आज का यह पर्व का नवमा दिन है, जैसे जैसे पर्व के अन्तिम चरण तक चले जाएँगे, वैसे वैसे आप लोग बहुत सूक्ष्म तत्व का अवलोकन करते जाएँगे। आकिंचन्य धर्म यह कह रहा है कि जिस आत्मा के पास कुछ नहीं है, वह जगत पूज्य है, जो कुछ वह कर रहा है, वह सब समीचीन कहलायेगा जो कुछ आस्वाद वह ले रहा है, वह निजी आस्वाद ले रहा है। अगर आप इसे अपना लेंगे तो कहेंगे कि बहुत कुछ सुख आ गया। कहा भी है कि-
"अकिंचनस्य भावो आकिंचन्यम्"
अर्थात् कुछ भी नहीं है, उसका भाव सो ही आकिंचन्य है। अकिंचन का भाव सो ही आकिंचन्य है। जो आत्मा अपने आपको प्राप्त करना चाहता है, उसके लिए यह विचार कि मैं अरूप, अमूर्त हूँ, दर्शनमय ज्ञानमय हूँ, मेरे पास कुछ नहीं है, मेरा कोई भी अन्य द्रव्य नहीं है। आज जैन धर्म का अध्ययन करके अनेक ला Ph.d. (खोज) भी कर रहे हैं, पर वे कंचन की लिप्सा वाले आकिंचन्य धर्म को प्राप्त नहीं कर सकते वे तो मात्र आकिंचन्य का विज्ञापन करने वाले हैं। धन वैभव या उपाधियों की लिप्सा से आकिंचन्य धर्म सुनेगा वा सुनाएगा, वह इसे प्राप्त नहीं कर सकता है। जैसे-जैसे दूसरे द्रव्य हटते जाते हैं, आकिंचन्य को अपनाते जाते है। कदर तभी है, जब किंचित् भी नहीं हो पर आप उल्टा सोचते हैं। आप चाहते हैं कि कुछ न कुछ तो होना चाहिए, नहीं तो बुखार चढ़ने लगता है।
आकिंचन्य बनने के प्रयास से ही सुख का अनुभव होगा जहाँ सम्बन्ध का अभाव है, वहीं सुख है। जिसके पास कुछ भी नहीं है वह अपने आप को पहचान लेता है, वह उस स्वभाव को प्राप्त करने की चेष्टा करेगा। आपको लगता है कि पर्व के दिन कब समाप्त होंगे ताकि मैं दुकान खोलें, पर को पकड़ लू। यह धारणा गलत है। क्योंकि बटोरने की चेष्टा कर रहे हो जबकि तेरा कुछ भी नहीं है। यह आकिंचन्य ही सुख प्रदायक है। धन पर तो चोरों की दृष्टि है, उसमें दुख भी है। जहाँ कुछ भी नहीं है, वहाँ सुख ही सुख है। पुद्गलों के परिवर्तन, द्रव्यों में अन्तर देखकर जीवों में अन्तर पटकना, दूसरों की ओर झुकना ही मूढ़ का काम है, मूढ़ता है। जिसको यह ज्ञान हो जाता है, वह इन द्रव्यों से कोई मतलब नहीं रखता और रत्नत्रय रूपी धन को सम्भालता है। वह बाहरी धन को पर द्रव्य समझता है, वह उसे छोड़ देता है। वह कंचन की भावना को छोड़कर बारह भावना का चिंतन करता है, वह विचारता है भाव का अवगाह आकाश नहीं है। द्रव्य, क्षेत्र, काल तथा भव तेरे हाथ नहीं है तो क्या भाव तो तेरे आधीन है, अपने पास है। फिर वेदना का चिंतन क्यों? बारह भावना का चिंतन क्यों नहीं ?
जहाँ दूसरों को पकड़ने रूप भाव है, वहाँ आकिंचन्य रूप भाव नहीं है। दान से बढ़कर त्याग बताया है। आकिंचन्य में अपने विकार के अस्तित्व को मिटाने की आवश्यकता है। 'मैं' का अस्तित्व मिटा है। ‘है' का अस्तित्व नहीं मिटेगा। 'मैं' विकार है, यह तुलनात्मक है। जब तक तेरामेरा लगा है तब तक आकिंचन्य को नहीं अपना सकता है। जो इनको छोड़कर अपने आप में तल्लीन होता है, वह आकिंचन्य धर्म को अपनाता है। मैं कर्म से भिन्न हूँ, उसके फल से भिन्न हूँ, दर्शन-ज्ञान चारित्र से भिन्न हूँ क्योंकि मैं दर्शन ज्ञान चारित्र रूप हूँ, भेद नहीं करना है। भेद करना ही आकिंचन्य धर्म से दूर होना है। जो शरीर व धन आदि की सुरक्षा चाहता है, वह ऊँच-नीच को भी नहीं देखता है। कुशीलता तथा दुर्जनों के साथ सम्बन्ध रखने से ऐसी परिस्थिति आ जाएगी कि आप अपनी स्थिति (स्वभाव) से च्युत हो जाएँगे। दूसरे के साथ जो सम्बन्ध रखते हैं, वह कभी भी स्वाधीन नहीं बन सकते, वह पराधीन ही रहेंगे। कहा है-
"पराधीन सपने सुख नाहिं"
पराधीन होश में हो तो सुख नहीं है पर यहाँ तो स्वप्न में भी सुख नहीं बताया है। मुनि जीवन एक Practical है, यह दुनियाँ के लिए प्रदर्शन है कि सुख का अनुभव कहाँ होता है ? फिर भी यह प्रमादी जीव, अज्ञानी प्राणी कहाँ विचारता है! बाहरी त्याग से ही आप अन्दर (आत्मा में) प्रवेश नहीं कर सकते, आपको विचारों में भी अन्तर लाना पड़ेगा। 'मैं' को भूलना पड़ेगा, धन, वैभव, शरीर छोड़ने के बाद। सिद्धों में मिलने के बाद आप भी महान् कहलाएँगे, वहाँ छोटा बड़ा कोई कल्पना नहीं है।
यह शरीर, आठ कर्म तथा राग-द्वेष कोई भी अपना नहीं है। जल से दूध जिस प्रकार भिन्न है, उसी प्रकार शरीर भित्र है। आत्मा में जो राग-द्वेष है,'मैं' रूपी भाव है, उनको ही भाव कर्म कहते हैं, उनको भी छोड़ना पड़ेगा। कहा भी है :-
हूँ बाल मंद मति हूँ, लघू हूँ यमी हूँ,
मैं राग की कर रहा क्रम से कमी हूँ।
हे शारदे सुखद शांति सुधा पिलादे।
माता मुझे कर कृपा मुझमें मिलादे ॥
भगवान् के पास, निरभिमानी के पास निरभिमानी बन कर जाना चाहिए और विचार कर कहना चाहिए कि मैं बालक हूँ, मंद बुद्धि हूँ, छोटा हूँ, राग को अपना रहा हूँ। हे भगवान्! मुझे मुझमें मिला कर सुखद शांति दिला दे। ये चैतन्य शक्ति जो आत्मा के पास है, वह ज्ञान दर्शनात्मक है, वह शक्ति सच्चेतन बन जाये, अपने आप में मिल जाये। चेतन आपके पास भी है, पर वह तो कर्म चेतना है, अपने स्वभाव को भूल कर रस ढूँढ़ रही है। बाहर की ओर चेतना नहीं जाने देना यही आकिंचन्य धर्म है, बाकी तो मात्र अभिनय है।