोगों को तृष्णा रहती है और परोसा जाना चाहिए ये पागलपन माना जाता है।
ये बातें दिनों दिन याद आती चली जा रही है- ‘‘विद्या कालेन पच्यते।' ये उनका शब्द था, यह वाचन करना सरल है लेकिन पाचन हमेशा चारित्र के माध्यम से ही होता है। यह संकेत उनका था, और सूत्र का अर्थ यही बताता है कि वह काल में ही पचता है। जो दिशा बोध प्राप्त है, वह चारित्र के माध्यम से ही पकता चला जाता है। हम यदि पाचन शक्ति को बढ़ाते हैं, तो उन्होंने जो दिया है, वह सब पच सकता है और यदि हम अपनी पाचन शक्ति नहीं बढ़ाते, या केवल स्मरण ही करते चले जाते हैं तो पचेगा नहीं सड़ेगा, अफरा चढ़ जायेगा। यदि खाया हुआ बचता है तो वह अभिशाप सिद्ध होता है और पेट में कुछ भी नहीं बचता है तो वरदान सिद्ध होता है, आप क्या चाहते हैं? उस सूत्र में अर्थ है- विद्या कालेन पच्यते हे भगवान्! हे दीपस्तम्भ! आपसे मुझे अब दीप नहीं द्वीप चाहिए जिस पर मैं ठहर सकूं। भव सागर में आते-आते, गोते खाते-खाते, तैरते-तैरते हाथ भर आये हैं, अब हाथों में पैरों में बल नहीं रहा, शिथिलता आ गई है, अब हमें केवल द्वीप चाहिए यानि विराम चाहिए। आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मैं दीप नहीं चाहता, द्वीप चाहता हूँ। जैसे उन्होंने किनारा पाया उसी प्रकार हमें भी किनारा मिल जाये हमें भी वह समाधि में लीन होने का सौभाग्य प्राप्त हो जाये। हमें पर नहीं, स्वचाहिए। स्व में जो लीन हो जाता है पर के लिए वह आदर्श बन जाता है। स्व-पर कल्याणी दृष्टि चाहिए।
आचार्य शान्तिसागर महाराज ने एक बात कही थी, भगवान् का दर्शन कैसे करें? जैसे भगवान् बैठे हैं वैसे बैठ जा पहले, बच्चों को सिखाया जाता है पालथी लगाकर। पंगत में बैठना, इसके बाद परोसा जायेगा। अगर ज्यादा गड़बड़ करोगे तो आधा परोसा जायेगा। पूरा लड्डू चाहते हो तो भगवान् जैसे बैठ जाओ, अगर आँख खोलकर बैठोगे तो उसको आधा ही मिलेगा। कोई भी आँखें नहीं खोलता, भगवान् का दर्शन करना चाहते हो तो पहले भगवान् जैसा बैठना तो सीख लो।
यह बात निश्चत है, कि हम बातें बहुत करते हैं। चर्चा तक सीमित रह गया ज्ञान। ज्ञान का प्रयोग समाप्त हो गया, योग समाप्त हो गया। अब उपयोग स्थिर कैसे हो सकेगा? कहाँ लगेगा? बस संयोग और वियोग में ही उपयोग की लीला चल रही है। कैसा प्रायोगिक जीवन था ज्ञानसागर महाराज जी का, जो पढ़ा उसको प्रयोग में लाने का प्रयास किया। इर्द गिर्द जो कोई भी बैठ जाता है, उस पर छाप पड़ती चली जाती थी। एक बार कार्बन नीचे रखा हो फिर निश्चत रूप से नीचे के पत्रों पर यथावत् उतरकर आयेगा। उसका दबाव उसका प्रभाव अवश्य उभर करके आयेगा। आज प्रयोग का नामोनिशान समाप्त होता चला जा रहा है। अंतिम घड़ी तक उन्होंने अपने को प्रयोग की शाला में ही पाया। वे अनुशासन की बात कहते नहीं थे, स्वयं अनुशासित रहते थे, आत्मानुशासित होते थे अत: कहने की आवश्यकता नहीं पड़ती और अनुशासनशील व्यक्ति को देखकर सामने वाला अपने आप अनुशासित हो जाता था।
