अनंत जलराशि का वाष्पीकरण होता है सूर्य के प्रताप से और वह बादलों में ढल जाता है पुन: वर्षा के जल के रूप में नीचे आ जाता है, पर्वत के शिखर पर भी क्यों न गिरे, वहाँ से वह नीचे की ओर ही बहता है। जल जब तक द्रव रूप में रहेगा तब तक वह नीचे की ओर ही बढ़ेगा, किन्तु जब हम उसे रोक देते हैं तो वह रुका हुआ मालूम पड़ता है किन्तु वह रुकता नहीं है।
अभी उड़ीसा की तरफ से हम आ रहे थे! वहाँ पर संबलपुर के पास एक गाँव है हीराकुण्ड, वहाँ महानदी को बाँधने का प्रयास इस युग के मानव ने किया है। उस जल को बाँधने के उपरांत भी वह गतिमान है, पहले वह नीचे की ओर जाता था अब ऊपर की ओर बढ़ रहा है। जितनाजितना पानी ऊपर की ओर बढ़ेगा उतना-उतना खतरा उत्पन्न होता जायेगा। बाँध एक प्रकार का बंधन है, जैसे बंधन में बंधा व्यक्ति उग्र हो जाये तो काम बिगड़ जाता है, ऐसा ही बाँध के पानी का है, इसलिए बाँध पर 'खतरा' लिखा हुआ रहता है।
पहले जब पानी सहज गति से बहता था तो कोई खतरा नहीं था बल्कि देखने योग्य मनोरम दृश्य था, लेकिन अब खतरा हो गया। एक भी ईट या पत्थर खिसक जाए तो क्या दशा होगी? जो जल ऊपर की ओर बढ़ रहा है उसे रोका नहीं गया है, मात्र रास्ता बंद किया है और जब किसी का रास्ता रोका जाता है तो वह अपने विकास के लिए प्रयत्न करता है, अपनी शक्ति का प्रयोग करता है और ऐसा होने से संघर्ष प्रारम्भ हो जाता है, नदियों के साथ संघर्ष नहीं है पर बाँध के साथ संघर्ष है।
हम जब छोटे थे तब खेत में जाकर देखते थे, वहाँ पर किसान लोग चरस चलाते थे, पानी आता था और बने हुए रास्ते से गुजरता हुआ चला जाता था, गन्ने के खेत को पानी पिलाया जा रहा था, जहाँ वह जल मुड़ गया था उस मोड़ पर वह किसान बार-बार मिट्टी के ढेले डाल देता था, कभी-कभी गन्ने के छिलके भी लगाता था ताकि मजबूत बना रहे, क्योंकि वहाँ जल टकराता था इसलिए वहाँ संघर्ष था, मिट्टी रुक नहीं पाती थी, जब इतने से जल के साथ सावधानी रखनी पड़ती है तब जहाँ बाँध बनाया जाता है वहाँ कितना बड़ा काम है।
यह तो उदाहरण की बात है। ऐसी ही चारों गतियों के प्रवाह में जीव की स्थिति है, वहाँ उसकी शक्ति देखने में नहीं आती, लेकिन जब वह ऊध्र्वगमन करने लगता है तब शक्ति देखने में आती है, आणविक शक्तियों से भी बढ़कर काम करने वाली यह शक्ति है, अपने उपयोग को ऐसा बाँध दिया जाए कि कर्म की चपेट से बच सकें तो जीवन का प्रवाह ऊध्र्वगामी हो जाता है और धीरे-धीरे सिद्धालय की ऊँचाईयाँ छू लेता है। यह बड़ी मेहनत का काम है बड़े-बड़े इंजीनियर भी इसमें फेल हो जाते हैं। बहुत साधना के उपरांत भी सफलता मिले यह जरूरी नहीं है। बाँध बनाते समय सारी साधना, आत्मविश्वास और साहस के साथ इंजीनियर कार्य करता है लेकिन असाता कर्म का प्रवाह आते ही सारे के सारे खंभे गिर जाते हैं।
