राष्ट्र हित चिंतक, संत शिरोमणि, पूज्य 108 आचार्य विद्यासागर जी महाराज के विचार
वर्तमान केंद्रीय सरकार के द्वारा प्रस्तावित नई शिक्षा नीति 2020 को समर्थन देने के पीछे एक ही भाव अवचेतन में चल रहा था कि, इसमें हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से शिक्षण देने की बात कही गयी थी। इसी परिपेक्ष में कस्तूरीरंगन समिति को हिंदी और अन्य मातृ भाषाओं के माध्यम से शिक्षण एवं इनके सार्वजनिक प्रयोग में आवश्यक सावधानी बरतने का सुझाव दिया गया था।
मगर दुर्भाग्य से देश में सामान्य अथवा विशिष्ट वर्ग के सार्वजनिक संवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का चलन कम नहीं हो रहा है, बल्कि चिंता का विषय है, कि नई शिक्षा नीति के प्रवर्तन के बावजूद भी अंग्रेजी शब्दों का व्यापक प्रचलन बढ़ रहा है। यह चूक,लापरवाही अथवा गलती आगे चलकर भारी पड़ने वाली है।
क्या हिंदी अथवा अन्य प्रांतीय भाषा कोष इतने गरीब है कि,उन्हें अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा से शब्दों को उधार लेना पड़ता है ? आखिर क्या कारण है कि हिंग्रेजी अथवा हिंग्लिश का जादू अब भी हमारे मस्तिष्क से नहीं उतरा है ?
जब तक हम अगली पीढ़ी को शिक्षण संवाद में अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से पढ़ाते रहेंगे, यह समस्या खत्म नहीं होगी। हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाओं को विकृत करने में अंग्रेजी का निर्णायक योगदान रहा है, इस तथ्य से भलीभांति परिचित होने के बावजूद भी, आज सामान्य संवाद में अंग्रेजी के शब्द सिर चढ़कर बोलते हैं, उदाहरण के तौर पर
- · स्कूल जाओ,
- · वाटर लाओ,
- · लाइट ऑन कर दो,
- · ऑनलाइन प्रोग्राम चल रहा है,
- · इत्यादि इत्यादि
क्या फ्रांस,जर्मनी,चीन,इजराइल,जापान की जनता और उनके नेता अपने संवाद में इस प्रकार का खिचड़ी प्रयोग करते हैं ? अगर नहीं करते, तो हम ऐसा क्यों कर रहे हैं ? सामान्य वार्तालाप में अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा है, जिसके दीर्घकालिक गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे, भाषाई स्तर पर और सांस्कृतिक स्तर पर भी।
इस देश का प्रतिनिधित्व करने वाले राजनैतिक नेतृत्व को भी अपने भाषाई संस्कारों में अंग्रेजी शब्दों का बहिष्कार करना चाहिए, अन्यथा हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाएं कभी भी मुख्यधारा में अपना स्थान नहीं बना पाएंगी।खास तौर पर जब इस महान राष्ट्र के प्रधानमंत्री अथवा अन्य महत्वपूर्ण व्यक्ति अपने भाषणों अथवा वक्तव्य में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करते हैं, तो मुझे बहुत पीड़ा होती है।
मुख्य रूप से सर्वोच्च राजनीतिक पदों पर बैठे व्यक्तियों यथा प्रधानमंत्री उनके मंत्रिमंडल के सहयोगी अथवा राज्य स्तर पर मुख्यमंत्री और उनकी नौकरशाही को सबसे ज्यादा सतर्कता बरतने की आवश्यकता है, शब्दों के प्रयोग और चयन को लेकर,क्योंकि सामान्य वर्ग इनका अनुकरण करता है, अगर यह वर्ग इसी प्रकार अपने वक्तव्य अथवा संवाद में अंग्रेजी भाषा के शब्दों का प्रयोग करता रहेगा तो नई शिक्षा नीति अपने मूल उद्देश्य को कभी भी प्राप्त नहीं कर पाएगी।
जिस प्रकार वर्तमान महामारी ने गंगा को शुद्ध कर दिया है,उसी प्रकार नई शिक्षा नीति को वाक् शुद्धि पर बल देना होगा,देश एक वाक्-गंगा शुद्धि अभियान की राह देख रहा है।
मुझे बताया गया है कि विश्व के दस देशों ने भारत की नवीन शिक्षा नीति की प्रशंसा की है, और उसको अपनाने का आग्रह किया है, इसका मुख्य आधार हिंदी अथवा मातृ भाषाओं में शिक्षण देने का विचार रहा है , इसलिए हमारी वैश्विक जिम्मेदारी बनती है,कि किसी भी स्तर पर हम अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग ना करें और जरूरत पड़ने पर अनुवाद के माध्यम से नए शब्दों/भावों को हिंदी और अन्य प्रांतीय भाषाओं के भाषा कोष में जोड़ें।
मुझे आशा है कि प्रबुद्ध जन उपरोक्त विचारों को स्वस्थ चेतावनी/सलाह के रूप में लेंगे, प्रतिक्रिया नहीं समझेंगे।