भगवान् के समान बैठने के उपरान्त, भगवान् कैसे बैठे हैं, यह प्रशिक्षण देने की कोई आवश्यकता नहीं होती है, मात्र प्रयोग की आवश्यकता होती है। कम शब्दों में अधिक अर्थ देने की क्षमता उनके वचनों में विद्यमान थी। और वे कहते कम थे, करते ज्यादा थे, तो बिना कहे ही असर पड़ता था और हम करते कम हैं, कहते ज्यादा हैं इसलिए असर कम पड़ता चला जा रहा है।
अब तो हमें भी समझ में आने लगा है, कहना अब बंद कर देना चाहिए क्योंकि कहने की मात्रा जब बढ़ जाती है तो करने की मात्रा घट जाती है। तो करने की मात्रा बढ़ाने में ही लग जाना चाहिए तभी काम होता है अन्यथा नहीं हो सकता और निमित्त तो निमित्त हुआ करता है। उनकी लीनता, उनकी तल्लीनता अद्भुत थी, उनकी निरीहता अद्भुत थी। निभीकता की बात तो कहना ही क्या है! जो तल्लीन हो जाता तो निश्चत रूप से निर्भीक/निरीह होता है। जिसका जितना ध्यान लगता। है उतना वह नि:शंक होता है, और नि:शंक का अर्थ भय रहित होना। वे हमेशा-हमेशा कुन्दकुन्द की वाणी में कहा करते थे। कुन्दकुन्द ने शंका का नाम भय लिया और सम्यग्दृष्टि को भय से रहित होना चाहिए और भय से जो रहित हो जाता है, वह स्वरूप में लीन हो जाता है। वैरागी दृष्टि से देखा जाये तो निभीक होना बहुत अच्छा माना जाता है। आध्यात्मिक दृष्टि में जो लीन हो जाता है, विलीन हो जाता है, वह वस्तुत: स्व-पर के लिए वरदान सिद्ध होता है और निश्चत रूप से अपनी आत्मा को उन्नत बना सकता है, एक सी लीनता उनमें अंतिम क्षणों तक पायी गयी। वे कहा करते थे कि कर्तव्य में कभी भी कर्तापन नहीं होना चाहिए। कर्तव्य अप्रमतता का द्योतक है, प्रवृत्ति होते हुए भी। और कर्तापन हमेशा प्रमाद, ज्यादा अहंकार और स्वामित्व का प्रतीक बन जाता है, जिसके द्वारा अपनी यात्रा रुक जाती है हमेशा-हमेशा। ये उनसे हमने सीखा है। कर्तव्य करते जाओ, कर्तव्य से विमुख नहीं होना, निश्चत रूप से अपनी तल्लीनता प्राप्त होगी। सामने वाले को स्वीकार है तो ठीक, नहीं तो विकल्प करने की आवश्यकता नहीं है, हमें इससे आगे बढ़ने की आवश्यकता नहीं है। आपको पता होगा कि रामायण कैसे बनी? एक बार सीता ने लक्ष्मण रेखा का उल्लंघन किया और राम ने हिरण के कारण और रावण ने सीता हरण के कारण अनर्थ कर लिया।
यदि चारों सीमा में रहते, तो कुछ भी गड़बड़ होने वाला नहीं था। जो उपकरण बताये हैं,उपकरण बोलते है "उपकार करोति इति उपकरणं" जो उपकार करता है वह उपकरण, जो उपकार नहीं करता है, उसको पास नहीं रखना चाहिए। अत: वही उपकरण रखे गये कुन्दकुन्द द्वारा जो मोक्षमार्ग पर चलने के लिए उपकारी सिद्ध हो रहे हैं। ये गाथा हमेशा कहते थे हमारे सामने गुरुदेव।