इस युग के अंतिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी को भी इस प्रवाह को रोकने और आत्मा को ऊध्र्वगामी करने के लिए पूरे बारह वर्ष लग गए थे। आदि ब्रह्मा आदिनाथ को एक हजार वर्ष लग गये थे। वे कितने बड़े इंजीनियर थे, उनकी उस यूनिवर्सिटी को देखने की आवश्यकता है। मैं बार-बार चिंतन करता हूँकि उस यूनिवर्सिटी में हमारा नम्बर आ जाए तो बड़ा अच्छा रहे, वहाँ नंबर आये बिना काम बनने वाला नहीं है, उन्होंने अपने उपयोग रूपी बाँध का निर्माण कैसे किया, वह समझने की बात है।
यह जो आत्म-तत्व पानी के समान चारों गतियों में बह रहा है उसे नियंत्रित करना और ऊध्र्वगामी बनाना बड़ा कठिन कार्य है। नदी पर बनने वाले बाँध में तो सीमेंट और पत्थर लगाये जाते हैं लेकिन उपयोग के प्रवाह में क्या लगायें, वह तो एक सेकेंड में बदल जाता है, बाँधते-बाँधते ही रास्ता बदल लेता है, इतने सूक्ष्म परिणमन वाले परिवर्तनशील उपयोग को बाँधना साधना के बिना संभव नहीं है। जब हम स्कूल में पढ़ते थे, तब एक पाठ पढ़ा था। एक ऐसी नदी चीन में है जो रातों रात पाट बदलती है। बहने की दिशा कई बार बदल लेती है, तो लोगों को बड़ी घबराहट हो जाती है, बड़ा खतरा उत्पन्न हो जाता है। मैं बार-बार सोचता हूँकि इतने-इतने छोटे-छोटे प्रवाहों के लिए इतनी साधना की आवश्यकता होती है तब अपने आत्म प्रवाह को बाँधने के लिए कितना पुरुषार्थ करना होगा।
भारतीय संस्कृति का इतिहास उज्वल रहा है, भारतीय संस्कृति के अनुरूप वैसे कोई भी कार्य कठिन नहीं है क्योंकि पराश्रित कार्य कठिन हो भी सकता है किन्तु स्वाश्रित कार्य बहुत आसानी के साथ होते देखे जाते हैं। इतना अवश्य है कि ऐसे कार्यों के लिये अपनी ओर देखें, अपनी आत्म-शक्ति को जाग्रत करें और श्रद्धा रखें तो सफलता आसानी से प्राप्त हो जाती है, हमारा जीवन जो भोग-विलास की ओर ढला हुआ है उसे योग की ओर कैसे लाया जाये? क्या पद्धति अपनायी जाये जिससे हमारा प्रवाह भोगों की ओर से हटकर योग की ओर आ जाए? रात-दिन खाने पीने की इच्छा, शरीर को आराम देने की इच्छा, सुनने की इच्छा, सूघने की इच्छा, स्पर्श करने की इच्छा और मन में सभी भोगों का स्मरण चलता रहता है। ऐसी स्थिति में योग कैसे धारण करें? तो इतना ही करना है कि जिस प्रकार आप उस ओर जा रहे हैं, उसी प्रकार इस और आ जायें।
उपयोग की दिशा में बदलाव लाना होगा, बड़ा दृढ़ श्रद्धानी और धैर्य वाला उपयोग चाहिए, जो बदलाव के बोझ को सहन कर सके। जैसे आप सीढ़ियों के ऊपर चढ़ते जाते हैं और जरा सा घुमाव आ जाए तो आजू-बाजू सँभालकर चलना होता है उसी प्रकार उपयोग को भोग के धरातल से योग के शिखर तक लाना महान् कठिन कार्य है। सावधानी की बड़ी आवश्यकता है। श्रद्धान दृढ़ बनाना होगा, दिशा का सही चयन करना होगा और विदिशाओं को बंद करना होगा तभी ऊँचाईयों तक पहुँचना संभव है।
