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नव आचार्य श्री समय सागर जी को करें भावंजली अर्पित ×
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ३ - निर्माणांजलि

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    वे महाशक्ति पुंज थे या अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोगी, आत्मस्थ योगी थे या कुशल प्रशिक्षक अथवा रहे हों एक निपुण शिल्पकार, जिन्होंने एक ऐसे महापुरुष के व्यक्तित्व को तराशा, जिनके महाप्रताप से वर्तमान का यह युग प्रकाशित हुआ है और कालान्तर में आचार्य विद्यासागर युग' के नाम से जाना एवं पहचाना जायेगा। ऐसे युग पुरुष के व्यक्तित्व का निर्माण गुरु चरण छाँव तले कैसे हुआ...? ऐसे हुआ...सुनते हैं उन्हीं के मुख से-

     

     

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    चारित्र ध्वजवाहक आचार्य श्री विद्यासागरजी के व्यक्तित्व के निर्माण की चर्चा चलते ही उनकी दीक्षा का प्रसंग जीवन्त हो उठता है। गुरुदेव श्री ज्ञानसागरजी ने २१-२२ वर्ष के एक नवयुवक बालक में दिगम्बरत्व की ध्वजा फहराने वाले एक महान् आचार्य की छवि देखी। ब्रह्मचारी विद्याधर के निवेदन करने पर गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी ने उन्हें सीधे मुनि दीक्षा देने का भाव बना लिया। जब यह समाचार समाज में पहुँचा तो समाज आश्चर्यचकित थी, यहाँ तक कि पूज्य श्री ज्ञानसागरजी से जुड़े हुए श्रेष्ठीवर्ग को भी यह बात स्वीकार नहीं हो पा रही थी-ब्रह्मचारी से सीधे मुनि दीक्षा देना, वह भी एक अल्प वयस्क सुकुमार युवा को।

     

    परमपूज्य मुनि श्री ज्ञानसागरजी का विश्वास दृढ़ था, ब्रह्मचारी विद्याधर के प्रतिभावान् उज्ज्वल भविष्य के प्रति। ३० जून, १९६८ (आषाढ़ शुक्ल पंचमी, वीर निर्वाण संवत् २४९४, विक्रम संवत् २०२५, रविवार) का दिन निर्णीत हुआ। ६ दिन तक लगातार बिनौली निकाली गई। हाथी पर बैठाकर चक्रवर्ती की तरह एक वैरागी की बारात मुक्तिरमा से मिलने के लिए अजमेर, राजस्थान की गलियों में शोभा बिखेर रही थी।

     

    वैरागी विद्याधर ने दीक्षा पूर्व गुरु एवं समाज के समक्ष अपने वैराग्यपूर्ण भावों को रखा, जिसे सुनकर सारी समाज प्रभावित हो उठी। सबके सशंकित मन गुरुवर्य श्री ज्ञानसागरजी के विश्वास के समक्ष नतमस्तक हो उठे। सबके मुख मुखरित हो कहने लगे- हाँ-हाँ, ऐसे वैरागी की ‘मुनि दीक्षा हो जानी चाहिए। आज के दिन दिगम्बरत्वरूपी सूर्य मुक्ति के पथ पर आरूढ़ हो रहा था। मुनिराज श्री ज्ञानसागरजी ने ब्रह्मचारी विद्याधर को ज्यों ही जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान की, जून माह की भीषण गर्मी में संस्कार होने के साथ ही प्रकृति ने भी अपनी हर्षातिरेक की अभिव्यक्ति वर्षा की फुहार के साथ की।

     