'पडिवज्जदु सामण जदि इच्छदि दुखपरिमोक्ख'
श्रामण्य को अंगीकार करो, दुख से मुक्ति यदि इष्ट है तो। दुख से घबराये हो तो श्रमणता को स्वीकार करो। श्रमणता कोई विशेष बात नहीं है, केवल यथाजात कर देना, बाहर से यथाजात हम हो जाते हैं, लेकिन कुन्दकुन्द का कहना है कि जो बाहरी और भीतरी दोनों ओर से यथाजात होता है, उसका नाम यथाजात । जैसा बाहर है-वैसा ही भीतर हो। बाहर तो यथाजात यानि बालक का रूप है, और भीतर पालक का रूप हो, ये कहाँ साम्य बैठता है? तन को नग्न बनाया, मन को अभी तक नहीं बनाया तो काम नहीं चलेगा, मन में यदि वह नग्नता आ गयी तो तन की नग्नता सार्थक हो जाती है और वह पूज्य हो जाती है, स्व और पर को कल्याणकारी हो जाती है। उनका वह यथाजात बालकवत् वह सौम्य मुखमंडल विशाल ललाट उसके ऊपर झुर्रियाँ भी देखने को नहीं आतीं थीं। केवल जान सकते थे, इस पार्थिव ललाट के ऊपर कितनी रेखाएं हैं। लेकिन रेखाएँ कहीं उलझी हुई नहीं थीं, वह निश्छलता उनके ललाट, उनकी आँखों में हमने पायी। हमेशा सरलता जीवन का लक्ष्य था, विरोध उनके जीवन में नहीं आया, बोध हमेशा शोधोन्मुखी बना रहा, कभी भी बोध का प्रदर्शन नहीं रहा, हमेशा लक्ष्य दर्शन की ओर रहता था। किन शब्दों के द्वारा उस महान् व्यक्तित्व की हम प्ररूपणा करें हमें समझ में नहीं आता, उनकी तल्लीनता कैसी थी, मैं इस उदाहरण के माध्यम से आपके सामने रख रहा हूँ- बहुत छोटा था। किन्तु हमेशा-हमेशा कार्य कैसा होता है? क्या होता है? ये देखता रहता था। कार्य होने के उपरान्त कारण की पहचान होती थी और कारण के माध्यम से कभी-कभी कार्य की ओर दृष्टि गढ़ाये रखता था और एक दिन एक कुंए पर बैठा था। कुंआ जल से भरा है, अब क्या करें, ऊपर आम का वृक्ष है और तोते वगैरह अथवा हवा के माध्यम से आम टकरा करके जब गिर जाते, उस आम के वृक्ष के नीचे एक टीन वाला मकान था, उसके ऊपर गिरते थे, आवाज होते ही हम उसे उठाने चले जाते, लेकिन हम उसको पकड़ नहीं पाते और वह गिर करके नीचे कुंआ में चला जाता। अरे, ज्यों ही नीचे चला जाता, अब क्या करें? सोचा आम जल में डूब जायेगा लेकिन देखते क्या हैं कि वह आम डूबा नहीं और वह तैरने लगा तब आशा बंधी की अब वह पकड़ने में आ जायेगा, जाकर के किसी भी तरह पकड़ करके निकाल लेते, लेकिन वह कच्चा ही निकलता, तो हमने कहा ये कैसी बात है। आम टूटा और डूबा नहीं। जब दूसरे, तीसरे ऐसी संख्या बहुत होती, ऊपर बंदर बैठते, बन्दर उन कच्चे आमों को तोड़कर के फेंक देते, तो हम बच्चे नीचे वाले बंदर (सभा में हँसी) देख लेते ये कैसी बात है? आम डूबते क्यों नहीं? लेकिन एक बार