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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ३ -अभ्यंतर तप धुरंधरी

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    Vidyasagar.Guru

    जिस तरह त्रेसठ शलाका महापुरुष में नामांकित श्रीपाल' ने अपनी भुजाओं के बल पर सागर को पार कर पाया था, इसी तरह तप धुरंधरी आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज भी अपनी बाह्य एवं अभ्यंतर तप रूपी दोनों भुजाओं के बल पर संसार सागर से पार होने हेतु ऐसे महापुरुषार्थी एवं उत्साही हैं, जिन्हें देखकर कहा जा सकता है कि निश्चित ही उनका संसार सागर के पार स्थित मुक्तिरमा से शीघ्र ही मिलन होगा। प्रस्तुत पाठ में उनके अभ्यंतर तप हेतु किए जा रहे परम पुरुषार्थ के कुछ प्रसंगों को विषय बनाया जा रहा है।  

     

    chapter-3 image (1).png

     

     निर्जरा का घटक : अभ्यंतर तप

     

    अर्हत्वाणी

    कथमस्याभ्यंतरत्वम्। मनोनियमनार्थत्वात्।

    मन का नियमन करने वाला होने से प्रायश्चित्तादि को अभ्यंतर तप कहते हैं। 

     

    chapter-3 image (2).pngअन्यतीर्थ्यानभ्यस्तत्वादुत्तरत्वम्..........बाह्यद्रव्यानपेक्षत्वाच्च।

    प्रायश्चित्तादि तप चूँकि बाह्य द्रव्यों की अपेक्षा नहीं करते, अन्तः करण (मन) के व्यापार से होते हैं। अन्यमत वालों से अनभ्यस्त और अप्राप्तपार (धारण नहीं किए जाते) हैं, अतः ये उत्तर अर्थात् अभ्यन्तर तप हैं। 

    प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यस्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम्। 

    अभ्यंतर तप छह प्रकार के होते हैं- प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान।

     

    विद्यावाणी

    • बाह्य तप तो कॉमन है, अंतरंग तप विशेष है। बाह्य तप, अग्नि को बढ़ाने वाली हवा के समान है और अभ्यंतर तप अग्नि के समान है। कर्म अभ्यंतर तप से ही कटते हैं।
    • जैसे दुकान पर तुरंत लाभ पाने के लिए आप कड़ी मेहनत करते हो, ऐसे ही मोक्षमार्ग में तुरंत मुक्ति पाने के लिए आचार्यों ने तप को रखा है। 
    • chapter-3 image (3).pngतप का सागर पार कर मोक्ष का वरण किया जाता है। 
    • जोर मत देना बाहरी तप पर, जोर दो अभ्यंतर तप पर। इच्छा पर आघात करो।
    • तप करते समय इतना ध्यान अवश्य रखना। तपाते दूध हैं, लेकिन दूध सुरक्षित रहता है, पानी ही तपता है, वैसे ही कर्म को तपाना है,शरीर को नहीं।
    • अभ्यंतर तपाग्नि से प्रकट हो केवलज्ञान ज्योति- जैसे- बड़ा (साँवर-बड़ा) बनाने के लिए बड़े को अग्नि परीक्षा देनी होगी। बिना अग्नि में तपे बड़ा नहीं बन सकता। इसी प्रकार केवलज्ञान की प्राप्ति रत्नत्रय के साथ एक अंतर्मुहूर्त तक ध्यानाग्नि में तपे बिना संभव नहीं होती। 

     

    दोषपरिमार्जक : प्रायश्चित्त 

    अर्हत्वाणी

    । प्रमाददोषपरिहारः प्रायश्चित्तम्। 

    प्रमादजन्य दोष का परिहार करना प्रायश्चित्त तप है। प्रतिसमय लगने वाले अंतरंग व बाह्य दोषों की निवृत्ति करके अन्तःशोधन करने के लिए किया गया पश्चात्ताप या दण्ड रूप से उपवास आदि का ग्रहण प्रायश्चित्त कहलाता है, जो अनेक प्रकार का होता है। बाह्य दोषों का प्रायश्चित्त पश्चात्ताप मात्र से हो जाता है। पर अंतरंग दोषों का प्रायश्चित्त गुरु के समक्ष 

     

    सरल मन से आलोचना पूर्वक दण्ड को स्वीकार किए बिना नहीं हो सकता है। परंतु इस प्रकार के प्रायश्चित्त, दण्ड शास्त्र में अत्यन्त निपुण व कुशल आचार्य ही शिष्य की शक्ति व योग्यता को देख कर देते हैं, अन्य नहीं। 

    विद्यावाणी

    • प्रायश्चित्त ही एक ऐसा साधन है, जिससे व्रतों का प्रक्षालन हो सकता है, अन्यथा ध्यान भी नहीं लग सकता।
    • जिस प्रकार से पैर में चुभा काँटा आदि न निकाला जाए तो चाँई बन जाती है। इसी प्रकार यदि की हुई गलती का अर्थात् व्रतों में लगे हुए दोषों का निराकरण प्रायश्चित्त विधि से गुरु द्वारा न किया जाए तो तप कितना भी करें, वह निर्जरा का कारण नहीं होगा।
    • प्रायश्चित्त लेने के बाद मन प्रफुल्लित हो जाता है, विशुद्धि तीव्र बढ़ जाती है, हल्कापन आ जाता है। निर्दोषी हैं जो, उनकी भी उतनी विशुद्धि नहीं बढ़ती, जितनी कि उसकी, जो प्रायश्चित्त लेकर आया है। प्रायश्चित्त लेने के बाद ध्यान में बैठा तो केवलज्ञान भी हो सकता है। हाँ ध्यान रखना जल्दी-जल्दी शुद्ध होना चाहिए।
    • दोष बिन धोए तप का फल कहाँ- जो दोष लगने के उपरांत भी प्रायश्चित्त नहीं लेना चाहता है, वह महान्-महान् तप भी कर ले, तो भी इष्ट वस्तु का लाभ उसे नहीं होगा।तप का फल जो कर्म-निर्जरा और अध्ययन इत्यादि की प्राप्ति उसको नहीं हो सकेगी। जैसे, जो व्यक्ति अपवादग्रस्त है और वह चुनाव में खड़ा होना चाहता है, परंतु उसको टिकट ही नहीं दिया जाएगा, क्योंकि वह जीत ही नहीं सकता। 

     

    विद्याप्रसंग

    स्वयं को देते कठोरदण्ड 

    दृढ़ संकल्पी एवं उत्कृष्ट चारित्र के धनी हैं गुरुवर। वह शाम की आचार्य भक्ति के बाद जिस पाटे पर विराजमान होते हैं तो सुबह की आचार्य भक्ति तक उसी पाटे पर ही रहने का उनके द्वारा नियम कर लिया जाता है। जब से दीक्षा ली तब से अब तक उनके रात्रि संचरण का त्याग है।chapter-3 image (4).png कुण्डलपुर, नौ तपा का समय, २७ मई, २००५ की रात्रि १२.४० पर कर्मवशात् उन्हें शौच की बाधा हो आई। अतः उन्हें रात्रि संचरण करना पड़ा। उसके प्रायश्चित्त स्वरूप उन्होंने अगले दिन २८ मई को ही निर्जल उपवास कर लिया। प्रायश्चित्त लेना तो स्वाभाविक था, पर कुण्डलपुर जैसे पहाड़ी क्षेत्र की भीषण गर्मी के दिनों में अगले दिन ही करना उनकी कठोर चर्या परिपालन का परिचायक है। 

    दोष लगने पर एक आचार्य को स्वयं प्रायश्चित्त लेने का विधान आगम में आता है। आचार्य भगवन् उन साधकों में से हैं, जो स्वयं को, स्वयं के द्वारा ही सजग और सतर्क बना कर रखते हैं। रात्रि संचरण संबंधी दोष के लगने पर जहाँ वह अपने शिष्यों को कभी हरि त्याग, तो कभी ऊनोदर आदि करने का प्रायश्चित्त देते हैं। पर जब स्वयं को दोष लगा तो प्रायश्चित्त में निर्जल उपवास ले लिया। 

    पंचमगति दायक : विनय तप 

    अर्हत्वाणी 

    पूज्येष्वादरो विनयः। 

    पूज्य पुरुषों का आदर करना विनय तप है।

    दर्शनज्ञानचारित्रतपसां विनयो महान्।........ विनयः पञ्चधा मतः ॥१९१३॥ 

    दर्शनविनय, ज्ञानविज्ञान, चारित्रविनय, तपविनय और सर्वोत्कृष्ट उपचार विनय इस प्रकार विनय के पाँच भेद हैं।

    मोक्षमार्ग में विनय का प्रधान स्थान है। वह दो प्रकार का है- निश्चय व व्यवहार।अपने रत्नत्रय रूप गुण की विनय निश्चय विनय है और रत्नत्रयधारी साधुओं आदि की विनय, व्यवहार या उपचार विनय है। यह दोनों ही अत्यन्त प्रयोजनीय हैं । ज्ञान प्राप्ति में गुरु विनय अत्यन्त प्रधान है।साधु एवं आर्यिका आदि चतुर्विध संघ में परस्पर में विनय करने संबंधी जो नियम हैं, उन्हें पालन करना एक तप है। मिथ्यादृष्टियों व कुलिंगियों 

    की विनय योग्य नहीं। 

    विद्यावाणी

    • विनय महान् तप है। विनय को कोई तप में नहीं स्वीकारता, जबकि यह अभ्यन्तर तप है। सब कर लेता है, पर विनय नहीं तो सब व्यर्थ होता है। 
    • विनय जब अंतरंग में प्रादुर्भूत हो जाता है तो उसकी ज्योति सब ओर प्रकाशित होती है। वह मुख पर प्रकाशित होती है,आँखों में से फूटती है,शब्दों में उद्भूत होती है और व्यवहार में प्रदर्शित होती है। chapter-3 image (5).png
    • "विणओ मोक्खद्दार'२३ विनय मोक्ष का द्वार है, मोक्षमार्ग है। मार्ग और द्वार दोनों में बहुत अंतर है। मार्ग अथ (प्रारंभ) के रूप में है और द्वार इति (निकट) रूप में है। मार्ग दूर से प्रारंभ होता है और द्वार निकट रहता है। इसलिए विनय मोक्ष काद्वार खोल देता है। 
    • विनय गुण को सोलहकारण और दशलक्षण धर्म में दूसरे नंबर पर रखा है और अभ्यन्तर तप में भी विनय को दूसरे नंबर पर रखा। उसके बारे में तो आप सोचते ही नहीं है।
    • विनय से सिद्धत्व संभव- ‘अपने विनय गुण का विकास करो, विनय गुण से असाध्य कार्य भी सहज साध्य बन जाते हैं। यह विनय ग्राह्य है, उपास्य है, आराध्य है। भगवान् महावीर कहते हैं- मेरी उपासना चाहे न करो पर विनयगुण की उपासना जरूर करो। विनय का अर्थ यह नहीं है कि आप भगवान् के समक्ष तो विनय करें और आस-पड़ोस में अविनय का प्रदर्शन करें। अपने पड़ोसी की भी यथायोग्य विनय करो। जैसे कोई घर पर आ जाए तो उसका सम्मान करो। 'मानेन तृप्तिः न तु भोजनेन' अर्थात् सम्मान से तृप्ति होती है, भोजन से नहीं। अतः विनय करना सीखो, विनय गुण आपको सिद्धत्व प्राप्त करा देगा। 

