भारत ने अपनी आजादी की पचासवीं वर्षगांठ स्वर्ण जयंती के रूप में मनाया। कोई भी हो आजादी तो सबको प्रिय होती है परतंत्र रहना किसी को भी पसंद नहीं। लेकिन हमने क्षेत्रीय आजादी की स्वर्ण जयंती मनाई। हम क्षेत्र से स्वतंत्र हुए विदेशी सत्ता से मुक्त हुए लेकिन हमने मानसिक गुलामी की जंजीरें अभी कहाँ तोड़ी हैं? आजाद तो वे हुए जिन्होंने अपनी मानसिक दासता को तोड़ डाला और अपनी स्वतंत्र जिन्दगी अपना ली। हमारी संस्कृति अध्यात्म और अहिंसा की संस्कृति है। त्याग और तपस्या की संस्कृति है। आज भी भारत में अध्यात्म और अहिंसा का, त्याग और तपस्या का दर्शन जीवित है। गौरव है हमें एक भारतीय संत पर जिन्होंने भारत के माथे को ऊँचा उठाया है। भारतीय संस्कृति को जीवन दिया। सारे भारत में जहाँ जुलूसों, जलसों, उत्सव, महोत्सवों, जश्नों में स्वर्ण जयंती मनाई, वहीं पचास युवक-युवतियों ने त्याग और संन्यास के साथ आजादी की ‘आध्यात्मिक जीवन जयन्ती' मनाई। राष्ट्र की महान् विभूति ‘आचार्य विद्यासागर जी महाराज' ने दिगम्बर जैन रेवातट सिद्धोदय तीर्थ सिद्धक्षेत्र नेमावर (खातेगाँव) में पचास युवा युवतियों को अध्यात्म और अहिंसा की दीक्षा प्रदान की।
६ जून १९९७ को २९ आर्यिका दीक्षा, ९ अगस्त १९९७ को ७ क्षुल्लक दीक्षा, १८ अगस्त १९९७ को १४ आर्यिका दीक्षा कुल ५० दीक्षाएँ दी।
स्वर्ण जयंती का इतिहास इन दीक्षाओं से स्वर्णिम रहेगा और हमेशा याद किया जायेगा।
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