आज का भारतीय नागरिक भोग की ओर जा रहा है और भोग्य सामग्री को जोड़ता हुआ वह योग को पाना चाह रहा है। योग को पाने के लिए भोग का वियोग करना होगा, उसे एकदम विस्मृत करना होगा तभी योग को पाया जा सकता है। भोग मेरे लिए अहितकारी है, ऐसा सोचना होगा और अनुभव से ऐसी धारणा बनानी होगी कि भोग मेरा साथी नहीं है, उससे मेरा उद्धार अभी तक नहीं हुआ और कभी भी नहीं हो सकता। भोग मेरी दिशा और दशा बदलने वाला है, वह मेरे लक्ष्य में साधक नहीं बल्कि बाधक है। चारों ओर भोगों की ओर जाने वाला उपयोग यदि वहाँ जाना बंद कर दें तो उपयोग की धारा को योग की ओर ले जाना आसान हो जायेगा।
जैसे डॉक्टर क्रमशः इलाज करता है और रोगी को रोग-मुक्त कर देता है। ऐसा ही यदि आप चाहें तो क्रमश: भोगों को कम करते-करते उससे पूरी तरह मुक्त हो सकते हैं और अपनी चेतना की धारा योग की तरफ मोड़ सकते हैं, साधना की बात है, अभ्यास की बात है। घुड़सवार होते हैं, घोड़े के ऊपर बैठ जाते हैं, आपने कभी गौर से देखा हो तो मालूम पड़ जायेगा कि वे घोड़े के ऊपर बैठते नहीं हैं, जब घोड़ा दौड़ता है तो वे घोड़े की पीठ पर लटके पायदान पर पैर रखकर उसके ऊपर सारा वजन डाल देते हैं, लगभग खड़े हो जाते हैं, घोड़ों को काबू में रखने के लिए ऐसा करना अनिवार्य है। इसी प्रकार उपयोग को रोकने के लिए योगीजन प्रयास करते हैं, सतर्क होकर धीरे-धीरे नियंत्रण करते हैं।
भारत का प्रत्येक नागरिक भोगों को क्रमश: नियंत्रित करने के लिए ही गृहस्थाश्रम में प्रवेश करता है, विवाह करता है। विवाह की पद्धति के बारे में भारत की प्रथा एक अलग प्रथा है, यहाँ विवाह का अर्थ मात्र भोग का समर्थन करना नहीं है बल्कि भोग को नियंत्रित रखने की प्रक्रिया है। काम को क्रमशः जीतने का एक सीधा—सरल तरीका है विवाह । जो व्यक्ति विवाह के बिना रहना चाहता है उसके लिए योग की साधना अलग है, जिसके माध्यम से वह जीवन की ऊर्जा को ऊध्र्वगामी बनाता है, अपने जीवन में फिर पीछे मुड़कर नहीं देखता। लेकिन इस प्रकार के व्यक्तियों की संख्या अत्यल्प है।
बहुसंख्यक लोगों के लिए, जो विवाह की पद्धति अपनाते हैं, उन्हें भी पूर्व भूमिका का प्रशिक्षण लेना चाहिए, जीवन को किस प्रकार ढालना है, इस विषय में आज कोई नहीं सोचता। सोचना चाहिए। यदि माँ-पिता लड़की या लड़के को देखते हैं तो पहले धन नहीं बल्कि उनके चारित्र के बारे पूछताछ करनी चाहिए, भारतीय सभ्यता के अनुसार तो विवाह की यही प्रक्रिया है। इसके बाद ही सम्बन्ध होते हैं। सम्बन्ध का क्या अर्थ है? 'समीचीन रूपेण बंध इति'- समीचीन रूप से बंधने का नाम ही सम्बन्ध है।
आज अधिकतर सुनने में आता है कि सम्बन्ध बिगड़ गया, बिगड़ने का कारण क्या है? तो यही कि पूर्वापर विचार नहीं किया और सम्बन्ध तय कर दिया, यही तो मुश्किल है, जो सम्बन्ध होता है वह माता-पिता के द्वारा किया जाता है और वह वर-वधू को मंजूर होता है, वे जानते हैं कि माता-पिता ने हमारे हित के लिए किया है।