पीलापीला आम जब हमारे सामने गिरा और देखा यह भी तैरेगा तो पकड़ में आ जायेगा, लेकिन ज्यों ही गिरा कुंए में चला गया लेकिन कच्चे आम के समान तैरा नहीं, डूब गया। अब पता लग गया ये कैसी बात है। पीला आम तो ऊपर नहीं आया और हरे-हरे आम तो हर-हर करते ऊपर आ गये। ये क्या है? जो कच्चा होता है, वह हमेशा-हमेशा रस की प्राप्त के लिए पुन: पेड़ की ओर देखता रहता है और जो पका हुआ होता है वह रस से लबालब भरा हुआ रहता है। वह पेड़ की ओर नहीं देखते और नीचे डुबकी लगा लेता है, आचार्य ज्ञानसागर महाराज जी के जीवन में हमने यही देखा। वे कभी बाहर से रस नहीं लेते, भीतर से इतना अध्यात्म का रस भरा हुआ रहता था। वो किसी की आकांक्षा नहीं करते थे। यह निश्चत बात है हमेशा-हमेशा वे यही कहा करते थे, जब आत्मा अमृतकुण्ड है, तो हम प्यास बुझाने बाहर क्यों मृगमरीचिका में वृथा भटकते फिरें।
युग की दीनता और अज्ञानता उनसे देखी नहीं जाती थी, लेकिन कर्तव्य तो कर्तव्य होता है, अनेक महान् संत हुए उन्होंने अपने शिष्यों के साथ जबरदस्ती नहीं की। तो हमारे साथ ये भी कैसी जबरदस्ती करते। कर्तव्यों के प्रति उन्मुख करने का प्रयास अवश्य करते थे। किसी उलझन को सुलझाने की बात जब पूछते तो महाराज कहते थे कि समय पर सब काम होता जायेगा, संतोष रखा करो। जिसके पास संतोष नहीं होता वह कभी किसी भी प्रकार से उन्नत नहीं हो सकता, जो व्यक्ति उतावली कर देता है वह कभी भी काम को पूर्ण नहीं कर सकता है। उतावली करने से कार्य पूर्ण नहीं होता उलझता और चला जाता है।
यह निश्चत है कि अपने उपादान के माध्यम से कार्य होता है, लेकिन उस उपादान के योग्य निमित्त को भी अपने पुरुषार्थ बल पर जुटाते रहना, इतनी ही पुरुषार्थ की सीमा है आगे नहीं बढ़ सकते हैं। यह कर्तव्य की एक परीक्षा है कि हम उस संतोष को कहाँ तक आत्मसात् किये हुए हैं, क्योंकि
स्वयंभू स्तोत्र - ७/३
उस भवितव्यता की पहचान दो कारणों के ऊपर ही निर्धारित है। दो कारणों के द्वारा जो अविष्कृत कार्य है, वही उस भवितव्यता की पहचान है। इसलिए हम अपनी मति, अपनी बुद्धि के द्वारा कहाँ तक पहचान सकते हैं, वहीं तक पहचान लें, फिर उसके बाद सीमा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता। कार्य तो अपने क्रिया कलापों के माध्यम से सम्पन्न होगा। ऐसा न्याययुक्त आध्यात्मिक व्यवहार आदि सारी कुशलताये हमने उनमे देखो और कभी भी आग्रह वाली बात नहीं थी ज्यादा आग्रह करने से पदार्थ का मूल्य कम होता है। ज्यादा टीका लिखने से मूल का महत्व कम हो जाता है। आप लोग कहोगे कि महाराज ये बात तो गलत कही आपने। नहीं भैया ठीक कह रहा हूँ। जितने भाष्य बनेंगे, जितनी टीका टिप्पणी लिख दी जायेगी जितनी पत्रिका बनेगी उतना ही मूल को