    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने मुनि विद्यासागर रूपी हीरा तराश दिया। वह हीरा चमकदार आगे भी बना रहे, इसके लिए दीक्षा के बाद संबोधित करते हुए कहा- “अब तुम्हें आत्म-कल्याण के लिए आगे देखकर बढ़ते जाना है। जो जीवन बीत चुका है, उसके बारे में क्षणमात्र भी विचार नहीं करना है। मुनि का धर्म ऊपर देखने का है, क्योंकि उसका लक्ष्य है मोक्ष को प्राप्त करना। जबकि गृहस्थ को नीचे देखकर आगे बढ़ना है, क्योंकि अभी सांसारिक अवस्था है।

     

    इस प्रकार मुनि दीक्षा ग्रहण के साथ एक महापुरुष के निर्माण की प्रक्रिया आरंभ हुई। इसे हम उन्हीं के मुख से निकले अमूल्य शब्दों के द्वारा आगे पढ़ने जा रहे हैं। यह हमारा भाग्य था कि हम बाजार में शाम-शाम को आये, जब बाजार उठने का समय हो गया। अनेक विद्वान्, मनीषी कीमती वस्तुएँ प्राप्त कर चुके थे। फिर भी बहुत कुछ बचा था। उनको बेचना तो था ही और हम जो आ गए, तो जो कुछ था तैयार, बाँध-बूंध करके रखा था उन्होंने, वह हमें मिल गया। चूंकि हम वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के बाजार में आए थे। अतः कीमती वस्तुएँ हमें भी मिल गईं। पूज्य गुरुदेव के चरणों की शरण मिल गई। पर गुरुदेव कहते थे कि आज पंचम काल है, केवली, श्रुतकेवली, ऋद्धिधारी आदि अनमोल चीजें नहीं हैं, ‘पर हम पुण्यशाली तो हैं, गुरुदेव जो मिले।'

     

    गुरु महाराज की हमारे ऊपर ऐसी कृपा हो गई कि हम तो धन्य-धन्य हो गए। मेरा तो पुण्य था जो भले ही अल्पकाल के लिए मिला, पर मिला तो है। यदि २-३ वर्ष और देर कर जाता, तो मेरा जीवन अंधकारमय हो जाता। जिनके स्मरण करने मात्र से प्रकाश मिल जाता है उनका स्मरण बार-बार करते रहना चाहिए। ‘पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागर जी महाराज भी एक प्रकाश पुंज हैं। वे ऐसा ही प्रकाश जीवन में देते रहें, ऐसी मैं प्रार्थना करता हूँ।'

     

    गुरु ने मुझे

    क्या न दिया हाथ में

    दीया दे दिया।

     

    अनुपम जौहरी ने गढ़ा अनगढ़ पत्थर - मुझ जैसे अनगढ़ पत्थर को एक रूप (आकार) देने का कार्य किया है वृद्ध अवस्था में उन्होंने, जाते-जाते कह दें तो कोई बाधा नहीं है। जाते-जाते का अभिप्राय सल्लेखना के सम्मुख होते-होते से है। नहीं तो हम अंधकार में कहाँ हाथ-पैर पटकते, और क्या जीवन होता हमारा समझ लो, सोचो..., ये गुरुदेव की कृपा है कि उन्होंने इस प्रकार का हमें मार्गदर्शन दिया। गुरुदेव ही तो हैं जिन्होंने हमें इस प्रकार बताया। अंत-अंत तक वो प्रतीक्षारत रहते थे। एक क्षण भी हमारा बेकार न जाए… आखिर वृद्धावस्था में इस प्रकार पुरुषार्थ करने की उन्हें क्या आवश्यकता थी। लेकिन नहीं...आया है तो देओ...।

     