एक बार की बात है, मुसलमानों के यहाँ शादी थी, पंडाल में वर को बैठाया गया और वधू को बहुत दूर अंदर परदे की ओट में, दोनों पक्षों में मौलवी रखे गये थे, उनके द्वारा पूछा गया कि क्या यह सम्बन्ध दोनों को मंजूर है? तो वे कह देते हैं कि जी हाँ! मंजूर है। यह एक बार नहीं, तीन बार बोलना पड़ता है जैसे आप मन-शुद्धि, वचन-शुद्धि और काय-शुद्धि बोलते हैं। हमने सोचा कि यह तो शपथ हो गयी, सभी के सामने शपथ ले ली ताकि सम्बन्ध पूरी जानकारी के साथ हो।
आज तो भारत की क्या दुर्दशा हो गयी है? कभी आपने सोचा कि किस तरह भारतीय सभ्यता टूटती जा रही है विवाह के मामले में, यदि भारतीय सभ्यता से संस्कारित होकर शादी की जाए तो पति-पत्नी दोनों कुछ ही दिनों में भोगों से विरक्त होकर घर से निकलने का प्रयास करते हैं। भोगों को त्यागने की भावना उनके अंदर स्वत: ही आने लगती है और उसके उपरांत आत्मोद्धार करके वे अपने जीवन का निर्माण कर लेते हैं।
कुल-परम्परा और संस्कृति का ध्यान रखकर जो विवाह होते हैं उनमें भोग की मुख्यता नहीं रहती। विवाह के समय होने वाले विधि-विधान वर-वधू को सदाचार, विनय, परस्पर स्नेह और व्यसन मुक्त होकर जीने का संदेश देते हैं। सप्तपदी विवाह में सात प्रतिज्ञाएँ दी जाती हैं। जिनका पालन वर-वधू को जीवन-पर्यत करना होता है। विवाह की सामग्री में अष्ट मंगल द्रव्य और विशेष रूप से स्वास्तिक को रखा जाता है। हमने सोचा कि सांथिया के बिना यहाँ भी काम नहीं चलता। स्वास्तिक का अर्थ है 'स्वस्थ अस्तित्व द्योतयति इति स्वास्तिक', अपने अस्तित्व को उद्योत करना, अपने आप को पा लेना।
उसका सीधा सा अर्थ यही हुआ कि विवाह के समय कह दिया जाता है कि देखो। तुम दोनों मिलने जा रहे हो लेकिन ध्यान रखना, सब कार्यों को मिल जुलकर करना, अपनी दिशा को नहीं भूलना और ‘स्व” के अस्तित्व को भी कभी नहीं भूलना, यह आत्मा को उन्नत बनाने की प्रक्रिया है। यह एक मात्र अवलम्बन है। जिस प्रकार नदी को पार करते समय नाव की आवश्यकता होती है। जिस प्रकार जंगल को पार करते समय मार्गदर्शक की आवश्यकता होती है, किसी सूचना या संकेत फलक की आवश्यकता होती है उसी प्रकार जीवन-साथी के माध्यम से दोनों पार हो जायें भवसागर से, यह परस्पर आलम्बन बनाया जाता है।
इतनी ही नहीं, सबसे बड़ा संकल्प तो इस बात का किया जाता है कि 'मातृवत् परदारेषु' अर्थात् एकमात्र पत्नी को छोड़कर अब पति के लिए संसार में जितनी भी महिलाएँ हैं, उनमें अपने से बड़ी को माँ के समान, बराबर उम्र वाली को बहिन के समान और छोटी को पुत्री के समान समझना, ऐसा कह दिया जाता है। और वधू से कहा जाता है कि वर को छोड़कर सबको पिता के समान, भाई के समान या पुत्र के समान जानना, इसके अलावा और कोई राग भाव नहीं आना चाहिए।
देखो, कितना अनुशासन है, महानदी असीम क्षेत्र में फैली हुई थी, उसकी शक्ति को एकत्रित करके उस जल का उपयोग करने के लिए बाँध का निर्माण किया गया। जो काम इतनी बड़ी नदी नहीं कर पा रही थी, अब बाँध के द्वारा होने लगा, जहाँ तक वह पानी फैलाना चाहो, फैलाओ। सारा पानी काम आयेगा, क्योंकि बंधा हुआ बाँध है अनुशासित है, अभी नदी के बहते हुए जल से बिजली नहीं बनती थी, अब बाँध के माध्यम से बिजली का भी निर्माण होगा।
