हरदा-निकटस्थ नेमावर स्थित सिद्धोदय सिद्धक्षेत्र में एक विशाल धर्मसभा को संबोधित करते हुए आचार्य श्री विद्यासागर जी ने कहा कि अपने दुखों में रोने वाले, आँसू बहाने वाले इस दुनियाँ में बहुत हैं लेकिन जो दूसरों के दुखों में रोते हैं, आँसू बहाते हैं, दूसरों के आँसू पोछते हैं ऐसे लोगों की संख्या इस दुनियाँ में बहुत कम है। अब आप दूसरों के आँसू पोंछना सीखिए अपने आँसू तो सभी पोंछ लेते हैं, अपने आँसू पोंछना धर्म नहीं, दूसरों के आँसू पोंछना धर्म है। आज दुनियाँ में बहुत आँसू है फिर भी हमारी आँख में आँसू नहीं आ रहे है हमारी आँख गोली नहीं हो रही है हमारे पास आँख तो हैं लेकिन आँसू नहीं। अहिंसा की पहिचान अस्त्रों से नहीं आँसू से होती है। लेकिन आँसू उसी आँख में आ सकते हैं जिस दिल में करुणा होगी, दया होगी। करुणा से खाली दिल वाले की आँख में आँसू नहीं आ सकते। आज जो मूक हैं, निर्दोष हैं, अनाथ हैं, ऐसे निरीह जानवरों की आँखों में आँसू हैं वो पशु अपनी करुण पुकार कैसे कहें क्योंकि उनके पास शब्द नहीं वे बोल नहीं सकते शायद यदि वे मूक प्राणी बोलना जानते तो अवश्य किसी कोर्ट में अपनी याचिका दायर कर देते, अपने अत्याचारों की कहानी सुना देते लेकिन हम इन्सान हैं जो बोलने सुनने वाले होकर भी कुछ न समझ रहे हैं और न सुन रहे हैं।
आचार्य श्री ने आगे कहा कि याद रखो अभिशाप सबसे बड़ा शस्त्र है। यदि हमें इन मूक पशुओं की श्राप, बदुआ लगी तो हमारा देश तबाह हो सकता है। आज तो वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया कि हिंसा, कत्ल की वजह से भूकम्प आते हैं। आज प्रकृति में जो घटनाएँ घट रही हैं, कहीं अकाल, कहीं भूकंप, कहीं बाढ़, ये सारे रूप हिंसक कार्य के ही हैं। हिंसा से सारी प्रकृति आन्दोलित हो जाती है, क्षुब्द हो जाती है, वातावरण उत्तेजित हो जाता है पर्यावरण नष्ट हो जाता है यदि हमारे देश में हिंसा, कत्ल होता रहा, कत्लखाने खुलते रहे, मांस निर्यात होता रहा तो क्या हमारा पर्यावरण सुरक्षित रह सकता है? और जब हमारा पर्यावरण ही नष्ट हो जाये तब हमारी उन्नति का क्या अर्थ? क्या विदेशी मुद्रा पर्यावरण को बचा लेगी? जब आदमी का ही जीना मुश्किल हो जायेगा तब दुनियाँ की सारी संपत्ति किस काम की? पर्यावरण और स्वास्थ्य का ठीक रहना ही मानव जाति का विकास है, पर्यावरण को बिगाड़ करके हम अपने स्वास्थ्य को जिन्दा नहीं रख सकते अत: पर्यावरण की रक्षा के लिए हिंसा, कत्ल के काम छोड़ने होंगे, पशुओं को बचाना होगा।
सुनते हैं कि पहले देवताओं के लिए पशुओं की बलि चढ़ाते थे लेकिन आज आदमी के लिए पशुओं की बलि चढ़ाई जा रही है। आदमी के लिए पशु का कत्ल हो रहा है, देश की उन्नति के लिए पशुओं का वध हो रहा है, खून मांस बेचकर देश की उन्नति का स्वप्न देश की बर्बादी का लक्षण है। आदमी के पास भुजाएं हैं फिर उन भुजाओं का सही दिशा में पुरुषार्थ क्यों नहीं किया जा रहा है? आज भुजाओं से भी पैर का काम लिया जा रहा है। भला हुआ कि आदमी के पास सींग नहीं हैं अन्यथा यह आदमी क्या-क्या करता पता नहीं। दूसरों के पैर तोड़कर हम अपने पैरों पर खड़े नहीं हो सकते, मैं राष्ट्र को पंगु देखना नहीं चाहता पशुओं के अभाव में भारत पंगु हो जायेगा, भारत कृषि प्रधान देश है यहाँ की जनता सदियों से पशु पालन और उनके माध्यम से अपना निर्वाह करती चली आ रही है कृषि उत्पादन के क्षेत्र में गो-वंश का उपकार भुलाया नहीं जा सकता।