     

    नय नय है

    विनय पुरोधा (प्रमुख) है 

    मोक्षमार्ग में।

    मोक्ष-संसाधक : दर्शन विनय 

    अर्हत्वाणी

    अरहंतसिद्धचेइय.....................समासेण ॥ ४५-४६॥"

    अरहंत, सिद्ध और प्रतिबिम्बों में, श्रुत में और धर्म में और साधुवर्ग में, आचार्य में, उपाध्याय में और सुप्रवचन में, दर्शन में भी भक्ति, पूजा, वर्णजनन और अवर्णवाद का नाश करना तथा आसादना का दूर करना संक्षेप से दर्शन विनय है।

    णिस्संकिदणिक्कंखिद.......पहावणाय ते अट्ठ॥२०१॥ 

    निःशंकित, निःकांक्षित, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, स्थितिकरण, वात्सल्य और प्रभावना- ये आठ सम्यक्त्व के अंग या गुण जानने चाहिए।chapter-3 image (6).png 

    विद्यावाणी

    • देखो दर्शन विनय कैसा है? सच्चे देव, शास्त्र, गुरु के । श्रद्धान करने मात्र से वह श्रद्धान दर्शन विनय में नहीं आ जाएगा। आठ अंगों सहित दर्शन विशुद्धि को प्राप्त करने का प्रयास करना चाहिए। ये दर्शन की सही विनय है। 
    • प्रभावना करने में महीनों नहीं, वर्षों लग जाते हैं और अप्रभावना करने में एक सेकेण्ड नहीं लगेगा। हम अप्रभावना के निमित्त बन रहे हैं या कि प्रभावना के निमित्त- यह देखना चाहिए। जिन्होंने अपने को प्रभावना के लिए उत्सर्जित कर दिया है अर्थात् समर्पित कर दिया है,उसके माध्यम से यदि प्रभावना होती है, और हम लोगों के माध्यम से यदि प्रभावना नहीं होती है तो जिनके माध्यम से प्रभावना होती है उनकी प्रशंसा, उनका गुणगान, उनकी वैयावृत्ति करना, उनको आदर्श मान करके चलना, यही एक मात्र सम्यग्दर्शन को सुरक्षित रखने का रास्ता है। प्रशंसा तो कर नहीं पाते, बल्कि उनके बारे में आलोचना और करें, तो यह एक प्रकार से मार्ग की अविनय है। अविनयी जिसको बोलना चाहिए, उसके पास कभी भी तप, बड़े-बड़े तप नहीं आ सकते हैं।
    • सम्यग्यदर्शन भाव प्रणाली है। केवल चर्चा कर ली, वहीं तक सम्यग्दर्शन की परिणति मत रखो।सम्यग्दर्शन के आठ अंगों को प्रयोग में लाइए।" 
    • सर्वांग सुन्दर बनो- जैसे, हमारे शरीर में आठ अंग होते हैं। इन आठों अंगों के होने पर ही वास्तविक सौन्दर्य के दर्शन हो सकते हैं। एक-दो अंग यदि कम हो तब काम चल तो सकता है, जैसे एक हाथ अथवा एक आँख या एक पैर के न होने पर कार्य चल सकता है, किंतु अच्छा फोटो तो तभी आ सकता है, जब सभी अंग यथावत् स्थान पर ठीक हों। इसी तरह सम्यग्दर्शन के आठ अंगों में यदि एकाध अंग का अभाव हो जाता है, तो विकलांगता को प्राप्त हो जाता है। सर्वांग सुंदर दिखना चाहते हो तो इन आठ अंगों को अपने जीवन में लाओ। 

    आस्था झेलती

    जब आपत्ति आती 

    ज्ञान चिल्लाता।

    विद्याप्रसंग

    सर्वोत्तम दर्शन विनयी 

    अपने श्रद्धान को सम्यक् बनाए रखना, सम्यग्दर्शन प्राप्ति के कारणों की विनय करना और सम्यग्दृष्टि की यथायोग्य विनय करना दर्शन विनय तप है। इन तीनों ही दृष्टियों से आचार्य भगवन् को दर्शन तप धुरंधरी अर्थात् सर्वोत्तम दर्शन विनयी कहा जा सकता है। आज पंचम काल में क्षायिक सम्यक्त्वी नहीं होते। और क्षायिक सम्यक्त्व के बिना मोक्ष नहीं हो सकता। अतः आचार्यश्रीजी अपने क्षायोपशमिक सम्यक्त्व को क्षायिक सम्यक्त्व की चाहना रूप भावों से उत्तरोत्तर निर्मल करके दर्शन विनय द्वारा निर्जरा करते रहते हैं। 

     

    सन् १९९६, सिद्धक्षेत्र तारंगाजी, महेसाना, गुजरात का प्रसंग है। आचार्यश्रीजी, दोपहर के स्वाध्याय की कक्षा लेने के बाद एक गुफा में जाकर आँखchapter-3 image (7).png बंद करके मौन, शांत होकर बैठ गए। कुछ समय बाद एक महाराजश्रीजी आए, उन्होंने गुरुजी को नमोऽस्तु किया। आचार्यश्रीजी ने आँख खोलकर आशीर्वाद दिया। तब महाराजश्रीजी ने देखा, आचार्यश्रीजी की आँखें लाल हैं, आँखों में थोड़ी-सी नमी और सिर पर पसीना भी है। कुछ समय बाद आचार्यश्रीजी ने मौन तोड़ा और बोले-'देखो हम लोग कितने अभागे हैं, कहाँ आकर के फँस गए हैं। श्री जयधवला' ग्रंथ का स्वाध्याय कर रहा था, उसमें क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति एवं उसके अल्पबहुत्व का कथन आया।' फिर चिंतित मुद्रा में बोले- 'क्षायिक सम्यग्दृष्टि कितने कम होते हैं। यह सोचकर मेरा मन बहुत अशांत हो गया है।आज श्रुतकेवली के भी दर्शन नहीं हो पा रहे हैं। ...हम क्षायिक सम्यग्दर्शन भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।' महाराजश्रीजी बोले- 'हम लोगों को तो ऐसा लगता है कि आप मिल गए तो सब कुछ मिल गया। आगे समवसरण भी मिलेगा, श्रुतकेवली भी मिलेंगे।' पर आचार्य भगवन् मौन एवं चिंतन में ही रहे। उनकी मुद्रा देखकर लग रहा था कि वे क्षायिक सम्यग्दर्शन प्राप्ति हेतु कितने लालायित हैं। क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त करने की इतनी तीव्र अभिलाषा एक सच्चे दर्शन विनयी को ही हो सकती है।

     

     नान्यथा ग्राहक : निःशंकित अंग

     

    अर्हत्वाणी र इदमेवेदृशमेव... .....सन्मार्गेऽसंशयारुचिः॥११॥

    आप्त, आगम और गुरु रूप तत्त्व अथवा जीवादि तत्त्व यही है, ऐसा ही है, अन्य नहीं है और अन्य प्रकार नहीं है। इस तरह आप्त, आगम और गुरु के प्रभावअथवा समीचीन मोक्षमार्ग के विषय में लोहे के पानी (तलवार आदि पर चढ़ाए गए) के समान निश्चल श्रद्धा, निःशङ्कितत्व गुण है। 

    विद्यावाणी

    जिसको हमने अपना आराध्य माना उन पर संशय नहीं करना निःशंक होना है।

    मोक्षमार्ग में भव्यों के द्वारा कभी भी संशय नहीं करना चाहिए। मिथ्यात्व के बारे में संशय नहीं करना, मिथ्यात्व अनंत संसार का कारण है यह समझ करके उसके प्रति संशय नहीं रखना चाहिए। मिथ्यात्व के ऊपर भी निर्दोष विश्वास रखना चाहिए, उस पर हेय के रूप में विश्वास रखोगे तभी तो छोड़ोगे।

    सम्यग्दृष्टि की दृष्टि बार-बार श्रद्धान करने से अचल व बलवती हो जाती है। उसे देखकर अन्य लोगों की दृष्टि भी बलवती होती जाती है।

    दृष्टि को मजबूत बनाओ- सम्यग्दृष्टि की दृष्टि तलवार की धार के समान पैनी होना चाहिए। तलवार की धार तो प्रयोग करते-करते कमजोर हो जाती है पर सम्यग्दृष्टि की अपनी श्रद्धारूपी धार प्रयोग करने पर कमजोर नहीं, बल्कि तेज (ज़्यादा मजबूत) होना चाहिए। जैसे कुछ लोग तलवार में ज़्यादा धार करने के लिए खटाई का प्रयोग करते हैं। उससे तलवार ज़्यादा काम करती है। किसान भी अपने उपकरणों पर धार बनाता है। उसी प्रकार हमें अपनी दृष्टि (श्रद्धा) भी धारदार बनाना चाहिए। 

    अतिसंधान

    अनुसंधान नहीं 

    संधान साधो। 

     विद्याप्रसंग

    जिनवच में शंका नधारी 

    आगम में कुछ प्रसंग ऐसे होते हैं, जिनकी गूढ़ता का उद्घाटन नहीं हो पाता। कुछ ऐसे होते हैं, जिनके विषय में आचार्यों में मत भिन्नता होती है। एवं कुछ ऐसे भी होते हैं, जिनसे प्रायोगिक विरोध सामने आता है। तथापि आचार्य भगवन् अर्हत् वचनों पर किसी भी प्रकार से शंका नहीं करते। वह यही कहते हैं chapter-3 image (8).png

    कि क्षयोपशम नहीं होने से आगम वचन हम समझ नहीं पा रहे हैं। निःशंकित सम्यक्त्वी आचार्य भगवन् के चरणों में दर्शनार्थ एवं जिज्ञासा-समाधान हेतु विद्वानों का आवागमन होता ही रहता है। एक बार प्रकांड विद्वान् श्री रतनलालजी बैनाड़ा, आगरा, उत्तरप्रदेश ने आचार्यश्रीजी के समक्ष किसी विषय पर  जिज्ञासा करते हुए कहा- 'आचार्यश्रीजी! है।' तब आचार्यश्रीजी बोले- 'वे सभी आचार्य सम्यग्दृष्टि महासाधु हुए हैं। इनके विषय में छोटे-बड़े अथवा अच्छे-बुरे की धारणा मत बना लेना। यह ठीक नहीं है। जिनवाणी में जो भी आप पढ़ो, अपनी बुद्धि को उसी के अनुरूप बनाने का प्रयास करो।

    धन्य है! गुरुदेव के मन में जिनवचनों के प्रति अकाट्य श्रद्धा है। जो-जैसे-जितने मत प्राप्त होते हैं, उनको उस ही रूप में स्वीकार कर वह अपने निःशंकित अंग को उत्तरोत्तर निर्मल करते चले जा रहे हैं।