विवाह का सम्बन्ध भी ऐसा ही अनुशासित बंधन है, जिससे उत्पन्न शक्ति के द्वारा समाज का विकास होगा, वह समाज के उपयोग में आयेगी। प्रत्येक बंधन का उद्देश्य ऐसी शक्ति का निर्माण करना है जो विश्व को प्रकाश दे सके, आदर्श प्रस्तुत कर सके। सब कुछ भूल जाना लेकिन अपने आप को नहीं भूलना, इसी को बोलते हैं दाम्पत्य बंधन, अब दंपत्ति हो गये, अपनी अनंत इच्छाओं का दमन कर लिया, उनको सीमित कर लिया।
कभी आपने सोचा कि बाँध कब टूटता है? बाँध उस समय टूटता है जब बाँध बनाने वाले को लोभ आ जाता है, इसी प्रकार आज दाम्पत्य-बंधन के बीच में यदि धन सम्पत्ति का लोभ आ जाता है, लालसा बढ़ जाती है तो दुर्घटना घट जाती है। जिस जल राशि के द्वारा कल्याण होता था, उसी के द्वारा तबाही होने लगती है, परिवार और समाज की बदनामी हो जाती है, बाँध टूट जाने पर पुनः निर्माण उसी जगह संभव नहीं होता, बड़े-बड़े इंजीनियर लोग अपना दिमाग लगा देते हैं, तब भी जोड़ना मुश्किल पड़ता है, वस्त्र फट जाने पर आप जोड़ लगा देते हैं लेकिन पूरी की पूरी मजबूती रहे ऐसा जोड़ लगाना संभव नहीं होता, एक बार सम्बन्ध टूट जाने पर फिर बेमेल हो जाता है वह सम्बन्ध।
बंधुओ! भोग से बचकर योग की ओर जाने के लिए एक ऐसा सम्बन्ध विवाह के द्वारा बनाया जाता है कि जिसके उपरांत जीवन का प्रवाह अपने आप ही आगे बढ़ जाये। शरीर भिन्न-भिन्न रहते हुए भी आत्मिक सम्बन्ध ऐसा हो जाए कि जीवन बेजोड़, एक जैसा और अद्भुत महसूस होने लगे। एक गाड़ी में दो बैल जोते जाते हैं, एक बैल यदि पूर्व की ओर जाये और दूसरा पश्चिम की ओर जाने लगे तो बैलगाड़ी का आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। बैलगाड़ी चलाने वाला कितना भी होशियार क्यों न हो, वह भी परेशान हो जाता है। जब दोनों समान दिशा में चलेंगे तभी जीवन की गाडी चल पाती है, आचार-विचार में ऐक्य होना आवश्यक है, जहाँ ऐक्य है वहाँ जीवन में बहुत अच्छे-अच्छे कार्य हो सकते हैं, जीवन के खंड-खंड नहीं होने चाहिए, जीवन अखण्ड बने, ऐसा भाव बनाना चाहिए।
आज की विवाह प्रक्रिया को देखकर लगता है कि व्यक्ति प्राचीनकाल से चली जा रही सही पद्धति को छोड़ते चले जा रहे हैं, धन पैसे का लालच बढ़ता जा रहा है। आज बडी उम्र की कन्याएँ दहेज के कारण तकलीफ पाती हैं, उनका जीवन उनके घर में सुरक्षित नहीं रहता, उन पिताओं पर क्या गुजरती है जिनकी बेटियों के ऊपर आए दिन दुर्घटनाएँ घटती हैं? यह तो वही जानते हैं। अब तो विवाह न होकर यह तो व्यवसाय हो गया है, यह कैसी परम्परा, यह कौन सा आदर्श प्रस्तुत किया जा रहा है पढ़े लिखे आज के समाज द्वारा।