आज अध्यात्म के शिविर लगाने में जितना पैसा खर्च किया जा रहा है यदि वह पैसा मांस निर्यात रोकने के क्षेत्र में लगाया जावे तो बहुत अच्छा होगा और अब शिविर शहर में नहीं राष्ट्रपति भवन में लगाओ और वह शिविर, दया का, अनुकम्पा का, करुणा अहिंसा का हो, जिससे लाखों करोड़ों जानवरों का कत्ल रुके। देश के राष्ट्रपति को देश की पशु सम्पदा का ध्यान होना चाहिए लेकिन आज नहीं है इसीलिए नागरिको अब जागो और मूक पशुओं की आवाज को राष्ट्रपति भवन तक पहुँचाओ ताकि वह भवन पशुओं की पुकार से हिल उठे और पशुओं का कत्ल होना बन्द हो जाये मांस नियति रुक जाये।
वस्तुत: आज हमको जागृत होने की जरूरत है। यह हमारा देश युगों-युगों से सत्य अहिंसा का सन्देश देता आ रहा है हम अपने इतिहास को खोलें अपनी संस्कृति को पहिचानें उसका अध्ययन करें। भारतीय इतिहास, संस्कृति और सभ्यता पशु-वध की इजाजत नहीं दे सकती। वध तो वध है चाहे जानवर का हो या मनुष्य का इसमें अन्तर नहीं है। आओ हम सब मिलकर अपने देश से इस पशु वध को रुकवायें। पशु-वध रुकवाना ही आज की अनिवार्यता है। आचार्य श्री ने एक जंगली प्राणी की महानता और उसकी सेवा, करुणा का उदाहरण देते हुए कहा कि एक जंगल में आग लग गई, सारा जंगल जल रहा था सारे जंगल के प्राणी यहाँ वहाँ भाग रहे थे एक स्थान पर एक तालाब था उसी तालाब के पास सारे जंगल के प्राणी पहुँच गये। वह तालाब जंगली जानवरों से खचाखच भर गया। उसी तालाब में प्राणियों के झुण्ड में एक हाथी था अचानक हाथी ने अपना एक पैर उठा लिया बस उसी वक्त उस हाथी के पैर के उठाये वाले स्थान पर एक छोटा सा खरगोश का बच्चा आकर बैठ गया हाथी ने देखा कि पैर रखने के स्थान पर एक खरगोश का बच्चा बैठा है यदि मैं अपना पैर रखता हूँ तो वह खरगोश का बच्चा मर जायेगा। अत: वह हाथी तीन पैर से खड़ा रहा उसने अपना पैर धरती पर नहीं रखा।
एक दिन, दो दिन, तीन दिन तक तीन पैरों पर खड़े-खड़े वह हाथी इतना जकड़ जाता है उसका पैर फूल जाता है अन्त में वह हाथी नीचे गिर गया और मर गया लेकिन उसने अपना पैर जमीन पर नहीं रखा, यह है जगली जानवर की महानता/ करुणा की जीवन्त कहानी। एक जंगली प्राणी भी एक जीव की रक्षा के लिए अपना जीवन न्यौछावर कर सकता है लेकिन आज हम हैं जो जंगल में नहीं शहर में रहते हैं गुफाओं में नहीं भवनों में रहते हैं शिक्षित और सभ्य होकर बर्बरता और क्रूरता का काम कर रहे हैं। जंगल में रहने वाले भी अहिंसा/करुणा का पालन करते थे। और आज हम शहरों में रह करके भी हम में अहिंसा और करुणा नहीं हैं।
हमारी साक्षरता का क्या अर्थ है? वह जंगली हाथी साक्षर नहीं था उस हाथी ने किसी स्कूल कालेज में नहीं पढ़ा था वह निरक्षर था फिर भी उसमें मानवता थी लेकिन हमारे पास आज मानवता मर गई है अरे! धर्म करने वालो जरा सोचो तुमने आज तक कितना धर्म किया, कितना दान किया? कितना त्याग किया? जीवन में जीवित धर्म का पालन करो। पशुओं के पास भी धर्म होता है भले वे किसी मंदिर नहीं जाते उसके पास भी अहिंसा और करुणा होती है आप जरा विचार करिये जब एक हाथी भी एक खरगोश को अपने पैर के नीचे जगह दे सकता है, जीवनदान दे सकता है तब फिर आप तो आदमी हैं क्या आप पशुओं को जीवनदान नहीं दे सकते?
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