    सप्त भय विमुक्त 

     'समयसार' महाग्रंथ में आता है कि सम्यग्दृष्टि जीव सप्त भयों से मुक्त होता है। आचार्यश्रीजी संसार से इतने भयभीत हैं कि उनके द्वारा संसार से मुक्ति हेतु किए जा रहे प्रबल पुरुषार्थ को देखकर शेष भय उनके पास से पलायित हो चुके हैं। बुंदेलखण्ड प्रवेश के समय सन् १९७६-७८ में सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुरजी, नैनागिरिजी, द्रोणगिरिजी आदि क्षेत्र पहाड़ी होने के साथ-साथ जंगली भी थे। उस समय आचार्यश्रीजी रात्रि विश्राम पहाड़ पर ही किया करते थे। 

    २७ जनवरी, १९७७ के मथुरा, उत्तरप्रदेश से प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘जैन संदेश' में 'विचित्र किंतु सत्य' नामक शीर्षक के नाम से एक लेख प्रकाशित हुआ था- 'दिगम्बर जैन मुनि श्री १०८ आचार्य श्री विद्यासागरजी दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुरजी में विराजमान हैं। विगत दिवस मुनिश्रीजी के प्रभाव का एक अद्भुत करिश्मा उस दिन देखने को मिला, जब आचार्यश्रीजी कुण्डलपुर के पर्वत पर ध्यानमग्न थे, तब तीन फीट का वृहदाकार एक विषधर उनके निकट आया।आते समय उसके क्या भाव रहे होंगे, यह तो वह जाने। किंतु मुनिश्री के उस विशुद्ध निर्मल रूप और उसमें स्थित कल्याणकारी आत्मा के आभामंडल में प्रविष्ट होते ही निःसंदेह जीवधारी नाग वीतरागता के प्रभाव में आ गया, जिसका स्पष्ट प्रमाण है उसका काँचली त्याग कर दिगम्बरत्व की प्राप्ति। काफ़ी जन समूह ने उस नाग की त्यागी हुई काँचली को देख, धन्य-धन्य की ध्वनि से गगन गुंजाया। 

    ऐसा ही एक अन्य प्रसंग ३० सितंबर, १९७८ की कलकत्ता, पश्चिम बंगाल से प्रकाशित होने वाले 'समाचार पत्रक' में पंडित जगन्मोहनलालजी शास्त्री, कटनी द्वारा लिखित 'दिगम्बर जैन श्रमण परंपरा के उज्ज्वल रत्न' नामक शीर्षक के नाम से भी प्रकाशित हुआ था- ‘सन् १९७७, कुंडलपुर में आचार्यश्रीजी का द्वितीय वर्षायोग चल रहा था। आचार्यश्रीजी की जब-जहाँ इच्छा होती तब वे कुंडलपुर की पहाड़ियों पर रात्रि विश्राम हेतु चले जाते थे। एक समय रात्रि में जब वे पद्मासन में विराजमान थे, तब वहाँ एक भयंकर विषधर आया होगा। chapter-3 image (9).pngआचार्यश्रीजी ने तो चर्चा भी नहीं की। पूछने पर 

    भी कुछ नहीं बताया।पर प्रभातकाल में जब लोग मंदिर गए, तो सांप की वृहदाकार काँचली सामने पड़ी हुई देखी। इसी से उसके आगमन का अनुमान हुआ। 

    आचार्यश्रीजी ने इस प्रसंग को सन् २००५, सिद्धक्षेत्र कुंडलपुर, मध्यप्रदेश में 'मूलाचार' ग्रंथ, गाथा-९२७ की व्याख्या के दौरान स्मरण किया था। इस गाथा की व्याख्या के समय विषय चल रहा था कि क्रूर सर्प काँचली छोड़कर के भी विष को नहीं त्यागता, उसी प्रकार मंद चरित्र वाला श्रमण पंचसूना को नहीं छोड़ता। इस प्रसंग पर आचार्यश्रीजी ने सुनाया- 'सन् १९९५, कुंडलपुर के ही वर्षायोग में हम बड़े बाबा के दर्शन करने जा रहे थे। तब बाउंड्री में बिल्ली की मूंछ के समान बड़ी मूंछ वाला साँप मिला था। साँप की मूंछ से उसकी उम्र का ज्ञान होता है। साँप अपने आप को कभी बूढ़ा नहीं समझता। जैसे ही काँचली छोड़ता है, वैसे ही पुनः जवान हो जाता है।' आगे कहते हुए वह बोले- “एक बार यहीं कुण्डलपुर में सन् १९७७ के वर्षायोग में ऊपर छहघरिया मन्दिर और बड़े बाबा के बीच जो श्री पार्श्वनाथजी भगवान का मन्दिर है, उसमें मेरे पास ही एक साँप काँचली छोड़कर गया था।मुझे वहाँ बिल्कुल भी डर नहीं लगा। मैं सब देखता रहा। 

    कितनी विशेषताओं से परिपूर्ण है गुरुवर का चरित्र। एक विशालकाय सर्प उनके पास आकर अपनी काँचली छोड़कर चला जाता है, और जैसा कि समाचार पत्रक' से ज्ञात होता है कि वह इसकी चर्चा तक नहीं करते। एवं जब २८ वर्ष बाद काँचली के प्रसंग पर वह अपना यह प्रसंग सुनाते भी हैं तो इतने सामान्य रूप से जैसे कोई छोटा-मोटा सर्प आया हो। अपने मुख से अभी भी यह नहीं कह रहे कि एक विशालकाय सर्प आया था।और प्रसंग सुनाकर यह कहना कि मुझे बिल्कुल भी डर नहीं लगा', यह उनके निःशंकित गुण से भरे हुए अंतस् के भावों का शब्द रूप निकलना है। 

    डरो मत,अपन अपना काम करो 

    सन् १९८१, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी पहाड़ पर ही शयन करते थे। वह प्रतिदिन प्रातः सामायिक के पश्चात् उच्चारणपूर्वक 'स्वयंभूस्तोत्र' का पाठ करते थे। नई-नई कुछ बहिनें प्रतिदिन पाठ के समय पहुँचतीं और गुरुमुख से उच्चरित पाठ को मिलाकर सीखतीं। एक दिन पहाड़ पर जाते समय लगभग पाँच फीट लंबा, एक बड़ा-सा अजगर सीढ़ी के एक किनारे से उतरते नज़र आया। पहले तो बहिनें डर गईं, फिर कहीं गुरुजी का पाठ न छूट जाए, इस उत्सुक्ता में दूसरे किनारे से चढ़कर गुरुजी के पास पहुँचीं। पाठ पूरा होने के बाद आचार्य भगवन् ने उन बहिनों से पूछा'रास्ते में कुछ मिला तो नहीं ?' बहिनों ने कहा- 'जीऽऽजी...! एक ऐसा-ऐसा बहुत बड़ा अजगर मिला था। डर नहीं लगा आचार्यश्रीजी ? बहिनें- 'पहले तो लगा, पर कहीं आपका पाठ न छूट जाए, सो हिम्मत करके बाजू से निकलकर आ गए।'chapter-3 image (10).png आचार्यश्रीजी थोड़ा मुस्कुराकर बोले- 'वह तो पुराना आसामी है, डरना नहीं। रोज़ रात को इसी तख्त के  नीचे बैठा रहता है। और सुबह उठकर चला जाता है। वह अपना काम करता है, अपन अपना काम करो।" 

    धन्य है समयसार की जीवंतकृति आचार्य भगवन् को,अजगर सर्प की उनके ही तख्त के नीचे रोज़ बैठे रहने की बात उन्होंने इतनी सहजता से कह दी, मानो वह विषधर न होकर मित्र या सहोदर हो। 

    आचार्य भगवन् निःशंक हो अपनी साधना में तन्मय रहते, इनसे उन्हें कोई व्यवधान या भय महसूस नहीं होता। ऐसे अनेक प्रसंग हैं। जब लंगूर बंदर, ऊँट आदि जानवर उनके पास अचानक से आ गए, पर वह अकंप, अडिग, अचल रहते हुए अपनी आत्मा में रमण करते रहे। धन्य हैं! 

    इस प्रकार सम्यग्दर्शन के निःशंकित गुण के धारी आचार्यश्रीजी 'जिन वच में शंका न धार' इस पंक्ति को चरितार्थ करते हुए एवं सप्त भयों से मुक्त होकर अपनी आत्मा को कर्म विमुक्त करने हेतु साधनारत हैं। धन्य है आदर्शमयी जीवन को। 

    स्वर्ग-मोक्ष विभूति दायक : नि:कांक्षित अंग 

    अर्हत्वाणी

    कर्मपरवशे सान्ते..............श्रद्धानाकाङ्क्षणास्मृता ॥१२॥

    कर्मों के अधीन, अन्त से सहित, दुःखों से मिश्रित और पाप के कारणभूत विषयसंबंधी सुख में जो अरुचिपूर्ण श्रद्धा (इच्छा का न होना) है, वह निःकांक्षितत्व नाम का गुण माना गया है। 

    विद्यावाणी

    • आत्म संतुष्टि का होना ही निःकांक्षित गुण है।
    • आज तक जिस किसी भी साधक को सिद्धि प्राप्त हुई, वह अपनी आत्मा में ही संतुष्टि से हुई।
    • यह गुण आकांक्षा से रहित होता है इसमें सती अनंतमति प्रसिद्ध हैं। इह लोक, पर लोक संबंधी आशा, भोगाकांक्षा, निदान का त्याग होता है। और चाहता क्या है? तो केवलज्ञानादि।
    • आज के पुजारियों को तो थोड़ी-सी तकलीफ़ में आँखों से पानी आ जाता है (यहाँ-वहाँ भटकने लगते हैं), किंतु सतियाँ दर-दर भटकीं, निर्जन वन में सब कुछ सहन किया, लेकिन किसी के पास अपना रोना-धोना अभिव्यक्त नहीं किया। सीता ने तो और यही कहा कि तुम जा करके राम से कह देना कि हम ठीक हैं। हमें छोड़ दिया लेकिन धर्म न छोड़ देना। धर्म मुख्य है। जंगल में भी रहें तो भी धर्म न छोड़ें, यह संकल्प होना चाहिए। भगवान के प्रति राग करो।
    • भगवान के प्रति राग करते-करते विषयों के प्रति राग कम होने लग जाएगा।
    • सम्यग्दृष्टि की दृष्टि ही अलग- सम्यग्दृष्टि पंचेन्द्रियों के विषयों की ओर आकृष्ट नहीं होता है। वो काँच और कनक को एक समान देखता है। उसमें वो राग-द्वेष नहीं करता है। जैसे तीन व्यक्ति भोजन को बैठे। एक को स्टील की थाली में भोजन दिया, एक को चाँदी की थाली में भोजन दिया, एक को स्वर्ण की थाली में भोजन दिया। तो इसमें जो अज्ञानी होता है वह राग-द्वेष करने लगता है, लड़ने-झगड़ने लगता है। लेकिन सम्यग्दृष्टि थाली को नहीं देखता, उसको तो भोजन से मतलब होता है। अर्थात् उसे ज्ञान, पूजा, तप आदि के द्वारा किसी प्रकार की आकांक्षा न होकर आत्मा के हित की चाह होती है।