अगर कोई कन्या आगे जाकर ऐसा कह दे कि दहेज में हजारों रुपये देकर हमने लड़के को खरीद लिया तो क्या होगा? जीवन पर्यन्त के लिए जो एक ही रहे हैं, क्या इस तरह उनके जीवन में ऐक्य हो जाएगा? क्या जीवन पर्यत वे सुखपूर्वक जी सकेंगे? जो प्रतिज्ञाएँ उन्हें दिलायी जाती हैं उनका कोई अर्थ जीवन में रह जाएगा? कोई अर्थ नहीं रहेगा। ऐसे सम्बन्ध आत्म-कल्याण के लिए बाधक ही बनते हैं।
पाणिग्रहण होता है, एक दूसरे का हाथ पकड़कर जीवन भर साथ चलने का संकल्प लिया जाता है, जीवन में कौन-कौन सी घाटियाँ आ सकती हैं, कैसी-कैसी बाधाएँ आ सकती हैं, उन सभी में दोनों मिल जुलकर संतोषपूर्वक आनंद के साथ रहें, दोनों परस्पर सहयोगी बनें, एकता के साथ जिएं, यही भावना होती है, लेकिन अर्थ के प्रलोभन के वशीभूत होकर आज अनर्थ हो रहा है, समाज के द्वारा इस पर अंकुश लगाया जाना चाहिए, मात्र धर्म की चर्चा करने से कुछ नहीं होगा, आचार-विचार में धर्म आना चाहिए।
आचार्य उमास्वामी ने लिखा है 'अदत्ता दानं स्तेयं' - देने की भावना नहीं होने पर जो जबर्दस्ती दिलवाया जाये, वह सब चोरी है, पाप है, लड़की का पिता दहेज दे नहीं रहा है, उसे देना पड़ रहा है उसकी देने की इच्छा नहीं है लेकिन भरे पंडाल में उसे देने के लिए मजबूर किया जा रहा है तो यह क्या है? आप भले ही न मानें पर आगम ग्रन्थों में इसे चोरी कहा गया है, पाँच पापों में एक पाप है।
आज जिसे आचार्यों ने कन्यादान माना है वह व्यवसाय हो गया है, सौदा हो गया है, चेतना का मोल जड़ के द्वारा किया जा रहा है जो कि मानवता के महापतन का सूचक है। शादी के बाद जब कन्या पति के घर आती है तब गृहलक्ष्मी मानी जाती है, देवी के समान मानी जाती है, कन्यादान देने वाला पिता श्रेष्ठ पात्र को देखकर यह दान देता है ताकि जीवन पर्यन्त उसकी उन्नति हो सुरक्षा हो, दोनों मिलकर आत्म-कल्याण करें, सांसारिक विषय भोगों में ही न फैंसे रहें बल्कि आत्मोद्धार के लिए अग्रसर हों, आत्म-चिंतन के लिए समय निकाल सकें, धर्मध्यान पूर्वक सदाचारमय जीवन व्यतीत करें।
यह सारे संस्कार, आचार-विचार आज लुप्तप्राय: हो गये हैं, कोई भी आदर्शमय विवाह देखने में नहीं आता, इतना पैसा कमा करके आप कहाँ रखेंगे? कहाँ ले जायेंगे? यह लोभ धर्म को नष्ट-भ्रष्ट करता चला जा रहा है। सभ्य समाज पर इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। समाज में यदि एक भी बुरा कार्य हो जाता है तो उसकी बुरी छाप पूरे समाज में पड़ती है, भाई! यह अर्थ प्रलोभन ठीक नहीं है, भोग सामग्री की लिप्सा आपको कभी योग का स्वाद नहीं लेने देगी। अपने जीवन को ऐसा बनाओ जिससे लोग अच्छी शिक्षा ले सकें। पुराणों में देखो, सद्गृहस्थ का जीवन कितना उज्ज्वल था, कैसी निर्मल साधना थी।
एक साधु गेरुआ रंग के वस्त्र पहने हुए थे, हाथ में रुद्राक्ष की माला लेकर प्रभु के ध्यान में तल्लीन थे, मौन साधना चल रही थी, कोई बिना मांगे कुछ दे देता, तो ठीक, नहीं तो मांगने का कोई सवाल नहीं, तभी एक घटना घटी कि आकाश में बादल छा गए और वर्षा होने लगी, तापसी ने ऊपर देखा तो देखते ही बादल फट गये, बरसात बंद हो गयी और आकाश स्वच्छ हो गया, उसे विश्वास हो गया कि साधना पूरी हो गयी है, साधना का फल दिखाई देने लगा।
