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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ १ - पारिवारिक व्यक्तित्व

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    भारतीय वसुंधरा ने जिन्हें अपनी गोद में उठा 'विद्याधर' नाम से पुकारा, परिवार से जिन्हें ‘अष्टगे’ पहचान मिली, आज वो भारत माँ के सर्वोच्च हितंकर, प्राणी मात्र के शुभंकर, अहिंसा भाव के उद्घोषक, प्रायोगिक शिक्षा के प्रेरक एवं श्रमण संस्कृति की दहलीज पर शिष्य परम्परा का महा अर्घ समर्पित करने वाले अपूर्व व्यक्तित्व के धनी संतशिरोमणि आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के रूप में युग विख्यात होकर न केवल अपने परिवार की और न केवल दक्षिण भारत की, अपितु सम्पूर्ण भारत की पहचान' बन गए हैं। ऐसे अद्वितीय व्यक्तित्व का पारिवारिक चित्रण प्रस्तुत पाठ में दर्शाया जा रहा है।

     

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    युगशिरोमणि, अनिर्वचनीय व्यक्तित्व के धनी, श्रमण परंपरा संप्रवाहक, सर्वविध साहित्य संवर्धक, भारतीय शिक्षा पद्धति के पोषक, सर्वोच्च अहिंसक (प्राणीमात्र के रक्षक), जिनतीर्थोद्धारक, राष्ट्र हितंकर, जिनप्राणप्रतिष्ठापक, भारतीय संस्कृति एवं संस्कारों के संरक्षक, आस्था के ईश्वर, महायशस्वी, महातपस्वी, अमृतपुरुष, सिद्धांतज्ञ, आत्मानुशासक, अध्यात्म सरोवर के राजहंस, जगज्ज्येष्ठ दिगम्बर जैनाचार्य १०८ श्री विद्यासागरजी महामुनिराज की बाल्यावस्था का नाम था। ‘विद्याधर'।

     

    0021.jpgदिगंबर जैनाचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज

    सामान्य परिचय

    पूर्व नाम - बाल ब्रह्मचारी श्री विद्याधर जैन अष्टगे।

    जन्म स्थान - सदलगा ग्राम के निकट चिक्कोड़ी, जिला बेलगाम (बेलगावी) कर्नाटक की शासकीय अस्पताल में हुआ।

    जन्म तिथि - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा) गुरुवार, वी. नि. सं. २४७२, वि. सं. २००३, ई. सन् १० अक्टूबर, १९४६, रात्रि ११.३० बजे।

    पिता श्री - श्री मल्लप्पाजी जैन अष्टगे (समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागरजी)।

    माताश्नी - श्रीमती श्रीमंतीजी जैन अष्टगे (समाधिस्थ आर्यिका श्री समयमतिजी)

    भाई-बहन - १. श्रीकांतजी (स्व.) २.बहन सुमतिजी (स्व.) ३. महावीरजी ४. विद्याधरजी (जन्मक्रम से) ५. बहन शांताजी ६. बहन सुवर्णाजी ७.धनपालजी (धन्यकुमार) (स्व.) ८. अनंतनाथजी ९. शांतिनाथजी १०. अनाम संतान (गर्भ से मृतक)।

    मातृभाषा - कन्नड़।

    शिक्षा - ९वीं कक्षा (मैट्रिक), माध्यम कन्नड़ भाषा।

    अन्य भाषा ज्ञान - मराठी, हिंदी, प्राकृत, संस्कृत, अपभ्रंश, अंग्रेजी, बंगला आदि।

    ब्रह्मचर्य व्रत - १४ वर्ष की उम्र में लग्न (विवाह) तक का व्रत क्षुल्लक सूरिसिंहजी महाराज से चाँद शिरडवाड़, जिला बेलगाम (बेलगावी), कर्नाटक, बुधवार, वी. नि. सं. २४८६, वि. सं.२०१७, ई.सन् १९ अक्टूबर, १९६०, दीपावली के दिन।

    आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत - आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से चूलगिरि,जयपुर, राजस्थान, वी. नि. सं.२४९२, वि. सं. २०२३, ई.सन् १९६६।

    सातवीं प्रतिमा - आचार्य श्री देशभूषणजी महाराज से श्रवणबेलगोला, हासन, कर्नाटक, वी. नि. सं. २४९३, वि. सं. २०२३, ई. सन् १९६६।