    तुम तो करो

    हड़ताल मैं सुनें 

    हर ताल को।

    विद्याप्रसंग

    नि:कांक्षित अंगी 

    आचार्यश्रीजी का जीवन इहलौकिक व पारलौकिक सभी प्रकार की आकांक्षाओं से रहित है। सर्व वैभव संपन्न राजनेता एवं श्रेष्ठी वर्ग उनके चरणों में अपना वैभव समर्पित करने तैयार खड़े रहते हैं । chapter-3 image (11).pngदेवता तक उनके चरणों में सर झुकाए, प्रार्थना मुद्रा में, आदेश कीजिए भाव से खड़े रहते हैं। ऐसे आचार्य भगवन् किसी से भी तिल-तुष मात्र भी आशा, अपेक्षा एवं आकांक्षा नहीं रखते हैं । २६ दिसंबर, २००५, सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुर, दमोह, म.प्र. का एक प्रसंग है। बड़े बाबाजी को उच्चासन पर विराजमान किया जाना था। अनेक बाधाएँ सामने थीं। यह कार्य सफलता पूर्वक सानंद संपन्न हो, ऐसी भावना सभी शिष्य एवं गुरु-भक्त श्रावकों के मन में चल रही थी। गुरुजी से चर्चा ही चर्चा में टीकमगढ़ से आई ब्रह्मचारिणी बहिन अनीता दीदी ने कहा- 'गुरुवर! बड़े बाबा को उच्चासन देने में आ रही प्रतिकूल परिस्थितियों को देखकर मन बैचेन-सा हो जाता है। ऐसा लगता है कि आँख बंद करके खोलूँ तो भगवान फूल की तरह उठकर उच्चासन पर विराजित दिखें। गुरुवर मुस्कुरा रहे थे, और वह बहिन हल्का-सा हँसती हुई, धीमे से बोली- “गुरुवर! हमारे दादागुरुजी से कहिए न, वह ऐसा ही कुछ करिश्मा कर दें।' दादा गुरु तो उपलक्षणभूत थे। उसका कहना यह था कि आपके चरणों में आने वाले देवगणों को आप आदेश दीजिए कि वह बड़े बाबा को फूल-सा उठाकर उच्चासन पर विराजमान कर दें। इतना सुनकर गुरुवर ने- 'धम्मो मंगल मुद्दिद्वं, अहिंसा संयमो तवो। देवा वि तस्स पणमंति, जस्स धम्मे सया मणो', गाथा कही, और इस गाथा को कह कर वह बोले- 'मैं आदेश नहीं देता।असंयमियों को मैं आदेश क्यों दूं? वह अपना कर्त्तव्य करें।मैं क्यों बोलूँ।'

    आचार्यश्रीजी ने जो ऊपर गाथा कही थी उसका अर्थ था- जिनके पास अहिंसा, संयम एवं तप होता है, देवता स्वयं उनके समक्ष प्रणत होते हैं। इससे स्पष्ट हो रहा है कि उन्हें अपने सम्यक्त्व पर पूरा विश्वास है। क्योंकि संयम एवं तप जब सम्यक्त्व के साथ होंगे,तभी तो देवों द्वारा पूजे जाएँगे। 

    'संयमी होकर असंयमी को आज्ञा क्यों दूँ', गुरुवर का यह कथन संयम के प्रति उनकी हर पल सजगता का द्योतक है। 'मैं क्यों कहूँ वह अपना कर्त्तव्य स्वयं समझें, यह कथन गुरुवर की अत्यंत निःकांक्षित भावना को प्रदर्शित कर रहा है। 

    बड़े बाबा को उच्चासन पर विराजमान करने की तीव्र अभिलाषा आचार्यश्रीजी की स्वयं की थी। इसमें आने वाले व्यवधान उन्हें प्रत्यक्ष दिख रहे थे। फिर भी चर्चा-चर्चा में भी उनके मुख से यह नहीं निकला कि हाँ, देवगण यह कार्य करें। निःकांक्षित अंग के धनी आचार्य भगवन्! आप धन्य हैं! 

     

    गुणाकर्षक : निर्विचिकित्सा अंग 

     

    अर्हत्वाणी

    स्वभावतोऽशुचौ................निर्विचिकित्सता ॥१३॥५

    स्वभाव से अपवित्र किंतु रत्नत्रय से पवित्र शरीर में ग्लानि न करना और उनके गुणों में प्रीति करना सम्यग्दर्शन का निर्विचिकित्सा अंग माना गया है। 

    विद्यावाणी

    • जो रत्नत्रय से पवित्र है, उनके मलिन शरीर को देखकर ग्लानि न करते हुए यथायोग्य सेवा, वैय्यावृत्ति करना निर्विचिकित्सा' नाम का गुण कहलाता है।
    • गुणों की ओर दृष्टि चली जाने से फिर इस शरीर के प्रति घृणा नहीं होती है। गुण क्या हैं? सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र। यह तीन गुण दिखते नहीं, परंतु उनके माध्यम से पवित्रता आ जाती है। उन गुणों की ओर दृष्टि जाना ही निर्विचिकित्सा है।
    • जिसकी दृष्टि में सिर्फ शरीर रहता है, उसको रत्नत्रय दिख ही नहीं सकता। मूल्यांकन, अभाव में ही होता है। यहाँ मुनि हैं तो बरस रहे हैं और वहाँ देव लोग संयमी के लिए तरस रहे हैं। वे छटपट-छटपट करते रहते हैं कि कब सौभाग्य मिलेगा? 
    • पर्याय दृष्टि हटाओ- सम्यग्दृष्टि को ग्लानि अवश्य जीतना चाहिए और पर्यायदृष्टि दूर करना चाहिए। पर आज तो सम्यग्दृष्टि-सम्यग्दृष्टि चिल्ला रहे हैं, और एक-दूसरे से ग्लानि कर रहे हैं,नाक मरोड़ रहे हैं । जैसे, अनगढ़ पत्थर को देखकर शिल्पी का मन उल्लसित हो जाता है कि यह तो करोड़ों की संपदा है, इसे शान पर चढ़ाया जाए तो अनमोल हो जाता है। उसी प्रकार जो व्यक्ति मन के साथ, आँखों के साथ, आस्था के साथ देखता है, वही दिगम्बरत्व का महत्त्व समझ सकता है। पंचेन्द्रिय के अधीन होने पर वह रत्नत्रय, दिगम्बरत्व को नहीं देख सकता।" 

    विषय छूटे

    ग्लानि मिटे सेवा से 

    वात्सल्य बढ़े

    विद्याप्रसंग

    निर्विचिकित्सा पूर्वक गुरु सेवा 

    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने अपना आचार्य पद मुनि श्री विद्यासागरजी को जिस दिन प्रदान किया, उसी दिन व उसी समय से उन्होंने उन्हें अपना निर्यापकाचार्य भी स्वीकार कर लिया। chapter-3 image (12).pngअब मुनि श्री विद्यासागरजी अपने गुरु के गुरु थे, निर्यापकाचार्य भी और शिष्य तो थे ही।संसारी रिश्तों में विवक्षा अन्य अन्य व्यक्ति विशेष की दृष्टि से बदलती है। यह इसकी अपेक्षा मामा, इसकी अपेक्षा चाचा आदि-आदि। पर यहाँ तो व्यक्ति दो ही हैं और रिश्ते तीन-तीन। तीनों ही रिश्तों में सामंजस्य बिठाकर सभी दायित्व का निर्वाह जिस कुशलता से आचार्य श्री विद्यासागरजी ने किया, उसका साक्षी यह युग इसे कभी भी भुला नहीं पाएगा। युगों-युगों तक उनकी कुशलता, प्रतिभा, विलक्षणता की गाथा गाई जाएगी। जब-जब जिनशासन का प्रसंग होगा, तब-तब मणि की भाँति आचार्य श्री विद्यासागरजी का नाम इस सृष्टि पर दमकेगा। जिस तरह एक व्यसन होने पर शेष व्यसन आ ही जाते हैं उसी तरह सम्यग्दर्शन का एक अंग भी प्रकट होने पर शेष सारे अंग सहकारी रूप में आ ही जाते हैं। पूर्व के अंग उनमें किस तरह से विद्यमान हैं, यह जानकर पाठक गुरुवर में निर्विचिकित्सा अंग की उपस्थिति का अहसास कर ही सकते हैं। आचार्यश्रीजी के निर्विचिकित्सा अंग की जब चर्चा चलती है तो अपने गुरु की उनके द्वारा की गई सेवा जीवंत हो उठती है। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एक सधे-सधाए, मँझे-मँझाए साधक थे। उनकी पाँचों इन्द्रियाँ अपने वश में थीं, पर शारीरिक जीर्ण-शीर्णता के कारण आचार्यश्रीजी उनके आहार करवाने जाते थे, क्योंकि खड़े होने हेतु उन्हें कमर में हल्के-से सहारे की जरूरत रहती थी। 

    ०९ अगस्त, २०१७ आष्टा, सीहोर, मध्यप्रदेश में chapter-3 image (13).pngआचार्य ज्ञानसागरजी महाराज की शिष्या ब्रह्मचारिणी कंचन माँजी, अजमेर, राजस्थान, जो इस समय लगभग १०१-१०२ वर्ष की हैं, उन्होंने बताया कि आचार्यश्रीजी अपने गुरु के प्रतिदिन आहार करवाने जाते थे। वृद्धावस्था के कारण गुरुजी को एक बार वहीं चौके में शौच की बाधा हो आई। आचार्यश्रीजी ने उन्हें अपनी गोदी में उठाया और नियत स्थान । पर ले जाकर व्यवस्थित किया। वह अपनी राजस्थानी भाषा में कहती हैं- 'हमारे गुरु को शिष्य तो ग्लाणि विजेतो होवे।साँचो क्षत्रिय होवे।' 

    इसी तरह २० अक्टूबर, २०१८ को संघस्थ मुनि श्री अजितसागरजी महाराज ने बताया कि एक दिन वह आचार्यश्रीजी की वैयावृत्ति कर रहे थे, तब उन्होंने सुनाया था कि गुरु महाराज को सायटिका की परेशानी थी। जब कभी एकाध बार उन्हें रात्रि को लघुशंका आदि की बाधा हो आती, तो हम उन्हें कमरे में ही व्यवस्थित तरीके से करवा लेते, बाहर हवा में नहीं निकलने देते थे। और स्वयं अपने हाथ से ही उत्सर्ग समिति का पालन करते हुए मल-मूत्र आदि का विसर्जन करते थे। 

    धन्य है! ग्लानि विजेता निर्विचिकित्सा अंग के धारी, वैयावृत्ति कुशल और आगम परिपालक हमारे संताधिराज को।आपके निर्विचिकित्सा गुण की हम सभी भूरिशः अनुमोदना-प्रशंसा करते हैं। 

     