    बाँस को बना दिया बाँसुरी - बाँस बैलों को हाँकने के काम आता है, वैसा लट्ठमार था मैं एक समय पर। उस बाँस में छेद डालकर बाँसुरी बनाकर बजाने वाले वही थे। बाँसुरी बजाने वाले कौन-से छेद पर मध्यमा, कनिष्ठा, अनामिका लगाते या अंगुष्ठ भी कार्य करता । पाँचों अँगुलियों के माध्यम से बजाना होता। समय पर क्रम से बजाया जाता। हवा पास होती तो एक लय बन जाती। वे स्वर सभी को कर्णप्रिय हो गए। वे स्वर कर्णप्रिय भले ही हों, स्वर को लाने वाले की बात अलग है। हम जैसे ठेठ बाँस की ओर दृष्टि गई, यह उनका उपकार है। जाने वाले कैसे-कैसे कार्य कर जाते हैं, दुनियाँ उनको पहचानती है। वहाँ हाथ और अँगुलियों के स्पर्श से स्वर निकलता, यहाँ शिल्पी का ज्ञान काम करता। एक ऐसे शिल्पी का, जिन्होंने बाँस को बाँसुरी बना दिया और प्रतिफल में कुछ भी नहीं माँगा।

     

    गुरु कृपा से

    बाँसुरी बना मैं तो

    ठेठ बाँस था।

     

    गुरु कृपा से बाँस में से श्वाँस निकलती है तो सुरीली बाँसुरी बनती है।

     

    अँगुली पकड़ चलना सिखाया - धन्य हैं गुरुदेव कि मैं बच्चों से भी छोटा था। तब न भाव, न भाषा। बस हो जायेगा सब काम, इसलिए उनकी अँगुली पकड़कर सब कुछ समझ में आ गया। गुरु वयोवृद्ध होते हुये भी हम जैसे छोटे बच्चे को लेते हुये, चाल परिवर्तित करते हुए चलते थे दादा-नाती की तरह। उन्होंने अपनी चाल को परिवर्तित करके हमें प्रशिक्षण दिया।

     

    हमें होशोहवास की बातें बताईं, सिखाईं और जागृत किया। मैं छोटा था। उनके पास बैठा रहता था। कोई धार्मिक अनुष्ठान होता था, बाजे बजते थे तो सब भाग जाते थे, तब गुरु जी कहते तुम भी चले जाओ। मैं कहता मैं तो आपके पास ही ठीक हूँ। गुरु महाराज वृद्ध थे, ८0 वर्ष की आयु, परन्तु वे सेवा कम ही कराते थे। अपना अधिक समय ध्यान-अध्ययन में लगाते थे। मैं सेवा (वैयावृत्ति) करता था, पर वो मुझसे अधिक नहीं करवाते थे। थोड़ा-बहुत करा लेते थे और धीरे से कह देते थे कि बस जाओ। स्वाध्याय, अध्ययन करो, बहुत से लोग आते हैं।

     

    उलझनें सुलझाना सिखाया - वर्षों की समस्याओं का मिनटों में समाधान दे देना उनकी खूबी रही। किसी उलझन को सुलझाने की बात जब हम पूछते तो महाराज कहते थे - ‘समय पर सब काम होता चला जायेगा, संतोष रखा करो।' जिसके पास संतोष नहीं होता वह कभी, किसी भी प्रकार से उन्नत नहीं हो सकता। जो व्यक्ति उतावली कर देता है, वह कभी भी काम को पूर्ण नहीं कर सकता। उतावली करने से कार्य पूर्ण नहीं होता बल्कि उलझता और चला जाता है। उनका चिंतन अनुभव सिद्ध था। वे महान् तार्किक, चिन्तक व अध्यात्मवेत्ता थे। उन्होंने शुद्धोपयोग और शुभोपयोग की गुत्थी सुलझाई, ये हमने उनसे सीखा।

     

    पालन-पोषण करना सिखाया - उन्होंने हमें माँ की भाँति सँभाला। जैसे माँ भोजन करती है तो गर्भस्थ शिशु का पालन-पोषण हो ही जाता है। और उनका सब कुछ वक्ष में ही था। वे जो कुछ भी खा लेते तो गर्भस्थ शिशु के ऊपर वह प्रतिकूल प्रभाव डाल ही नहीं सकता था। संयत व्यक्ति किस प्रकार इसका पालन-पोषण करता है, यह उन्होंने सिखाया। उन परिस्थितियों में भी उन्होंने हमको जिस तरह सँभाला उसके लिए कहने को मेरे पास शब्द नहीं हैं।

