दया के क्षेत्र में कार्य होना चाहिए। दया हमेशा जीवंत रहती है,माया के प्रति राग होता है, परन्तु दया तो धर्म का मूल होता है।
कभी भी आवश्यकता से अधिक की अपेक्षा नहीं करना चाहिए। जो चाहिए सब पुरुषार्थ से मिलता जाएगा। गौमाता कामधेनु के रूप में माँ की भाँति मीठा दूध और अमृत दे रही है। पहले गौ-दान की परम्परा होती थी उसको जीवित करने की जरूरत है। सरकार अपना कार्य करती है हमें अपना कार्य करना चाहिए, उस पर आश्रित नहीं रहना चाहिए। गौ-सेवा के क्षेत्र में भारत की जनता को स्वयं ही आगे आना चाहिए। आप तो धर्म के कार्य को करते जाइए ये जबर्दस्त कार्य है, परन्तु जबर्दस्ती का कार्य नहीं है। जो है भगवान के भरोसे चलता जाएगा। प्रकृति ने कामधेनु को दिया है तो प्रकृति ही उसकी रक्षक है। कामधेनु की कृपा के बदले सिर्फ अपने कर्तव्यों का पालन करते जाइए।
दान दाता को तो दान देते समय अहोभाग्य समझना चाहिए कि उसका दान दया के क्षेत्र में जा रहा है। जो व्यक्ति अर्जन करता है उसे धन का विसर्जन भी करना चाहिए; यही धर्म का सन्देश है। पहले से ही भारत में गौ-संरक्षण की परम्परा चली आ रही है, राजाओं के राज्य में भी गौमाता निर्भय होकर घूमती थी; आज लोकतंत्र में आप सभी राजा की भांति गौमाता का संरक्षण करो। प्राचीन समय में भारत में गुरुकुल, गौशालाएँ चलाई जाती थीं आज भी गुरुकुल की शिक्षा के लिए और गौशालाओं की गाय के संरक्षण के लिए पुरुषार्थ की जरूरत है। भारत के कृषि तंत्र को तहस-नहस करने का प्रयास हो रहा है, राष्ट्रभाषा के साथ दुव्र्यवहार हो रहा है, संस्कृति को छिन्न-भिन्न करने का प्रयास विदेशियों द्वारा आज भी किया जा रहा है। नेता मात्र का कार्य नहीं है, व्यवस्था परिवर्तन में जनता को भी अपने कर्तव्यों के पालन के प्रति गंभीर होना चाहिए। लोकतंत्र मजबूत तभी होगा जब सब सामूहिक रूप से प्रयास करेंगे।
गौ-धन राष्ट्र की सबसे बड़ी पूँजी है जबकि हम कामधेनु को छोड़कर यांत्रिक कार्यों को बढ़ावा दे रहे हैं। गौ-रस योगी के शुक्लध्यान में भी कारगर होता है और वह आपके द्वारा दिया जाता है योगी को, तो आपको पुण्य की प्राप्ति होती है परन्तु जब गौ नहीं होगी तो दूध की धारा कहाँ से लाओगे? चार प्रकार के दान में अभयदान भी श्रेष्ठ माना जाता है इसलिए कम से कम कामधेनु के अभय के लिए तो कुछ अर्थ का त्याग करने का संकल्प लो, तभी तुम्हारे दस धर्मों के पालन की उपयोगिता मानी जाएगी। एक बार जो व्रत ले लिया उसे पूर्ण करने के लिए कमर कस लेना चाहिए, बीच में छोड़ना नहीं चाहिए। जैसे हम दाम्पत्य जीवन में वचन लेकर-देकर एक दूसरे के प्रति समर्पित रहते हैं वैसे ही कामधेनु के प्रति वचनबद्ध होकर काम करें, उसके प्रति समर्पित रहें क्योंकि वो भी आपके प्रति दया का भाव रखकर आपको अपना दूध देती है। वो दुग्ध प्रदान करती है, आप उसे संरक्षण प्रदान करो। यदि सम्यग्दर्शन के निकट पहुँचना चाहते हो तो दया, जो धर्म का मूल है उसे जीवन में उच्च स्थान देना होगा।
-१३ सितम्बर २०१६, भोपाल