चखने का कोई प्रयास नहीं करेगा और टीका-टीकाओं में रहेंगे और टीका टिप्पणी चालू हो जाती है। हम देखते हैं टीकाओं में मतभेद हैं मूल में कोई भेद नहीं है। आज तो बहुत सारी टीका टिप्पणी उन्हीं टीका टिप्पणियों के माध्यम से ही होने लगी। मूल तक पहुँचने के लिए अब हमारे पास गति ही समाप्त हो गयी। हमेशा हमेशा मूल के ऊपर दृष्टि रखने की बात वो कहा करते थे। हिन्दी वे नहीं देखने देते थे, मूल के ऊपर सोचो विचार करो, यह सूत्र उनका मुझे आज प्राप्त है। तत्वार्थसूत्र को जितने बार पड़ता हूँ उतने बार मुझे बहुत आनंद आता है और महाराज जी का सूत्र ताजा होता चला जाता है। भाद्रपद में ही उसका विषय उद्धाटित होता है। बहुत सारी बातें अपने आप उद्धाटित होती चली जाती हैं। यह गुरु महाराज की कृपा है। जितना मूल के ऊपर हम अध्ययन करेंगे, उतना ही हमें आनंद आयेगा।
कुन्दकुन्द महाराज की गाथाएं आत्मसात् कर लेना चाहिए। आज कुन्दकुन्द नहीं है, लेकिन कुन्दकुन्द नहीं होने के उपरान्त भी ये ध्यान रखना, हमें कुन्दकुन्द के भावों तक जाने के लिए कुन्दकुन्द की गाथाओं में ही एक प्रकार से डूबना आवश्यक है। हमेशा-हमेशा कुन्दकुन्द की गाथाओं में डूबे रहने वाले ऐसे आचार्य श्री ज्ञान सागर महाराज हमारे लिए वरदान सिद्ध हुए हैं, इसमें संदेह ही नहीं है। लेकिन ये बात बार-बार आ जाती है, कुछ समय और वो दे देते तो और अच्छा होता,ये नहीं सोचते कि हम और कुछ उनसे समय ले लेते तो और अच्छा है। लेने के लिए गाथायें अभी दी हुई हैं ले सकते हैं। हमारी वृत्ति हमेशा-हमेशा द्रव्य की ओर रहती है, भाव की ओर नहीं। ऐसी स्थिति में कुन्दकुन्द तो मिलने वाले नहीं है लेकिन कुन्दकुन्द के भाव हमारे सामने हैं।
एक काल का परिणमन जो द्रव्य में हमेशा-हमेशा हुआ करता है, उसको जानकर के युगोंयुगों पूर्व अतीत में जो चले गये हैं, जो अनंत सिद्ध हुए हैं, उनको भी हम अपना आदर्श बना सकते हैं। ये बनाने की कला ऑख बंद करते ही आचार्य ज्ञानसागर जी महाराज जी के पास थी। दो पंक्तियाँ जो कि उनकी समाधि के उपरान्त मुझे मिली थी। उनको देखने से ऐसा लगा कि ये पंक्तियाँ ज्ञानसागर महाराज के ऊपर बिल्कुल फलित हो जाती हैं। वह पंक्तियाँ यह हैं -
जब पहाड़ ही बना तब धूप से क्या
जब साधु ही बना तब भूप से क्या
जब सागर ही बना फिर कूप से क्या
और जब चिन्मय ही बना फिर रूप से क्या
उनका अध्यात्म इन पंक्तियों में हमने देखा, वह सौभाग्य हमें भी प्राप्त हो। मैं बार-बार सोचता रहता हूँ वह घड़ी कब आये। नहीं, अब तो सोचना बंद कर रहा हूँ वह घड़ी कब आये ये कहने की अपेक्षा, वह घड़ी अभी भी है। कब की चिंता नहीं और जिसका अब छूट गया, तो कब तो कभी मिलने वाला नहीं है।