    समीचीन मार्ग उपासक : अमूढदृष्टि अंग 

    अर्हत्वाणी

    कापथे पथि...................दृष्टिरुच्यते॥१४॥६०

    जो दृष्टि दुःखों के मार्ग स्वरूप मिथ्यादर्शनादि रूप कुमार्ग में और कुमार्ग में स्थित जीव में भी मानसिक सम्मति से रहित, शारीरिक संपर्क से रहित और वाचनिक प्रशंसा से रहित है, वह मूढ़ता रहित दृष्टि अर्थात् अमूढदृष्टि नाम का गुण कहा जाता है। 

     

    विद्यावाणी

    • मिथ्यादृष्टि को भी रोहिणी आदि बारह सौ विद्यायें प्राप्त हो जाती हैं। ऐसे चमत्कारी को धर्म मानकर नहीं स्वीकारना अमूढदृष्टि अंग है। 
    • चाहे पुण्य कर्म हों या पाप कर्म हों, ये तो आए हैं और चले जाएँगे। इसमें गहल भाव नहीं करना, प्रभावित नहीं होना अमूढदृष्टि अंग है।
    • अमूढदृष्टि को अपनाने पर राग गौण और वीतराग मुख्य हो जाएगा। तब आप रागी-द्वेषी के वचनों पर विश्वास नहीं करेंगे, बल्कि वीतराग-विज्ञान पर विश्वास, श्रद्धा लाएँगे, क्योंकि इसमें छल नहीं है। सामने वाले की दृष्टि जब वीतरागता को लेकर है तो उसके विचारों को बिना संदेह के अपना लेंगे।
    • वीतराग देव-शास्त्र-गुरु पर विश्वास अमूढदृष्टि है। पारमार्थिक क्षेत्र में रागी-द्वेषी पर विश्वास नहीं होना चाहिए। वे रागी-द्वेषी तो स्वयं अधर में हैं, उनके पैर धरती पर नहीं टिकते वे दूसरों को क्या उठाएँगे। जो खुद दुःखी है वह दूसरों के दुःख कैसे मिटाएगा, ऐसा जो नहीं मानता तब क्या यह अन्धविश्वास नहीं है।
    • जिसके पास जो होगा, वही तो देगा- जो कोई पुरुष रागी, द्वेषी, कपटी, मोही, मायावी है, वह तीन काल में भी रास्ता नहीं बता सकता है। रास्ता तो वीतरागी, सज्जन, सत्पुरुष ही बता सकते हैं। उनके बताए रास्ते को अपनाएँगे तो अमूढदृष्टि को अपनाएँगे।जो स्वयं भूखा है वह दूसरे को रोटी नहीं दे सकता। जो वीतरागी नहीं है, वह वीतरागता को नहीं बता सकता है।

    विज्ञान नहीं

    सत्य की कसौटी है 

    'दर्शन' यहाँ।

    विद्याप्रसंग

    कर्म निर्जरा में सहायकभूत वीतरागी देव, शास्त्र, गुरु पर विश्वास होना अमूढदृष्टि है, और इससे विपरीत पर श्रद्धान होना मूढ़ता है। यह तीन प्रकार से मानी गई है। chapter-3 image (14).pngसरागी देवी-देवताओं को भगवान मानकर पूजना देवमूढ़ता है। मिथ्यामार्गी संतों को गुरु रूप में स्वीकारना गुरुमूढ़ता है। और लौकिक मान्यताओं को धर्म मानकर करना लोकमूढ़ता कही गई है। आचार्यश्रीजी वीतराग मार्ग के पूर्णतः पोषक आचार्य हैं। उनका सम्यक्त्व इन मूढ़ताओं से कितनी सूक्ष्मता से रहित है, इसका चित्रण सन् २००२ के नेमावर वर्षायोग में २ अक्टूबर के दिन 'रत्नकरण्डक श्रावकाचार' की कक्षा में अमूढदृष्टित्व के प्रसंग पर आचार्यश्रीजी के समक्ष किसी के द्वारा रखी गई कुछ जिज्ञासाओं के समाधान में प्राप्त होता है। 

    कक्षा में किसी ने आचार्यश्रीजी के समक्ष जिज्ञासा की- 'आचार्यश्रीजी! आप क्षेत्रपाल, पद्मावती की चर्चा (निषेध) नहीं करते, क्या आप उन्हें मानते हैं ?' आचार्यश्रीजी ने समाधान करते हुए कहा- 'हाँ, मैं मानता हूँ, शास्त्रों में उल्लेख आता है, तिलोय पण्णत्ती' ग्रंथ में भी आया है। उनको उसी रूप में मानता हूँ, जैसा आगम में बताया गया है। उनको उसी रूप में न मानना, आगम को न मानना है। उसी रूप में मानना आगम को स्वीकारना है। जिसका विधेय बताया, उसको करने से अन्य अपने आप निषिद्ध हो ही जाएँगे। अविरति की पूजा का निषेध है और क्या, निषेध का निषेध मत करो। कहते हैं महाराज! हम (चुनाव के समय) उन्हें वोट नहीं देते, पर क्या करें सपोर्ट तो करना ही पड़ता है। वोट न भी दें, पर सपोर्ट करने से भी गड़बड़ होता है। सपोर्ट भी एक तरह से वोट देना ही है। जिसके कारण दृष्टि अमूढ़ (शुद्ध) नहीं बन पाती।'

    जिज्ञासा- कुछ लोग कहते हैं कि ये उनके (भगवान के) रक्षक-रक्षणी है,तो इनको पूजना चाहिए ? 

    समाधान- भवनत्रिक में जो जन्म लेता है, वह प्रारंभ में मिथ्यादृष्टि होता है। बाद में मिथ्यात्व नहीं भी रह सकता है, वह अविरत सम्यग्दृष्टि हो सकता है। अगर क्षेत्रपाल, धरणेन्द्र, पद्मावती (भवनत्रिकों) को पूजते हैं, तो उससे पहले वैमानिकों को भी पूजना चाहिए।और सौधर्मेन्द्र जो भगवान के पास रहता है, उसको भी पूजो।अहमिन्द्र सर्वार्थसिद्धि में रहते हैं उनको भी पूजो। यदि पूज्य का सवाल है, तो जो अविरति यहाँ घूमते रहते हैं, अच्छे भक्त हैं, उनको भी पूजो। यदि आगम कहता है तो पूजो। नीचे वाले को यथायोग्य करना चाहिए। जो ऐसा कहते हैं कि हमारे सांसारिक कार्य आज उनके निमित्त से होते हैं, तो हम पूजते हैं। तो उनसे हम कहते हैं कि सांसारिक कार्य में पुलिस भी तो काम में आती है तो क्या करोगे? अहँत की तरह उनको भी अर्घ्य दिया जाएगा क्या? देव, शास्त्र, गुरु को पूजने का प्रयोजन है कि उनसे हमें मार्ग मिलने वाला है। हम मार्गस्थ हैं। पूजा का अर्थ है योग्य का मूल्यांकन। जिसका जिस रूप में वर्णन आया है, वैसा ही समझना, अन्यथा सन्मार्ग दूषित हो जाएगा। यक्ष-यक्षणी अव्रती होते हैं। जन्म के समय मिथ्यादृष्टि होते है और बाद में सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकते हैं । पूज्य, श्रद्धेय, आदरणीय ये सभी शब्द बहुमान के सूचक हैं । जैसे पूज्यता के रूप में पिताजी हैं उन्हें पूज्य, श्रद्धेय, आदरणीय बहुमान के लिए कहते हैं, तो क्या उन्हें वेदी पर बैठा देंगे? नहीं बैठाया जाएगा। किंतु उन्हें पत्र में लिखते हैं श्रद्धेय, आदरणीय आदि, ताकि उनके पद का गौरव बना रहे। जैन के और अन्य के देव अलग-अलग हैं। क्या वे देव, शास्त्र, गुरु हैं ? देव की फेकल्टी में आ गए तो पूजना सही नहीं है, या तो फिर आपको उनके स्वरूप का ज्ञान नहीं है।

    जिज्ञासा- वह सांसारिक सुख देते हैं। इन (वीतरागी भगवान) से कुछ मिलता नहीं?

    समाधान- भोगभूमि में कल्पवृक्षों से सब मिलता है तो उनकी पूजा करो। ३/२/१ पल्य तक पूजा करो। कहा है, जो देवे सो देवता। तो फिर वह अभिशाप देवें तो हमारे पास नहीं आना । उनके पास शापानुग्रह' शक्ति होती है। जब आपका साता का उदय होगा, तो वे देंगे। अन्यथा, असाता के उदय में परेशान करेंगे, पीछे पड़ सकते हैं। तो फिर हमारे पास नहीं आना। उनसे कुछ लेना है तो संसार ले सकते हैं। वे मोक्षमार्ग संबंधी कुछ नहीं दे सकते। जब क्षेत्रपाल, पद्मावती ऐसा नहीं कहते कि हमारी पूजा करो, तो क्यों करते हो ? 

     

    यदि वे सम्यग्दृष्टि हैं तो वे कहेंगे भी नहीं कि हमारी पूजा करो।मोक्षमार्गी के लिए सच्चे देव ही भगवान हैं। जीव, भाव और कर्म अनेक प्रकार के हैं। संघर्ष छोड़कर भगवान की पूजा-भक्ति करो।आधा घंटा पूजा के लिए मिला है बस...।

    जिज्ञासा- भगवान की प्रतिमा के साथ सर्प बनाते हैं, तो फिर उनकी पूजा, अभिषेक क्यों ? 

    समाधान- भगवान के ऊपर नहीं। भगवान जब मुनि थे, तब का दृश्य है। यह पूर्व नैगमनय के द्वारा दिखाया गया है कि वह अटल-अचल रहे हैं। इसीलिए वे भगवान की प्रतिमा के साथ बने होते हैं, तो इसका मतलब यह नहीं कि उनकी पूजा करो। भक्ति करने वाले की पूजा नहीं होती। जैसे- आप मंदिर में दिनभर बैठे भक्ति कर रहे हैं, तो आपकी पूजा करें क्या ? भक्त की पूजन करने से भगवान का मूल्य कम ही नहीं होता, बल्कि यह तो भगवान को ही मानो नकारना है। फिर भक्त ही सब कुछ हो जाते हैं।

     जिज्ञासा-विधान, पंचकल्याणक प्रतिष्ठा आदि में देवों को आह्वान क्यों करते हैं ?

