परमार्थ से संबन्ध रखने वाले शास्त्र, तपस्वी, परमार्थरूप देव, ये तीनों संसारी प्राणियों के लिए औषध के समान हैं। संसारी प्राणी रोगी के समान हैं, उसे समीचीन औषध मिल जाये तो रोग चला जाएगा। समीचीन औषध के अभाव में ही यह रोग अनादि से लगा है। ज्ञान और विश्वास दोनों जरूरी हैं। जो खुद रोगी है, वह दूसरों का इलाज नहीं कर सकता है। उसी प्रकार संसारी प्राणी संसारी जीव को रास्ता नहीं बता सकता, वह तो खुद बीमार, रोगी है। संसारी जीव पर देव, शास्त्र, गुरु का प्रभाव पड़ता है। अपनी आत्मा के स्वभाव को भूल जाना और दूसरे पदार्थ को पकड़ना चोरी है। हम अनादिकाल से दूसरे पदार्थों को पकड़ने के कारण चोर ही बने हैं, साहूकार नहीं बने। दूसरे पदार्थों से संबंध रखना चोरी तथा अपनी निधि को भूल जाना अज्ञान है। हमारी दृष्टि पारमार्थिक नहीं बनी। वैराग्य धारण करने के बाद मुनिराज विश्व का कल्याण हो, ऐसी बात सोचते हैं। अत: परमार्थ की, वीतरागता की उपासना करो। सांसारिक कार्यों को पूर्ण करने के लिए धर्म का आलंबन नहीं होना चाहिए।
यदि सांसारिक कार्यों के लिए देव-शास्त्र गुरु का नाम लेंगे तो संसार वृद्धि ही होगी, संसार का नाश नहीं। जब एक जीवन में ही १८ नाते तक भी हो जाते हैं तो अनेक भवों के नातों का तो कहना ही क्या ? जो नग्न दिगम्बर हैं, वे किसी से नहीं डरेंगे, उनके पास तो सिवाय पिच्छिकाकमण्डलु के कुछ नहीं। अगर आप पिच्छिका-कमण्डलु लेंगे तो आप भी मुनि बन सकते हैं। हम रात दिन शरीर, राज्य, धन, घर के पीछे पड़े हुए हैं। वीतराग मुनि जहाँ भी जाते हैं, तो समझ लो उस जगह के जीवों का उद्धार होने वाला है। महाराज के द्वारा परमार्थ की कमाई होगी, अर्थ की कमाई नहीं। यह जीव राग के विकास योग्य पदार्थों के समार्जन में लगा है। दिगम्बर वीतराग मुद्रा स्वपर कल्याण कारक है। जवानी तो शरीर की अवस्था है, पुद्गल का खेल है। जब अन्दर आत्मचिंतन, तत्व का चिंतन चलता है, तब ये पर्यायें नजर नहीं आती। आप लोगों का थकने योग्य कार्य हो रहा है। परमार्थ भूत तत्व देव शास्त्र गुरु की उपासना से अनादि से किए अनर्थ दूर हो जाएँगे।
परमार्थ को जब वीतरागी मुनि समझाएँगे तो सब संसारी को चोर ही बताएँगे। मुनि जीवन मिलने के उपरांत भी संसारी जीव का कार्य स्वाधीनता पर आघात पहुँचाने वाला हो रहा है। परमार्थ की उपासना करने वाले मुनिराज महान् से महान् पापी को भी तिरा देते हैं। आपको ऐसा जीवन में कोई समय नहीं मिला जिसमें खाये, पीये, सोये नहीं हों। अब समंतभद्राचार्य आपको वीतरागता की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं। आप देव-शास्त्र-गुरु की स्तुति, स्तुत्य बनने के लिए करें। उपासना करनी है, उपास्य बनने के लिए, न कि उपासक ही बने रहने के लिए। अनंत बार हरेक पर्यायें मिल चुकीं पर वीतराग रूप पर्याय नहीं मिली। अर्थ का समार्जन करते समय परमार्थ को मत भूलो, वरना फिर ८४ लाख योनियों में भटकते रहोगे, उपदेश भी नहीं मिलेगा। जो संकलन कर रहे हो वो तो मिल जाएगा। आत्मकल्याण के लिए ज्यादा समय नहीं चाहिए, जीवन निर्माण के लिए ज्यादा समय चाहिए। भवन निर्माण के लिए मात्र विचार ही करते रहे तो जीवन चला जाएगा,इंजीनियर अल्प समय में ढूँढ़ो और निर्माण करो। चातुर्मास में सुनकर जीवन निर्माण में लगो और अपने आप चातुर्मास करो, अभी तो १२ मास संसारी कार्यों में लगे हो। समय की कीमत करो। वीतराग देव, जिनवाणी, गुरु की उपासना कर जीवन को राग से हटाने पर वीतरागमय बन जाओगे।