जिस प्रकार आप लोग चतुराई के साथ व्यापार करते हो। एक बोर्ड लगा देते हो 'आज नगद कल उधार' और उस व्यक्ति के पास से नगद ले लेते हो, और कल के लिए कह देते हो, बेचारा वह कल की इच्छा से आज नगद आपको देकर चला जाता है, और कल आते ही कहता है, आज पुन: दे दो, हाँ-हाँ ठीक है, लाओ नगद। कल कहा था न आपने। क्या कहा था बताओ 'आज नगद कल उधार'। हाँ! कल कभी आता नहीं। कब-कब की चिंता में अब को खोने वाला आचार्य ज्ञानसागर महाराज को पहचान नहीं पाता। २५ वर्ष हो गए पंडित जी मूलचन्दजी लुहाड़िया, किशनगढ़ वक्तव्य दे रहे थे उनको हमने ३० साल से देखा, हमेशा-हमेशा हाँ महाराज कल देखेंगे, समझ में भी नहीं आता। महाराज जी ने भी कहा- मैं ब्रह्मचर्य अवस्था में था, उस समय में भी ये बातें करते थे, महाराज के साथ ही बात करते थे। बात ही करते थे, बात ही करते रह गये। किन्तु काया तो परिवर्तित हो गई। उनको महसूस हो रहा होगा। जिस समय काया में माया थी, उसको तो उन्होंने खो दिया, अब दुनियाँ के कार्यों में उलझ गये। अब करूं? कब करूं? कल करूं? तो ये ध्यान रखना चाहिए था, वो स्वयं भी एक वणिक् हैं और ये वणिक् प्रत्येक समय पर ये बोर्ड लगाये रखते हैं, आज नगद कल उधार, कल कभी आता ही नहीं है। कल कोई वस्तु है ही नहीं। भविष्य में क्यों झूल रहे हैं। इसी का नाम है, आचार्य ज्ञानसागर महाराज को नहीं समझना। इसलिए ऐसे व्यक्ति कभी आप लोगों को निर्देशन देने लग जायें तो इनके निर्देशन कभी प्रभावकारी नहीं हो सकते।
निर्देशन मानना चाहिए आचार्य ज्ञानसागर महाराज जैसे साधकों का। उनके अनुसार चलने वाला एक कदम भी चला देते हैं तो भी ठीक है। लेकिन ऐसे केवल बात करने वालों से महाराज ज्ञानसागर जी कहते थे बचियो, क्योंकि वे कभी भी यहाँ तक जाने नहीं देंगे। वह बात करने वाले महाराज नहीं थे, उनके द्वारा साहित्य का इतना विशाल भण्डार बनाया गया। आचार्य ज्ञानसागर महाराज ने मुनि अवस्था में बहुत कम लिखा। लेकिन पंडित अवस्था में लिखते चले गये और जब समझ में बात आ गयी, तो सब विकल्प छोड़कर यथाजात रूप धारण कर लिया। समयसार की हिन्दी टीका उनकी अंतिम कृति मानी जा सकती है, उसका उन्होंने अच्छे ढंग से चिन्तन मंथन के साथ लखा फिर लिखा। लिखना तो जीवन पर्यन्त हुआ, अब तो लखने का अवसर प्राप्त हुआ है ऐसी भावना मुनि अवस्था धारण करते ही हो गई थी। हमेशा-हमेशा प्रचार प्रसार से दूर रहने वाले, वह साधकों से कहा करते थे मैं प्रचारक नहीं, एक साधक हूँ और साधक हमेशा साधना प्रिय ही होता है। उनका जीवन का लक्ष्य क्या है? यह तो उनके जीवन के अंतिम क्षणों से ही ज्ञात हो सकता है।