     समाधान- उनके साथ जय जिनेन्द्र करो और भगवान की जय बोलो। देव तो यहाँ रहते हैं, बुलउआ, चल्लउवा आदि करते हैं पंडित लोग। जैसे- आप लोग ध्वजारोहण के लिए सी.एम., मंत्री आदि को बुलाते हैं, क्योंकि उनसे व्यवस्था और अच्छी बन जाती है। उन्हें भगवान मानकर नहीं बुलाते। ऐसे ही देवों को भी व्यवस्था की दृष्टि से बुलाते हैं। हमारे साथ पूजन करो, और क्या ? इसके आगे भी जब आप जंगल या मंदिर आदि जाते हैं, तो जाते समय निःसही-निःसही और आते समय असही-अःसही करके आइए, नहीं तो समाचार का दोष आता है। यह विनय नहीं, बल्कि यथोचित आदर कर रहे हैं । यह आगम की आज्ञा है, नहीं करते तो यह दोष है। 

    मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र का तूफान बढ़ रहा है। इससे बचने के लिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र का तूफान खड़ा करना पड़ेगा। अडिग रहना चाहिए। पेड़ की जड़ें मजबूत बनानी पड़ेगी।

    देवी-देवताओं की क्यों? आत्मा की अनुभूति करो 

    १ अप्रैल, २००५, कुण्डलपुर में प्रातःकाल षटखण्डागम-धवला पुस्तक एक की वाचना के समय, पृष्ठ १२३ पर 'भूति कर्म क्रिया' का प्रसंग आया। chapter-3 image (15).pngकिन्हीं महाराजश्रीजी ने आचार्यश्रीजी से पूछा- 'इस भूति कर्म में मंत्र-तंत्र या साधना से भूत-पिशाचों को वश में किया जाता है या भगाया जाता है? वह बोले- 'उससे अनेक कार्य कराए जाते हैं। भूति कर्म को आज का विज्ञान स्वीकार नहीं करता। जबकि करना चाहिए। एक बार एक ब्रह्मचारीजी की दीक्षा का प्रसंग आया, तो वह आहार करने गया। प्रायः चींटी, चींटा आदि आहार में आ जाता। कई लोग आहार शोध कर देते, पर उनके हाथ में आते-आते २-३ एक साथ मरे चींटे आ जाते। वे कहाँ से आ जाते हैं ? मैंने (आचार्यश्रीजी) भी जाकर देखा, देखकर बड़ाआश्चर्य लगा।यही तो कर्मों की विचित्रता है। 

     

    भूत-पिशाच होते हैं। उनके पास शापानुग्रह शक्ति होती है। उन्हें मंत्र-तंत्र से वशीकृत करके काम में लिया जा सकता है, पर साधु को नहीं करना चाहिए। वे देव असंयमी होते हैं, राग-द्वेष रखते हैं।' फिर महाराजश्रीजी ने पूछा- 'आपको कभी उनसे कार्य कराने की भावना या कभी देवों को आसपास होने की अनुभूति हुई ?' तब आचार्यश्रीजी ने कहा- 'देवों के होने की अनुभूति क्या करना? अरे! आत्मा की अनुभूति करो, जिसकी अनंत काल से नहीं की। 'मूलाचार' में अभी कुछ दिन पूर्व स्वाध्याय करते समय आया था कि जो मुनि होकर असंयमी को आओ- आओ', 'जाओ-जाओ' ऐसा आदेश देता है, वह महा पाप कर रहा है। देव असंयमी होते हैं और उनसे काम लेना, वश में करना, तंत्र-मंत्र या साधना से सिद्ध करना, परिग्रह है। अतः साधु को उनसे कभी संबंध नहीं रखना चाहिए। वे देव सहज ही, बिना आज्ञा के भक्त बन कर साधु की सेवा, सहयोग करें तो कर सकते हैं। 

    हे निराडम्बर, निरपेक्ष और निरीहवृत्तिधारी आचार्य भगवन्! धन्य हैं ! जिन्हें यंत्र, मंत्र या तंत्र का प्रयोग करते कभी नहीं देखा, और न ही निमित्त, लक्षण अथवा ज्योतिष आदि की चर्चा संघ में करते देखा 

    है। 

     

    स्व-पर उन्नतिकारक : उपगूहन अंग 

     

    अर्हत्वाणी

    स्वयं शुद्धस्य......................तद्वदन्त्युपगृहनम् ॥१५॥

    स्वभाव से निर्मल रत्नत्रय रूप मार्ग की अज्ञानी तथा असमर्थ मनुष्यों के आश्रय से होने वाली निंदा को जो प्रमार्जित करते हैं-दूर करते हैं, उनके उस प्रमार्जन को उपगूहन गुण कहते हैं। 

    विद्यावाणी

    • जब धर्म पालन में असमर्थ के निमित्त से धर्म की अप्रभावना हो, तब शास्त्र के द्वारा धर्म उपदेश देकर दोष ढंकना, उपगूहन है। उपगूहन का अर्थ दोषों का समर्थन नहीं है, शैथिल्य का समर्थन नहीं है। बल्कि अप्रभावना से बचने के लिए कहा है।यदि वह व्यक्ति दोष ही करता चला जाता है तो उसके साथ संपर्क रखना ठीक नहीं माना।
    • मार्ग तो शुद्ध है, लेकिन आश्रय लेते समय विवेक न होने के कारण दोष लग जाता है। उसको ढंकना या दूर करना उपगूहन अंग है। इस उपगूहन के द्वारा अपना ही धर्म वृद्धि को प्राप्त होता है। मार्ग में दूषण अपने आप में एक बड़ा दोष माना जाता है।
    • अपनी आत्मा में जो दुर्भाव उत्पन्न हो रहे हैं, उन्हें उत्पन्न न होने देने का प्रयास करना स्वयं का उपगूहन करना है।
    • पर दोषग्राही न बनो- उपगूहन दोषों का निवारक होता है, ग्राहक नहीं। अपने अन्दर में विकास तब होता है,जब दूसरों के दोषों को न देखें और गुणों के ग्राह्य बनें। दुनिया के दोष सामने लाना, अपनी मूर्खता है। चलनी के पास आटा नहीं रहता, भूसा रहता है। अतः चलनी न बनो। आटे रूपी गुण को आप ग्रहण कर लें और दोष रूपी जो भूसा है, उसे छोड़ दें। यह बात जब होगी, तभी जीवन में विकास होगा। उपगूहन दूसरों को बताने की चीज़ नहीं है। जैसे- कोई अमूल्य चीज़ रहती है या खाने की चीज़ रहती है तो उसको बिना दिखाए चुपचाप गटक जाते हैं, उसी प्रकार उपगूहन है। 

    पुण्य-पथ लौ

    पाप मिटे पुण्य से 

    पुण्य पथ है

    विद्याप्रसंग

    परदोष आच्छादक 

    दोषी मोक्षमार्गी को देखकर, मोक्षमार्ग ऐसा है, ऐसे अश्रद्धान रूप भाव किसी के न हो सकें, अतः मोक्षमार्गी के दोषों को ढंकने (उपगूहन) एवं उनका स्थितीकरण करने का आदेश अहँत प्रभु ने दिया है। chapter-3 image (16).pngक्या, उपगूहन एवं स्थितीकरण एक साथ होते हैं? तो आचार्यश्रीजी कहते हैं- “किसी के लड़के ने गलत काम कर लिया तब सबको पता चल गया। जब पिता को पता चलता है, तो वे कहते हैं मेरा बेटा ऐसा नहीं कर सकता, आपको गलतफ़हमी है। यह उपगूहन हो गया।और घर में आकर उसकी तब तक पिटाई की, जब तक उसने सही-सही नहीं बताया।गलती की आगे पुनरावृत्ति न हो इसके लिए स्थितीकरण है। पहले उपगूहन, उसके उपरांत स्थितीकारण। स्थितीकरण किए बिना उपगूहन का कोई महत्त्व नहीं। अंदर हाथ पसार कर ऊपर मारत चोट'- चोट वहीं पर पड़ती है, जहाँ पर खोट हैं। आचार्यश्रीजी आप्त-आगम की इस आज्ञा का पालन करने में अपने ५० वर्ष के लंबे संयमित जीवन में पूर्णतः सफल रहे। विशाल संघ में शिष्यों के अपने-अपने कर्म एवं पुरुषार्थ के वैषम्य स्वरूप चारित्र में वैषम्य का होना स्वाभाविक है। प्रायश्चित्त देने के अधिकारी होने से आचार्य भगवन् के समक्ष हजारों-हजार मोक्षमार्गियों ने अपने-अपने सब प्रकार के बाह्य एवं आभ्यंतरीय दोषों का उद्घाटन किया होगा। आचार्यश्रीजी के मुख से किसी भी एक शिष्य के दोषों को न तो किसी प्रसंगवशात्, न ही कक्षाओं में उद्धरण स्वरूप, न ही इस संबंधी किसी भी प्रकार की चर्चाओं में और न ही कभी भी, किन्हीं भी परिस्थितियों में उद्घाटित करते हुए सुना गया। चूंकि उनके मुख से तत्संबंधी कोई प्रसंग उद्घाटित नहीं होने से इस संबंधी विद्या प्रसंग की अनुपलब्धता ही है। यह अनुपलब्धता ही आचार्यश्रीजी के व्यक्तित्व में शामिल सम्यग्दर्शन के उपगूहन अंग के विद्याप्रसंग की अभूतपूर्व उपलब्धता ही है। 

    स्वदोष उद्घाटक 

    आचार्यश्रीजी कहते हैं, 'संसारी दूसरों के दोषों को ढूँढ़ता है। पर जो संसार की ओर पीठ कर दे, वह दूसरों के दोषों को छिपावे और अपने दोषों को | आलोचना, निंदा के द्वारा दुनियाँ या गुरु के सामने रखे यह उपगूहन अंग है। आचार्यश्रीजी इसमें सिद्धहस्त हैं ।chapter-3 image (17).png यद्यपि गुरुवर की चर्या आगमानुकूल ही है फिर भी वह हीन संहनन के कारण उत्तरोत्तर उत्कृष्ट चारित्र का पालन करने में समर्थ न होने से अपनी इस असमर्थता को अपना दोष ही मानते हैं, सो वह अवसर-अवसर पर अपनी इस पीड़ा को कहते रहते हैं।०४ अप्रैल, २००५, कुण्डलपुर, दमोह, म.प्र. | में बड़े बाबा की पहाड़ी के पीछे शौच क्रिया को जाते समय आचार्यश्रीजी ने कहा- 'आचार्य भक्ति पढ़ते समय कभी-कभी लज्जा आती है कि साधु तो ऐसे होते हैं। हम साधु बने तो हैं, पर भवन में रहना पड़ रहा समय लगता है कि न कोई ज्ञान है, न कोई विशेष तपस्या। कहाँ रहना था और कहाँ रह रहा हूँ? जब ‘योगी भक्ति' में वह पंक्ति पढ़ता हूँ जहाँ झंझा चलती, बिजली चमकती और पेड़ के नीचे साधु रहते हैं। ऐसे साधु के दर्शन ही आज दुर्लभ होते हैं । विदेह क्षेत्र में होता तो अच्छा होता, कम से कम ऐसे साधुओं के दर्शन हो जाते।' इस तरह उत्तमोत्तम चर्या का पालन न कर पाने से उनकी अंतरंग की पीड़ा वाणी से स्पष्ट झलक रही थी, जिसे वह अपना ही दोष स्वीकार कर प्रकट कर रहे थे। 