     

    कर्तव्य और कत्तपन का अन्तर सिखाया - वे कहा करते थे कि कर्तव्य में कभी भी कर्तापन नहीं होना चाहिए। कर्तव्य अप्रमत्तता का द्योतक है प्रवृत्ति होते हुए भी। कर्त्तापन हमेशा प्रमाद, अहंकार और स्वामित्व का प्रतीक बन जाता है, जिसके द्वारा अपनी यात्रा रुक जाती है  हमेशा-हमेशा। ये उनसे हमने सीखा है। वृद्धावस्था में अप्रमत्त होने की सीख हमें आचार्य ज्ञानसागर जी से प्राप्त होती है। कार्य करने के प्रति निष्ठा रखिये, यह बात हमने गुरु महाराज से सीखी। जब तक प्राण हैं, तब तक कर्तव्य के प्रति जागरुकता रखनी चाहिए।

     

    आत्मा रूपी कागज पर लिखना सिखाया - जैसे लिफाफे के ऊपर सिर्फ पता लिखा रहता है और पत्र/आलेख भीतर रहता है, वैसे ही पूज्य आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज इस मानव पर्याय रूपी लिफाफे में आत्मा रूपी कागज पर रत्नत्रयरूपी लेख लिखते थे। उन्होंने हमें भी बताया कि क्या, कैसा, कब लिखना। यह हमारा परम सौभाग्य है। मैं भी उन्हीं की कृपा से बता रहा हूँ।

     

    आत्मस्थ होना सिखाया - सोचिए! ‘समयसार’ का अध्ययन करते हुए अभी तक तव-मम नहीं छूटा है। इसको मारवाड़ी भाषा में थारी-मारी बोलते हैं। महाराजजी कहा करते थे कि थारी-मारी का अर्थ तव-मम होता है। तव-मम संस्कृत शब्द है। थारी-मारी यह राजस्थानी भाषा में अर्थ हुआ। हम यदि पर द्रव्य को अपना और पराया कहना प्रारंभ कर देते हैं तो वह आत्मतत्त्व गायब हो जाता है। ऐसा सूक्ष्म अध्ययन उनका (आचार्य ज्ञानसागरजी का) होता था...। इसलिए अप्रमत्त होकर रहना ही स्वाध्याय है। आचार्य गुरुवर ज्ञानसागरजी मुझे बार-बार याद कराते थे कि देख लो.. 'प्रवचनसार' में एक गाथा आई है

     

    भत्ते वा खमणे वा, आवसधे वा पुणो विहारे वा।

    उवधिम्हि वा णिबद्धं, णेच्छदि समणम्हि विकधम्हि ॥२१५॥

    चारित्र चूलिका अधिकार

     

    गजब की यह रहस्यपूर्ण गाथा माननी चाहिए। इसमें कहा है कि वह श्रमण होने के उपरांत श्रमण के साथ चर्चा करता है तो भी यह कहा जाता है कि जिस प्रकार विकथा से श्रमण लोग बचते हैं, उसी प्रकार एक श्रमण का दूसरे श्रमण के साथ आत्मा की कथा करना भी एक प्रकार से विकथा जैसा है, क्योंकि वही आत्मा की कथा करते-करते आत्मा को भुलाने में कारण हो जाता है।

     

    गुरु ने चलना ही नहीं, दौड़ना भी सिखाया - जैसे सर्कस में तार पर चलने वाला कलाकार तार की ओर नहीं, लगातार हाथ में ली गई लकड़ी की ओर ही देखता रहता है और तार को पैरों से ही देखते हुये चलकर लक्ष्य को प्राप्त कर लेता है। उसी प्रकार ज्ञानी साधक पुरुष होते हैं। उनमें आचार्य गुरुवर श्री ज्ञानसागरजी महाराज भी एक हैं। गुरु ज्ञानसागरजी महाराज ने ऐसी कला, साहस और शक्ति दी कि हमें तार पर चलना तो सरल है ही, किन्तु अब हम दौड़ भी सकते हैं।