    मुनि दीक्षा - अजमेर, राजस्थान, आषाढ़ शुक्ल पंचमी, रविवार, वी. नि. सं. २४९५, वि. सं. २०२५, ई. सन् ३० जून, १९६८।

    दीक्षा गुरु - महाकवि दिगम्बराचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज।

    आचार्य पद - नसीराबाद, अजमेर, राजस्थान, मार्गशीर्ष कृष्ण द्वितीया, बुधवार, वी. नि. सं. २४९९, वि. सं. २०२९, २२ नवम्बर, १९७२।

    दीक्षित शिष्य - बाल ब्रह्मचारी १२० मुनि, १७२ आर्यिका, २२ एलक, १२ क्षुल्लक, ३ क्षुल्लिका, सहस्राधिक बाल ब्रह्मचारी भाई एवं बहनें।

    सफल प्रेरक - आपकी प्रेरणा से सहस्राधिक उच्चशिक्षित बाल ब्रह्मचारी शिष्य-शिष्याओं के साथ आपके गृहस्थावस्था के माता-पिता, दो छोटे भाई, दो छोटी बहनें भी मोक्षमार्ग के पथिक बने। आप लाखों की संख्या में जनमानस को सात्त्विक जीवन निर्वाह की प्रेरणा दे रहे हैं। राष्ट्र के कर्णधारों को दिशाबोध दे रहे हैं।

    वैशिष्ट्य धर्म - दर्शनविज्ञ, साहित्यकार, सिद्धान्तवेत्ता, राष्ट्रीय चिन्तक, आध्यात्मिक प्रवचनकार, भारतीय संस्कृति के मर्मज्ञ, जैन मुनि संहिता के तपस्वी साधक।

     

     

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    0025.jpgसौभाग्यशाली पिता : श्री मल्लप्पाजी अष्टगे - श्री मल्लप्पाजी का जन्म वीर निर्वाण संवत् २४४२, विक्रम संवत् १९७३, ईस्वी सन् १२ जून, १९१६ में ग्राम सदलगा, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम (वर्तमान नाम-बेलगावी), कर्नाटक प्रांत में हुआ था। आपके तीन पीढी पूर्व वंशज आष्टा गाँव में निवास करते थे। वहाँ से शिवराया भरमगौड़ा चौगुले, प्रांत कर्नाटक, जिला बेलगाम, (बेलगावी) तालुका-चिक्कोड़ी, ग्राम सदलगा आए थे। इसलिए आपका गोत्र ‘अष्टगे’ कहा जाने लगा। दक्षिण भारत में चतुर्थ, पंचम, बोगार, कासार, सेतवाल आदि दिगंबर जैन प्रसिद्ध जातियाँ होती हैं। गाँव के जमीदारों की चतुर्थ जाति होती है। मल्लप्पाजी गाँव के ज़मीदार होने से चतुर्थ जाति के थे। सदलगावासी उन्हें मल्लिनाथजी के नाम से पुकारते थे। उनके पिता सदलगा ग्राम के कलबसदि (पाषाण निर्मित) मंदिर के मुखिया श्री पारिसप्पाजी (पार्श्वनाथ) अष्टगे एवं माता श्रीमती काशीबाईजी थीं।

     

    पारिसप्पाजी के दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी कम उम्र में स्वर्गवासी हो गई थीं। तब काशीबाई से उनका दूसरा विवाह हुआ था। दोनों पत्नियों से उनकी दस संतानें थीं। इनमें से चार दिन में तीन संतानों की मृत्यु प्लेग रूपी महामारी फैलने से हो गई, एवं कुछ समय पश्चात् दो संतानों का वियोग और हो गया। इस प्रकार पारिसप्पाजी की पाँच संतानों की आकस्मिक मृत्यु हो गई एवं पाँच संतान जीवित रहीं। पहली पत्नी से उत्पन्न हुआ पुत्र अप्पण्णा एवं दूसरी पत्नी काशीबाई से दो पुत्र और दो पुत्रियाँ हुईं। इनमें मल्लप्पाजी अपने माता-पिता के द्वितीय एवं लाड़ली संतान थे। मल्लप्पाजी के जन्म की खुशी में उनकी माता ने गरीबों को पाँच बोरी शक्कर बँटवाई थी। उनके दो भाई, बड़े अप्पण्णा एवं छोटे आदप्पा थे। बड़ी बहन चंद्राबाई एवं लक्ष्मीबाई (अक्काबाई) छोटी बहन थीं।

     