    - इसी तरह की शिक्षा वह अपने शिष्यों को देते हैं।४-५ फरवरी, सन् २००२, आचार्यश्रीजी विहार करके शाम को गौरझामर, सागर, म.प्र. पहुँचे। ठण्ड अत्यधिक थी।वहाँ के श्रावकों ने सोचा हमारे साधुओं की दिगंबर अवस्था, वह कैसे इन शीत लहरों को सहन करेंगे? अतः उन्होंने कमरों को चारों तरफ़ से बंद कर दिया। कमरे एकदम से बंद होने के कारण रात्रि में कुछ मुनि महाराजों की तबियत बिगड़ गई। सुबह जब आचार्य भगवन् को ज्ञात हुआ, तब भी उन्होंने प्रातः आचार्य भक्ति के बाद शिष्यों को समझाते हुए कहा- 'हम लोगों को इस प्रकार के स्थान पर रहना चाहिए, जहाँ पर शुद्ध हवा इत्यादि आती हो। पहले मुनिराज जंगलों में रहते थे, पर हमारे पुण्य की कमी एवंहीन संहनन के कारण हमारी चर्या जंगलों के स्थान पर जंगलों (खिड़की) वाले मकानों में होने लगी। कम-से-कम जंगलों (खिड़कियों) को तो खुला छोड़ दें, ताकि हमारा स्वास्थ्य ठीक रहे, जिससे साधना भी चलती रहे एवं रत्नत्रय का पालन भी होता रहे। 

    सक्रिय उपगूहन अंगधारी आचार्य भगवन्, धन्य हैं, धन्य है! दूसरों के दोष दिख गए हों अथवा किसी ने स्वयं प्रकट किए हों या किसी ने आप पर ही कोई दोष गढ़ दिया हो, पर कभी भी आपके धैर्य की इति नहीं हुई।इस विषय में आपने अपने मुख को आगम रूपी फेबिकोल से चिपका रखा है। 

    संयम दृढ़कारक : स्थितीकरण अंग 

    अर्हत्वाणी

    दर्शनाच्चरणाद्वापि..............स्थितीकरणमुच्यते॥१६॥

    धर्मस्नेही जनों के द्वारा सम्यग्दर्शन से अथवा चारित्र से भी विचलित होते हुए पुरुषों का फिर से पहले की तरह स्थित किया जाना, विद्वानों के द्वारा स्थितीकरण गुण कहा जाता है। 

    विद्यावाणी

    • निश्चय में उन्मार्ग की ओर जाते हुए अपने मन को सन्मार्ग में स्थित करना स्थितीकरण कहलाता है।आप बार-बार भावों से स्वयं गिर जाते हैं, तो कौन सँभालेगा।स्वयं को सँभालना होगा।
    • सम्यग्दर्शन के छठे अंग स्थितीकरण की सुरक्षा ज्ञानियों के द्वारा होती है। स्वयं की स्थिति को सँभालते हुए, दूसरे को स्खलित होते समय ऊपर उठावे, यही विद्वानों का काम है।
    • सब अंगों में स्थितीकरण सबसे बड़ा है। स्थितीकरण के लिए ज़्यादा पढ़ना-लिखना नहीं बल्कि अंदर से भाव होना चाहिए। वात्सल्य के साथ टूटे-फूटे शब्द भी काम कर जाते हैं।
    • दूसरों को डाँटने के उद्देश्य से स्थितीकरण नहीं करना चाहिए।
    • धर्मात्मा बिन धर्म कहाँ- धर्म स्नेहीजनों के द्वारा सम्यग्दर्शन अथवा चारित्र से भी विचलित होते हुए पुरुषों का पुनः धर्म में स्थिर करना स्थितीकरण अंग है। जिस प्रकार जीर्णोद्धार का महत्त्व होता है, उसी प्रकार स्थितीकरण का महत्त्व होता है जैसे राहगीर गिरे को उठाता है,उसी प्रकार धर्म से गिरे हुए, भटके हुए को उठाकर समझाएँ, साथ चलाएँ, नहीं तो वात्सल्य अंग भी नहीं रह पाएगा।धर्म के द्वारा धर्मात्मा को सुरक्षित रखना चाहिए। धर्म धर्मात्मा को छोड़कर नहीं रहेगा।

    पथ को कभी

    मिटाना नहीं होता 

    पथ पे चलो। 

     

    विद्याप्रसंग

    अवसर-अवसर पर स्थितीकरण 

    पंचम काल का जीव, जिसके पूर्व पाप कर्म की प्रचुरता होती है एवं जिसका मिथ्यात्व के साथ जन्म होता है, और पंचमकाल में मोक्षमार्ग के प्रतिकूल वातावरण होता है, ऐसे में तलवार की धार पर चलने के समान कठिन जैनेश्वरी दीक्षा को अंगीकार करना बहुत बड़ा पुरुषार्थ है। दीक्षा लेकर परिणामों को जीवन भर स्थिर बनाए रखना उससे भी दुर्लभ है। ऐसे में एक विशालकाय समूह को चारित्र में स्थिर रखना घोर आश्चर्यकारी है। उस पर जब कर्म भी अपने खेल दिखाने से न चूकते हों। तीर्थंकर प्रकृति को प्राप्त, साधना में रत, भगवान बनने वाले मुनि श्री पार्श्वप्रभु को जब कर्मों ने नहीं छोड़ा तो शेष मोक्ष पुरुषार्थियों का क्या कहना? अर्थात् कर्मों के उदय-उदीरणा के रहते गुणस्थानों की साज-सँभाल करना अत्यंत कठिन होता है। आगम का कथन है, अंतर्मुहूर्त-अंतर्मुहूर्त में गुणस्थानों (भावों) में परिवर्तन होता रहता है। आचार्यश्रीजी पल-पल अपने शिष्यों को सजग रख, अपने पथ पर दृढ़ रहने हेतु प्रेरित करते रहते हैं। वह कहते हैं, जिन साधकों के हाथ में पिच्छी आ गई, अब उनके प्राण यह पिच्छी (संयम) ही है। इसकी रक्षा हेतु ही वह प्रयत्नशील रहें। 

    अवसर-अवसर पर गुरु दिशाबोध प्राप्त कर कुछ एक संघस्थ पिच्छीधारी साधुओं ने प्रतिकूल परिस्थिति आने पर संयमपूर्वक ही अपनी देह का विसर्जन किया। जैसे मुनि श्री प्रवचनसागरजी महाराज, जिन्हें कुत्ते ने काट लिया था, उन्होंने सदोष उपचार ग्रहण न कर अपने चारित्र को स्थिर रखते हुए समाधिमरण को प्राप्त कर लिया। chapter-3 image (18).pngअसमय में ही असाता कर्म से पीड़ित मुनि श्री सुमतिसागरजी, मुनि श्री धीरसागरजी, अर्यिका श्री जिनमतिजी, आर्यिका श्री एकत्वमतिजी, आर्यिका श्री अतिशयमतिजी आदि साधकों ने चारित्र पर दृढ़ रहते हुए समाधिमरण को प्राप्त किया। आचार्य भगवन् स्थितीकरण का एक भी अवसर नहीं जाने देते। शिथिलाचारिता को तनिक भी स्थान नहीं देते। यदि कोई शिष्य उपगूहन-स्थितीकरण करने के बावजूद भी शिथिलाचारिता को नहीं छोड़ता, तब वह कहीं ऐसे श्रमण द्वारा मार्ग कलंकित न हो जाए, सो मार्ग की रक्षा हेतु मार्ग को दूषित नहीं होने देते। 

    सन् १९९९, जबलपुर, म.प्र. में आचार्यश्रीजी ससंघ विराजमान थे। एक दिन आचार्यश्रीजी ने समस्त संघ को मध्याह्न सामायिक के उपरांत दो बजे उपस्थित होने को कहा। सभी घबरा गए, क्या, कुछ गड़बड़ हो गई है, तभी तो यह आदेश...? समय पर सभी आचार्यश्रीजी के पास उपस्थित हो गए। सभी को यहाँ क्यों बुलाया गया, इसको बताते हुए आचार्यश्रीजी ने कहा | 'जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा' पुस्तक में"सदोष श्रमण' इस शीर्षक के अंतर्गत वर्तमान में फैले श्रमण शिथिलाचार का नाम सहित उद्घाटन किया गया। chapter-3 image (19).pngइस लेख को आद्योपांत पढ़ा गया, पश्चात् आचार्यश्रीजी बोले- 'देखो, क्या-क्या लिखा गया है इस पुस्तक में, यहाँ तक कि इसके अनुसार आज लगभग सभी शिथिलाचारी हैं, और शिथिलाचार के पोषक ये सभी कुगति के पात्र हैं... इससे समाज के लोग क्या सोचेंगे ? फलस्वरूप श्रमण धर्म का ही लोप होने लगेगा। दिगम्बर साधु के अभाव में जैनदर्शन के सारभूत तत्त्व वीतरागता को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। और तब उन भव्यों का अहित हो जाएगा, जो मोक्षमार्ग अपनाना चाहते हैं। अतः हमें अपने आदर्श को बरकरार रखना है, निर्दोष चर्या को पालन करते हुए इन लेखक महोदय को दिखा देना है कि जैसा आप सोचते हैं कि वर्तमान में कोई निर्दोष श्रमण नहीं है ।और उनका ऐसा सोचना गलत है। 

    हम लोगों ने घर-बार छोड़ा है, दुनिया-दौलत छोड़ी है और इतने अच्छे मार्ग पर चल रहे हैं। इतने परिश्रम के बाद भी यदि हम शिथिलाचार को अपनाएँगे तो हमारा अहित तो होगा ही, परिश्रम भी व्यर्थ जाएगा, और साथ ही आने वाली पीढ़ी के साथ अन्याय होगा। यह मार्ग दूषित हो जाएगा, कलंकित हो जाएगा, तब कौन इस मार्ग को ग्रहण करेगा, किस पर चलेगा ? अतः हम लोगों का कर्त्तव्य होता है कि हम जिम्मेदारी पूर्वक सावधानी से महाव्रतों का पालन करें।' हमें शिथिलाचारी से बचना है, अतः हमें अपनी भूमिका का निर्दोष पालन करना है। एवं शिथिलाचार समर्थन से अपने आप को बचाना है। इस मार्ग पर आने के बाद दूसरे की नहीं,स्वयं की ही चिंता करना चाहिए। नरक में मजबूरी के साथ जब कष्ट सहन करे तो यहाँ पर भी पुरुषार्थपूर्वक साधना करना चाहिए। साधना बढ़ानी चाहिए, नहीं तो साधना की उन्नति कैसी? 