     

    गुरु ने दी पथ में अनुकूल हवा - उन्होंने युगीन ग्रन्थों को आत्मसात् कर हमें भी दिया। उस समय कुछ समझ में नहीं आ पाता था। पर कुछ भी पचता तब है, जब अनुकूल पद्धति हो। भोजन महत्त्वपूर्ण नहीं, पद्धति महत्त्वपूर्ण है। कब देना, कितना देना, कैसे देना, यह महत्त्वपूर्ण है। सामने से हवा आ रही हो तो आप एक कदम रखें। वह हवा आपको दो कदम पीछे ले जाएगी। वे ऐसी वायु थे कि हम अगर चढ़ने का प्रयास करते, तो वे पीछे से अनुकूल हवा का काम करते थे और हमारे लिये हमेशा प्रेरक बनते थे।'

     

    गुरु मार्ग में

    पीछे की वायु सम

    हमें चलाते।

     

    गुरु प्रदत्त उपकरण - उन्होंने मुझे उपकरण दिये और कहा, “बेटा! अब तुम्हें कोई आवश्यकता नहीं पड़ेगी, इन्हें सँभालो, इनका उपयोग अच्छे ढंग से करना।" उपकरण चार प्रकार के होते हैं

     

    क. जहजादरूवं - यथाजात रूप - यथाज्ञान, यथारूप या यथाजात रूप में दीक्षित कर देना, यह उनका बहुत बड़ा उपकार है। मोक्षमार्ग की यह बाहरी पहचान है और गुरु कृपा से ही यह यथाजात रूप प्राप्त होता है एवं पूज्यता इसी से प्राप्त होती है।

     

    ख. गुरुवयणं - गुरु का वचन - गुरु का वचन क्या है, यह आवश्यक उपकरण है। ‘जाओ बेटा! तुम्हारा कल्याण होगा।' तो कल्याण होना निश्चित ही है।

     

    ग. विणओ - विनय - विनय सिखाना, जब स्वयं (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज) सल्लेखना करते हैं, तब विनय सिखाते हैं। इससे बढ़कर और कोई विनय हो ही नहीं सकती। गुरु ने विनय दी, विनय सिखाई। हमें छोड़ा कहाँ है, लेकिन वे विश्वस्त होकर गए हैं। अब इसका कुछ बिगाड़ नहीं होने वाला।

     

    घ. सुत्तज्झयणं - सूत्र का अध्ययन - सूत्र का अध्ययन कराया। गुरुजी का कहना था - ‘जो मोक्षमार्ग के सूत्र में बँध जाता है, उसका बाल भी बाँका नहीं होता है।'

    (प्रवचनसार, ३/२५)

     

    ‘हमें गुरुदेव सुरक्षित करके गए हैं। कोई चिन्ता नहीं, क्योंकि चार उपकरण इसके साथ हैं। जैसे भोगभूमि में युगल सन्तान का जन्म होता है तब माता-पिता का अवसान हो जाता है, उसी प्रकार गुरुदेव हमें जन्म देकर तो चले गए। पर वे हमें आठ-आठ माताओं (अष्टप्रवचन मातृका- पाँच समिति और तीन गुप्ति) की गोद में सौंप कर गए हैं।

     

    अभूतपूर्व मन्त्र दिया - उनकी विशालता, मधुरता, गहराई और मूल्य छवि का हम वर्णन भी नहीं कर सकते। गुरु ने हमें ऐसा मन्त्र दिया कि यदि नीचे की गहराई और ऊपर की ऊँचाई नापना चाहो तो कभी ऊपर-नीचे मत देखना, बल्कि अपने को देखना। तीन लोक की विशालता स्वयं प्रतिबिम्बित हो जाएगी।'