यह बात अलग है उनके पास वज़वृषभनाराच संहनन यदि होता तो निश्चत रूप से कैवल्य को उपलब्ध कर लेते और अनेकों के लिए वह कार्यकारी सिद्ध हो जाते। लेकिन कर्म का ऐसा संयोग है, उसके कारण से वह कार्य नहीं हुआ। लेकिन उनका कार्य रुका हुआ नहीं है, जब तक मुक्ति नहीं हुई तब तक उनकी साधना बनी रहेगी क्योंकि वह आत्म साधक थे। चारित्र के साथ ज्ञान की साधना करने वालों के ज्ञान संस्कार के रूप में पर भव में भी जाते हैं। लेकिन अविरत अवस्था में जो ज्ञान रहता है। उसका कोई पतियारा नहीं रहता है, ऐसा शास्त्र का उल्लेख है। जब नेत्र खुल गये और पैर मंजिल की ओर बढ़ने लगे, अब डरने की कोई बात ही नहीं, मंजिल पास आयेगी या हम मंजिल के पास चले जायेंगे। ये ध्रुव सत्य है। श्रद्धान के साथ ही उनका जीवन श्रद्धा के तद्रुप था। इतनी क्षीण काया में भी, वह ज्योत जलती थी और वह तेज था उनमें कि उन्हें देखकर डरा हुआ व्यक्ति भी साहस पा जाता था, हमें बहुत विकल्प होते थे। ज्ञानसागर महाराज जी के जाने के उपरान्त हमारा क्या होगा। अरे स्वार्थी दुनियाँ ये तो सोच रहा है हमारा क्या होगा अरे भाई ये भी सोच लेना चाहिए कि प्रति समय कितना बड़ा उपकार किया है अत: उनको जल्दी-जल्दी सद्गति हो, उनकी यात्रा पूर्ण हो, यह भी विचार करना चाहिए। उनसे हमें इतना साहस मिला है कि अब डरने की बात नहीं है। आदि रहित अंत रहित ये महान् समुद्र होते हुए भी तैरने वाला व्यक्ति कभी भी डरता नहीं है। ऐसा जहाज हमें प्राप्त हो गया। ऐसी दिव्य दृष्टि हमें प्राप्त हो गई। ऐसा पथ हमें प्राप्त हो गया। अब मंजिल की चिंता नहीं। अब यही विकल्प है कि वह घड़ी जल्दी-जल्दी आ जाये। वह घड़ी आनी अवश्य है क्योंकि परिणाम हमारे भीतर हो रहा है, घड़ी अवश्य आवेगी। घड़ी जो बंधी हुई है, वह रुक सकती है, लेकिन यह परिणमन कभी भी रुक नहीं सकता। ध्रुव की ओर जो यात्रा प्रारम्भ हो गई अब मंजिल कभी भी ओझिल नहीं हो सकती है। निश्चत रूप से हमें प्राप्त होगी। ज्ञानी को कभी भी भविष्य में घटित होने वाली उस परिणति के ऊपर विस्मय नहीं होता, आकुलता नहीं होती, भूमिका के अनुसार हो जाये तो भी उसका अलग ही स्वाद होगा। हमें भी वही स्वाद प्रति समय आना चाहिए और इससे भी आगे बढ़ करके आये ये भावना होनी ही चाहिए। आकुलता नहीं है। आकुलता करने से कर्तव्य च्युत हो जाता है जीव। कर्तव्य के लिए भी आकुलता होती है, मैं मानता हूँ लेकिन कर्तव्य की आकुलता वह सामयिक होती है। वैकालिक नहीं हुआ करती है क्योंकि कर्तव्य के उपरान्त अपना जो गंतव्य है, लक्ष्य है, उसकी ओर हमेशा दृष्टि चली जाना चाहिए। ऐसे ज्ञानसागर महाराज श्री के चरणों में बार-बार नमोस्तु करता हूँ। आज भले ही परोक्ष कहता हूँ लेकिन वो परोक्ष नहीं है। हमारे लिए तो वे हमेशा-प्रत्यक्ष हैं।
तव पादौ मम हृदये, मम हृदयं तव हपदद्वये लीनम्।
तिष्ठतु जिनेन्द्र तावद् यावद् निर्वाण सम्प्राप्तिः ॥
(समाधि भक्ति-७)