    उपर्युक्त लेख ने आचार्यश्रीजी के अंतस में मानो हड़कंप मचा दिया। उन्होंने सभी शिष्यों को प्रेरित किया कि हमारे निमित्त से जिनशासन दूषित नहीं होना चाहिए।जो ऐसा सोचते हैं कि वर्तमान में सच्चे साधु नहीं हैं, उन्हें अपनी चर्या से प्रकट कर देना चाहिए कि आगम में पंचम काल के अंत तक जो साधु होने की बात कही है, वह असत्य नहीं हो सकती। 

    इस प्रकार आचार्य भगवन् ने इस प्रसंग को लेकर सभी को अपने चारित्र में दृढ़ एवं स्थिर रहने हेतु उत्साहित किया। आचार्यश्रीजी अपने शिष्य की प्रत्येक क्रिया पर दृष्टि रखते हैं, और जब कहीं दोष नज़र आता है, तो अवसर-अवसर पर उनका उपगूहन-स्थितीकरण भी करते रहते हैं। 

    अकृत्रिम स्नेहधारक : वात्सल्य अंग 

    अर्हत्वाणी

    सद्यः प्रसूता.........................वात्सल्यम् ॥ ५/३॥

    झजिस प्रकार तुरंत की प्रसूता गाय अपने बच्चे पर प्रेम करती है, उसी प्रकार चार प्रकार के संघ पर अकृत्रिम या स्वाभाविक प्रेम करना वात्सल्य अंग कहा जाता है। 

    विद्यावाणी

    तुर्विध संघ के ऊपर वास्तविक स्नेह वात्सल्य अंग है। लेकिन आज हम वात्सल्य रखते कम हैं और दूसरों से चाहते ज्यादा हैं। नम्रता के द्वारा ही हमें वात्सल्य प्राप्त होता है, यह युक्ति है।

    इस वात्सल्य अंग से अपना सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है, और उसे पुष्ट बनाने का कार्य प्रत्येक सम्यग्दृष्टि को करना चाहिए।

    सबके लिए वाल्सल्य नहीं होता, किंतु अपने पक्ष रूप सच्चे देव-शास्त्र-गुरु और सदाचार एवं सद्विचारों के साथ वात्सल्य भाव होना चाहिए। और सामान्य के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए, क्योंकि उससे मोक्षमार्ग बना रहेगा।

    जो व्यवहार वात्सल्य में निष्णात हो जाता है, वही निश्चय वात्सल्य को प्राप्त होता है। क्योंकि गुणों के प्रति जो आदर भाव रखता है, वही व्यक्ति अपने भीतर रत्नत्रय की आराधना करते हुए निश्चय रत्नत्रय, जो उत्पन्न होने वाला है, उसके प्रति जाग्रत रह सकता है, अन्यथा नहीं। जब व्यवहार वात्सल्य नहीं है तो निश्चय वात्सल्य बहुत दूर की बात हो जाती है।

    वात्सल्य हो स्वाभाविक- साधर्मी में अकृत्रिम स्नेह होना चाहिए, आर्टिफिशियल नहीं। प्रशिक्षण के द्वारा जो स्नेह वात्सल्य होता है। वह अलग होता है और जो सम्यग्दर्शन के साथ सहजरूप से होता है, वह अलग होता है। जैसे, माँ का स्नेह अकृत्रिम होता है। वह कृत्रिम, प्रशिक्षित नहीं। वात्सल्य करने के लिए या सीखने के लिए गाय स्कूल नहीं जाती, सहजरूप से वात्सल्य होना चहिए। 

    निजी पराये

    वत्सों को दुग्ध-पान 

    कराती गौ-माँ। 

     

    chapter-3 image (20).pngविद्याप्रसंग

    वात्सल्य की सावन-सी वर्षा 

    सन् २००६, कुंडलपुर, दमोह, मध्यप्रदेश, में ग्रीष्मकाल में आचार्य संघ आहार चर्या हेतु तालाब के सामने वाले मंदिर से निकलता था। इन मंदिरों के सामने एक लंबी दहलान है, बाहर विशाल आँगन है। वहीं ऊपर की ओर पाँच-छ: छत्ते 

    मधुमक्खियों ने बना रखे हैं। एक  दिन आचार्यश्रीजी आहार चर्या हेतु विधिलेकर निकल गए, शेष महाराज अभी वहीं थे। उसी समय अचानक वहाँ पर लगे सभी छत्ते की मधुमक्ख्यिाँ एक साथ छत्ता छोड़कर भिनभिनाने लगीं, जिसे देख, महाराज गण दहलान से मंदिरजी के भीतर चले गए और जाली वाला दरवाजा बंद कर लिया। लेकिन मुनि श्री धीरसागरजी महाराज जो माला कर रहे थे, वहीं निश्चल ही खड़े रहे। सारी की सारी मधुमक्खियाँ उनके शरीर पर चिपक गईं, एक मिनट में ही उनका सारा शरीर मधुमक्खियों से ढंक गया। किसी महाराज ने जब यह देखा तब वह हिम्मत करके बाहर आए और पिच्छी से मधुमक्खियों को हटाने लगे। तब तक शरीर के प्रत्येक हिस्से में यहाँ तक कि अंदरूनी भागों में भी वे मक्खियाँ हजारों डंक छोड़ चुकी थीं।मुनि श्री धीरसागरजी अब भी वैसे ही कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए जाप दे रहे थे। मधुमक्खियों के उड़ते ही संघ के सभी मुनिराजों ने उन्हें सँभालकर लकड़ी के पाटे पर लिटाया और उनके डंक निकालने लगे। सभी हतप्रभ थ। हजार से ज्यादा काँटे निकलने के बाद भी सारे शरीर में काँटे अभी भी दिखाई दे रहे थे। काँटों के विष के प्रभाव से मुनिश्रीजी का शरीर ऐसे फूल गया जैसे किसी गुब्बारे में पानी भर दिया गया हो, जो हाथ लगाते ही फूट जाएगा। अब तो शेष काँटे निकालने में भी डर लगने लगा, पर मुनिश्रीजी के मुख से कराह भी नहीं निकल रही थी। इतने में आचार्यश्रीजी आहार करके आ गए, सभी ने उन्हें जानकारी दी, तो आचार्यश्रीजी ने अपने कक्ष में एकांत करने एवं मुनिश्री को वहीं लाने का निर्देश दिया। 

    बड़ी मुश्किल से दो मुनिराज उन्हें गुरुजी के पास तक ले गए। आचार्यश्रीजी ने उठकर उन्हें देखा और चंदन का तेल एवं रुई लाने को कहा। शीघ्र ही रुई एवं तेल आ गया। आचार्यश्रीजी ने अपने हाथों से चंदन का तेल रुई में लगाकर मुनि श्री धीरसागरजी की पलकों पर लगाया, जो विष के प्रभाव से फूल करगालों तक लटक चुकी थीं। आचार्यश्रीजी ने तेल लगाकर शीशी वापस रखने को दी। एक महाराज ने बीस कदम की दूरी पर ही वह शीशी व्यवस्थित रखी और पलटकर शीघ्र ही वापस आ गए। देखते क्या हैं कि मुनि श्री धीरसागरजी उठकर आचार्यश्रीजी की वंदना कर रहे हैं, वे अवाक् रह गए। गुरु वात्सल्य का प्रत्यक्ष चमत्कार देख उनकी श्रद्धा चरम पर पहुँच गई।

    स्थितीकरण का साधन, वात्सल्य 

    सन् १९८७, क्षेत्रपालजी, ललितपुर, उत्तरप्रदेश, ग्रीष्मकालीन वाचना का समय। सारा संघ आचार्य भगवंत के मुख से आगम का रस-पान करते हुए अपनी-अपनी साधना में लवलीन था। एक दिन संघस्थ एक क्षुल्लक श्री उदारसागरजी के लिए सर दर्द की वेदना ने ऐसा पीड़ित किया कि उनका उठना बैठना भी मुश्किल हो गया। असहनीय पीड़ा के कारण वह आहारचर्या के लिए भी नहीं उठ सके। सभी तरह से उपचार करके देख लिया, पर दर्द कम होने का नाम नहीं ले रहा था। दोपहर सामायिक के बाद उनकी वेदना कुछ कम-सी हुई तो वह आचार्यश्रीजी के पास पहुंच गए। आचार्यश्रीजी ने उन्हें अत्यंत स्नेहपूर्वक देखा और बोले- 'अब वेदना कैसी है? आहार के लिए उठ जाओ, सब ठीक हो जाएगा।' आचार्यश्रीजी के वात्सल्यमयी वचनों को सुनकर उनका कंठ भर आया, वह कुछ कह न सके। आचार्य महाराज उनकी पीड़ा को समझ गए और बोले- 'चलो मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ।' यह सुनकर क्षुल्लकजी क्षणभर के लिए अपनी सारी वेदना भूल गए और आचार्यश्रीजी के चरणों में अत्यंत विनत होकर सोचने लगे कि शिष्यों को मोक्षमार्ग बताकर उस पर स्थिर रखने के लिए उनके साथ चलने वाले एवं शिष्यों को वात्सल्यपूर्वक सँभालने वाले ऐसे श्रीगुरु को पाकर मेरा जीवन धन्य हो गया। आचार्यश्रीजी उठे और अत्यंत सहजतापूर्वक उनके साथ आहार करवाने चले गए। गुरु की अनुकंपा प्राप्त कर शिष्य को पीड़ा भी मीठा सी लगे।

    गौवत्स-सम शिष्यों से प्रीति 

    आचार्य संघ का विहार सिद्धक्षेत्र, मुक्तागिरि,बैतूल, मध्यप्रदेश की ओर चल रहा था। chapter-3 image (21).pngएक दिन आचार्यश्रीजी ने प्रातः जल्दी विहार कर दिया। संघस्थ कुछ 8 मुनि महाराजों ने सोचा, 8 आचार्यश्रीजी पास वाले गाँव तक ही जाएँगे, अतः हम लोग थोड़ी देर बाद विहार करेंगे तो का भी समय से पहुँच जाएँगे।जब  २०१६, भोपाल, वे मुनि महाराज अगले गाँव में पहुँचे तो पता चला कि आचार्य भगवन् तो आधा घंटा पहले ही यहाँ से आगे निकल गए।सचमुच आचार्यश्रीजी महा अतिथि हैं। कब-कहाँ पहुँचेंगे, कुछ कहा नहीं जा सकता। 

    वह सभी महाराज भी आचार्यश्रीजी का अनुकरण कर आगे बढ़ गए।गंतव्य स्थान तक पहुँचने से पूर्व ही सामायिक का समय हो जाने से उन महाराजों ने रास्ते में संतरे के बगीचे में सामायिक की।अतः उन्हें गंतव्य स्थान तक पहुँचते-पहुँचते ढाई-तीन बज गए। साथ में मुनि श्री क्षमासागरजी महाराज भी थे, उन्होंने आकर आचार्यश्रीजी को नमोऽस्तु किया। आचार्यश्रीजी उनके स्वास्थ्य की स्थिति से परिचित थे, अतः उन्होंने अत्यंत स्नेह भाव से कहा- 'थक गए होंगे, थोड़ा विश्राम कर लो, अभी आहार चर्या के लिए सभी एक साथ उठेंगे। यह सुनकर उन्हें आश्चर्य हुआ कि आचार्यश्रीजी तो समय से आ गए थे, परंतु आहार चर्या के लिए सबके आने तक रुके रहे!

    धन्य है! आचार्यश्रीजी का शिष्यों के प्रति असीम वात्सल्य भाव। 

    इस तरह गुरुवर की वात्सल्य की कृपा अब तक असंख्य भव्य प्राणियों को प्राप्त हो चुकी होगी। हजारों मोक्ष पुरुषार्थी अपनी-अपनी पीड़ा को लेकर गुरु आशीष प्राप्त करने आते हैं। उनकी पीड़ा देख करुणा से पूरित हो आचार्य भगवन् का वात्सल्य भाव कभी उपचार बताकर, कभी स्वयं उपचार करके, तो कभी शब्दों से निर्विकल्प कर मुमुक्षुओं पर बरसता रहता है। 

    प्रभावना अंग अगले पाठ में प्रस्तुत किया जा रहा है।


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