     

    जीवन श्रृंगार हेतु सूत्र दिया - हमने एक बार आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज से पूछा था - ‘महाराज! मुझसे धर्म की प्रभावना कैसे बन सकेगी?' तब उनका उत्तर था - ‘आर्षमार्ग में दोष लगा देना अप्रभावना कहलाती है। तुम ऐसी अप्रभावना से बचते रहना, बस प्रभावना हो जायेगी।' मुनि मार्ग सफेद चादर के समान है, उसमें जरा-सा दाग लगना अप्रभावना का कारण है। उनकी यह सीख बड़ी पैनी है। इसलिए मेरा प्रयास यही रहा कि दुनिया कुछ भी कहे या न कहे, मुझे अपने ग्रहण किये हुए व्रतों का परिपालन निर्दोष करना है।

     

    सर्वांगीण विकास हेतु सूत्र दिए

    • अज्ञानियों से वर्षों प्रशंसा मिलने की अपेक्षा ज्ञानी के द्वारा डाँट मिलना भी श्रेष्ठ है। क्योंकि ज्ञानी की डाँट के द्वारा दिशाबोध प्राप्त हो जाता है और यही डाँट व्यक्ति की दशा परिवर्तन करा देती है एवं दुर्दशा होने से बचा लेती है।
    • जिसको छोटा बालक भी बुरा कहे, वह पाप है, अधर्म है। पहले शास्त्र सुनकर पूरा-पूरा पचा जाते थे, अब पूरा-पूरा बचा जाते हैं। यह युग बाहरी क्रियाओं की अपेक्षा चतुर्थ काल को पछाड़ रहा है और आंतरिक क्रियाओं की अपेक्षा छठवें काल को मात कर रहा है।
    • केशलोंच और प्रतिक्रमण ये दोनों स्वाश्रित होना चाहिए। दूसरों से अवलम्बन ले भी लें, तो कारणवश आदत में नहीं लाना। अपनी चर्या इस प्रकार बनाकर चलें ताकि दूसरे लोग भी आपके साथ चलने को लालायित हो उठे। इन लोगों को दुकानों का महत्त्व ही ज्ञात नहीं है। चौराहे पर लगाओ तो चलती है लोगों की दुकान। उसी प्रकार अपनी दुकान जितनी एकान्त में, अकेले में बैठो, उतनी कर्म निर्जरा है। धीरे-धीरे सब व्यवस्थित हो जाएगा, आगम सामने रखना। ‘आगमचक्खू साहू' कहा है। मन हमें अपनी आत्मा की उन्नति के लिए मिला है। और यह शरीर राष्ट्रीय सम्पदा है।
    • ‘मूल के ऊपर सोचो और विचार करो'- यह सूत्र उनका मुझे आज भी प्राप्त है। ‘तत्त्वार्थसूत्र जितनी बार पढ़ता हूँ उतनी बार मुझे बहुत आनन्द आता है, और आचार्य महाराज का सूत्र सार्थक होता चला जाता है। भाद्रपद में ही इसका विषय उद्घाटित होता है। बहुत सारी बातें अपने आप होती चली जाती हैं, यह गुरु महाराज की कृपा है। जितना मूल के ऊपर अध्ययन करेंगे, उतना ही आनन्द आयेगा।
    • ‘नौ तपा से मत डरो। बारह तपा अभी सामने हैं, जो बहुत बड़े हैं'। मूलगुण पल जाएँ यह बहुत बड़ी बात है। एक प्रश्न नहीं है, अट्ठाईस प्रश्न हैं जिन्हें जीवनभर हल करना है। ईर्यापथ जो है, वह आहार-विहार-निहार आदि में जो जल्दी-जल्दी चलते हैं रात में या दिन में, आना-जाना, प्रवृत्ति आदि जो भी होती है, वंदना आदि करके आये हैं उस सम्बन्धित दोषों के निवारण के लिए ईर्यापथ की शुद्धि की जाती है। मात्र आहार सम्बन्धी दोषों के लिए नहीं।
    • जैसे शरीर को प्रतिदिन भोजन करना आवश्यक होता है, वैसे ही भेद-विज्ञान साधक को प्रतिदिन बारह भावनाओं के चिंतन रूपी भोजन को करना भी अति आवश्यक होता है, तभी साधक के कदम साधना पथ पर अबाध गति से बढ़ते जाते हैं और अंतिम मोक्षसुख को पा जाते हैं। ‘मोक्ष जब चाहते हो तो ख्याति क्यों चाहते हो?' प्राकृत में ख्याति को ‘खाई' बोलते हैं। खाई में तो सर्प, मगरमच्छ सब रहते हैं। जब उसका जीवन पूरा हो जाता है अर्थात् उसका नाम भी डूब जाता। इसलिए वे मान को जीवन में नहीं आने देते थे।

