एक समाचार मिला था कि चपरासी के लिए नौकरी निकली,उसमें २५0 से ज्यादा पी-एच.डी. वाले, जिनको डॉक्ट्रेट की उपाधि मिली हुई है उन्होंने उस नौकरी को करने के लिए परीक्षा दी। मात्र १0– १२ हजार रुपये के लिए वे मोहताज हो गए। यह समाचार सुनकर मैंने सोचा-इतनी पढ़ाई करने के बाद भी किसी काम की नहीं! इसका मतलब उन्हें विद्या प्राप्त नहीं हुई, तभी तो वे लोग मोहताज हो गए। जाती थी कि वह अपने जीवन के साथ-साथ दूसरे के जीवन को भी सहारा दे देता था।
कला बहत्तर पुरुष की, तामें दो सरदार।
एक जीव की जीविका, एक जीव उद्धार ॥
यह भारतीय संस्कृति की देन है-स्त्रियों के लिए ६४ कलाएँ एवं पुरुषों के लिए ७२ कलाएँ बताई गई हैं। यदि दो कलाओं से रहित जीवन है तो किसी काम का नहीं। ऐसे युवा-युवतियाँ लाखों नहीं करोड़ों हैं भारत में। जो खूब पढ़ रहे हैं। लोन ले लेकर पढ़ रहे हैं लेकिन ऐसी शिक्षा किस काम की। जो पढ़े लिखों को मोहताज बनाए।
आज शिक्षण के लिए भी बच्चों को कर्ज लेना पड़ रहा है, क्योंकि फीस लम्बी-चौड़ी है, माता-पिता कहाँ से पढ़ाएँ। वो घर चलाएँ या अपना एवं बच्चों का पालन-पोषण करें या सिर्फ बच्चों को पढ़ाते रहें? वो अपना धर्म आराधन भी करें या नहीं?'लोन' लेना पड़ रहा है। से चुकायेंगे। उस योग्य नौकरी ही नहीं है तो फिर पिताजी के नाम पर रोना रोते हैं। इस कारण पूरा परिवार तनाव भरा जीवन जीता है। ऐसी स्थिति में विचार करना आवश्यक है।
सम्यग्दर्शन के आठ अंग कहे गए हैं। जिनमें वात्सल्य और प्रभावना अंग महत्वपूर्ण है। अपने साधर्मियों के तनाव भरे जीवन को देखकर उन्हें सहयोग करना चाहिए तभी वात्सल्य अंग पूर्ण होगा और उससे प्रभावना होगी। उपगूहन और स्थितिकरण को मिला लो तो ये चार अंग समाज को लेकर के हैं।
समाज में कमजोर वर्ग को सहयोग देकर उसे अपने जैसे बनाना, यह आप लोगों का कर्तव्य है। अर्थ से कभी भी अपने जैसा नहीं बनाया जा सकता किन्तु अर्थोपार्जन का साधन देकर सत्कर्म सिखाया जा सकता है। इसके लिए यह अहिंसक कार्य हथकरघा सर्वोत्तम कार्य माना जा सकता है।
आजकल के इन शोध प्रबन्धों को मैं मानता नहीं, क्योंकि शोध केवल विद्या नहीं, शोध केवल नौकरी का साधन नहीं, शोध तो वह है जिसके उपरांत हम नई चीज, नई अनुभूति समाज के सामने लाकर के रखें और अपने जीवन में अनुभव करें उसका नाम है शोध। जो व्यक्ति अर्थ के पीछे पड़ा हुआ है वह व्यक्ति परमार्थ की परिभाषा नहीं समझ सकता ।
बहुत विचार करने के बाद सक्रिय सम्यग्दर्शन के रूप में समाज के सामने इस अहिंसक कार्य की भूमिका बनाई और कार्य प्रारम्भ हुए। युग के आदि में आदिब्रह्मा ऋषभदेव भगवान के सामने भी जब आजीविका की समस्या खड़ी हुई तो उन्होंने विचार करके षट् कर्म सिखाए, उन षट् कर्मों में स्व-पर जीवन के लिए आजीविका बताई। उन्होंने अहिंसक कर्म सिखाए थे किन्तु आज हिंसा के लिए कर्म हो रहे हैं। कपड़ा बनाना एक शिल्प कर्म है। पर आप लोग जो कपड़ा उपयोग कर रहे हैं, चाहे पहनने के लिए हो या पानी छानने के लिए हो या भगवान के बिम्ब को पोंछने के लिए हो। वह कपड़ा कहाँ से आ रहा है? कैसा बन रहा है? कभी विचार किया? बनाने वालों ने बताया कि धागा को मजबूत बनाने के लिए धागे पर मांस की चर्बी लगाई जाती है। यह बहुत ही सोचनीय विषय है। सम्यग्दृष्टि का अहिंसक वस्तुओं के प्रति झुकाव होता है और वह अहिंसा की रक्षा के लिए ऐसे सत्कर्म (हथकरघा) करता है। बताओ, क्या यह धर्म नहीं है। जो धर्म की रक्षा करता है वह कारण भी धर्म कहलाता है।
इस अहिंसक कार्य हथकरघा से प्रत्येक व्यक्ति को, समाज को, देश को जुड़ना चाहिए। गाँव-गाँव, शहर-शहर में आजीविका हीन हाथों को कार्य मिले। आप सबको मिलकर विचार करना है। अहिंसा के प्रति उत्साह होना ही चाहिए तभी शान्ति प्राप्त हो सकती है। चाहे आपकी रसोईघर हो, चाहे आपका परिधान हो, चाहे मन्दिर हो; सभी जगह शुद्ध अहिंसक वस्तुएँ होना चाहिए।
भारतीय इतिहास उठाकर पढ़ो तो मालूम पड़ेगा कि सुन्दर से सुन्दर वस्त्र इसी अहिंसक हथकरघा की देन हैं। आज हिंसा के बीच अहिंसक बनाने के लिए यह योगदान है। अहिंसा मन्दिर की वस्तु नहीं है। अहिंसा तो जीवन के प्रत्येक कर्म में होना चाहिए। प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि तीर्थकर की वाणी समझना बहुत कठिन है। अनन्त बार वाणी ब्रह्माण्ड में गूँजी है लेकिन अभी तक हमें यह समझ में नहीं आई। अब एक बार समझ में आ जाए तो फिर कहना ही क्या? पूरी दुनिया उससे लाभान्वित हो, ऐसी भावना है।
-११-o७-२o१६, राहतगढ़ (हथकरघा केन्द्र उद्घाटन पर आचार्य श्री के भाव)