दूसरे दिन की बात है कि वही महात्मा जी एक पेड़ के नीचे बैठे थे, पेड़ की शाखा पर बैठे कबूतर ने उनके ऊपर बीट कर दी, उन्होंने जैसे ही आँख उठाकर कबूतर की ओर देखा और वह कबूतर भस्मसात हो गया, अब उन्हें अपनी शक्ति पर अहंकार आ गया और सोचा कि धीरे-धीरे इसका प्रचार-प्रसार करना चाहिए, चमत्कार सभी को मालूम पड़ना चाहिए, आगे एक गाँव की ओर चल पड़े, वहाँ जब अपने चमत्कार की चर्चा की तो एक व्यक्ति ने कह दिया कि इसमें विशेष बात नहीं है, गाँव में ऐसे मौन साधक बहुत हैं जो घर गृहस्थी में रहकर भी ऐसे चमत्कार दिखा सकते हैं। साधु को आश्चर्य हुआ और सोचा कि चलकर देखा जाए।
एक घर के सामने पहुँचकर कहा कि ‘भिक्षां देहि।’- भिक्षा देओ। अंदर से आवाज आ गयी कि ठहरिये, ठहरिये, अभी थोड़ा काम कर रही हूँ, थोड़ी देर ठहरकर साधु से रहा नहीं गया और कहा कि जानती हो मैं कौन हूँ? अब की बार अंदर से धान कूटने का कार्य कर रही महिला ने कहा कि जानती हूँ, मुझे मालूम है आप कौन हैं, पर ध्यान रहे मैं कबूतर नहीं हूँ।
अब तो साधु आपे से बाहर हो गया पर ज्यों ही उसने घर के अंदर झाँककर देखा तो दंग रह गया। वह महिला धान कूटते-कूटते पति के लिए कुछ सामान देने उठी तो मूसल यूँ ही छोड़ दिया और चली गयी, मूसल जहाँ छोड़ा था वहीं हवा में स्थिर हो गया, जब वह पति की सेवा से निवृत्त हुई तो मूसल ठीक से संभालकर रखा और साधु के पास पहुँच गयी और कहा कि क्षमा करिएगा महाराज। मैं अपने पति की सेवा में व्यस्त थी इसलिए आपको भिक्षा देने में विलंब हुआ।
वह तपस्वी बहुत लज्जित हुआ, उसका क्रोध जाता रहा और उसने कहा कि ‘माई! आपकी साधना अद्भुत है, आपका पतिधर्म श्रेष्ठ है,” सतीत्व के प्रभाव से ही वह मूसल हवा में स्थिर रह गया, ऐसी पतिव्रता स्त्रियाँ होती थी, ऐसा परस्पर प्रेमभाव हुआ करता था, भोग-सामग्री के बीच रहकर भी योगी जैसा जीवन जीते थे और गृहस्थ धर्म के संकल्पों को, कर्तव्यों को भलीभाँति पूरा करते थे, आज भी कुछ भारतीय लोग इन संस्कारों से संस्कारित हैं किन्तु धीरे-धीरे पश्चिमी प्रभाव से सभी प्रभावित हो रहे हैं।
गृहस्थाश्रम को भी आदर्शमय बनाने का प्रयास गृहस्थ को करना चाहिए। गृहस्थाश्रम के बाद वानप्रस्थाश्रम और संन्यासाश्रम की ओर गतिशील होना चाहिए, जीवन पर्यन्त जब तक सम्बन्ध रहे तब तक एक होकर रहना चाहिए, जीवन के अंतिम समय में महिलाएँ आर्यिका व्रत ले सकती हैं और पुरुष साधु बन सकते हैं, यदि इस प्रकार की साधना कोई करें तो संसार का अंत होने में देर नहीं है, यही भोग से योग की ओर जाने का एकमात्र यात्रा पथ है, जो इस पथ पर आरूढ़ होता है उसका नियम से इस जीवन में कल्याण होता है और दूसरे के लिए भी आदर्श प्रस्तुत होता है।