     

    उपसंहार

    उन्होंने क्रिया और प्रक्रिया के माध्यम से मुझे सुशिक्षित, प्रशिक्षित एवं दीक्षित करने के साथ ही अन्तिम समय तक सम्बल देने का प्रयास किया। उनको तो बस यही ध्यान रहता था कि इसको अल्प समय में कितना, क्या दिया जा सकता है। और उन्होंने शायद यह भी सोच लिया था कि अन्तिम समय में भी यदि मैं इसको अशिक्षित रखूगा या अपरिचित रचूँगा तो इसका अन्त कैसा होगा, इसकी उनको चिंता थी। वह मात्र लक्ष्य की ओर देखते-देखते दिशा बाँध दिया करते थे। हमें ये प्रतिभा उनसे मिली है।

     

    ये हमारा मन तो आचार्य श्री ज्ञानसागरजी ने बनाया है। इसे तो अंत समय तक जवान रखूँगा। यह उनका आशीर्वाद है, हारने वाला नहीं हूँ। गुरु उसी को बोलते हैं जो कठोर को भी नम्र बना दे। 'मैं' अर्थात् अहंकार को मिटाने का यदि कोई सीधा उपाय है तो गुरु के चरण-शरण। गुरुदेव की कृपा से अनंतकालीन विषाक्तता निकलती चली जाती है। हम स्वस्थ हो जाते हैं, आत्मस्थ हो जाते हैं, यही गुरु की महिमा है। गुरु का हाथ और साथ जब तक नहीं मिलता, तब तक कोई ऊपर नहीं उठ सकता। गुरु हमारे जीवन के सृष्टा होते हैं, गुरु हमारे जीवन का प्रकाश होते हैं। गुरु की प्राप्ति से हमारी अपूर्णता पूर्ण हो जाती है। अतः गुरु की प्राप्ति ही गुरुपूर्णिमा है।

     

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    हम उन दिनों न तो उत्तर जानते थे, न प्रक्रिया या क्रिया जानते थे। हम तो नादान थे, उन्होंने हमें क्या-क्या दिया, हम कह नहीं सकते। बस इतना ही कहना काफी है कि हमारे हाथ उनके प्रति भक्ति-भाव से हमेशा जुड़े रहते हैं।

     

    ‘आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी की गाथाओं में डूबे रहने वाले

    आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज

    हमारे लिए वरदान सिद्ध हुए हैं,

    इसमें संदेह ही नहीं है।'

     

    ‘मैं आपका गुणगान करता हूँ, दुनिया मुझे जान जाती है

    मैं आपको याद करता हूँ, जगत् मुझे पहचान लेता है 

    मैं वह खुली हुई वस्तु हूँ, जिसका पता आप हैं।

     

     


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