    इनकी शिक्षा कक्षा पाँचवीं तक मराठी भाषा में एवं कक्षा छठवीं-सातवीं की कन्नड़ भाषा में हुई थी। ये कन्नड़, मराठी, हिन्दी, उर्दू एवं संस्कृत भाषा के जानकार थे। इनका विवाह १७ वर्ष की उम्र में अक्कोळ ग्राम, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम, कर्नाटक के समृद्ध श्रेष्ठी श्रीमान् भाऊसाहब कमठे एवं श्रीमती बहिनाबाई की पुत्री श्रीमंती के साथ वीर निर्वाण संवत् २४६०, विक्रम संवत् १९९०, ईस्वी सन् १९३३ में संपन्न हुआ था।

     

    मल्लप्पाजी की दस संतानें हुईं। सन् १९३९ में प्रथम पुत्र श्रीकांत (चंद्रकांत) हुआ, जो छ: माह जीवित रहा। सन् १९४१ में दूसरी संतान पुत्री सुमन (सुमति) हुई, जो छः वर्ष तक जीवित रही। सन् १९४३ में तीसरी संतान के रूप में पुत्र महावीर का जन्म हुआ। सन् १९४६ में चौथी संतान के रूप में ‘विद्याधर' धरती पर आए। सन् १९४९ में पाँचवें क्रम में पुत्री शांताबाई और सन् १९५२ में छटवें क्रम में पुत्री सुवर्णाबाई का जन्म हुआ। सातवें क्रम में पुत्र धनपाल (धन्यकुमार) का जन्म हुआ, जो मात्र पंद्रह दिन तक जीवित रहा। सन् १९५६ में आठवीं संतान के रूप में पुत्र अनंतनाथ का जन्म हुआ। सन् १९५८ में नौवीं संतान के रूप में पुत्र शांतिनाथ का जन्म हुआ। अंतिम दसवीं संतान माँ के गर्भ तक ही जीवित रही।

     

    पारिवारिक वातावरण - मल्लप्पाजी के पिता श्री पारिसप्पाजी अत्यंत प्रतिष्ठित व्यक्ति थे। वे स्वभाव से धार्मिक एवं दानी प्रकृति के थे। मल्लप्पाजी के घर पर ही दिगम्बर जैन तीर्थंकर १००८ श्री चंद्रप्रभ भगवान् का चैत्यालय था। भगवान् का अभिषेक एवं पूजन करना उनका नित्य कर्म था। प्रत्येक माह की अष्टमीचतुर्दशी को वे उपवास करते थे। उनके घर का वातावरण संस्कारित एवं धार्मिक था। यही कारण रहा कि उन्होंने अपने बच्चों के नाम भी तीर्थंकरों के नाम पर रखे - महावीर, अनंतनाथ, शांतिनाथ। उन्होंने अपनी संतान को पूर्ण रूप से धार्मिक संस्कारों से संस्कारित किया। व्यवहारिक कार्यों में भी वे अपने बच्चों को धर्म की शिक्षा देते रहते थे।

     

    पितृ वियोग - मल्लप्पाजी की उम्र जब लगभग २०, २१ वर्ष की थी, तब एक दिन उनके पिताजी की छाती में अचानक दर्द हुआ। अपनी मृत्यु को नज़दीक आया हुआ जानकर उन्होंने अपना सारा कारोबार अपने बेटों को सौंप दिया। बीमारी के चौथे दिन सब कुछ त्याग कर शांत भाव से णमोकार मंत्र के स्मरण एवं श्रवण पूर्वक उन्होंने प्राणों का विसर्जन कर दिया।

     

    अभिरुचि - श्री मल्लप्पाजी के पिताजी स्वाध्याय प्रेमी थे। वह हमेशा कहा करते थे- ‘क्या मैं अपने बेटों को अपने जीवनकाल में कभी स्वाध्याय करते देख सकूँगा?' फिर अचानक ही उनके पिता की मृत्यु हो गई। पिता की उपस्थिति में उनकी इच्छा को पूर्ण न कर पाने की पीड़ा ने मल्लप्पाजी को ‘स्वाध्याय प्रेमी’ बना दिया। पिताजी की मृत्यु के लगभग एक माह पश्चात् ही प्रतिदिन स्वाध्याय करने का संकल्प कर लिया और घर पर ही प्रतिदिन स्वाध्याय करना प्रारंभ कर दिया। परिवार के साथ-साथ अड़ोस-पड़ोस के लोग भी स्वाध्याय में बैठने लगे। ग्रंथ पूर्ण होने पर वे उसका निष्ठापन गाजे-बाजे से, आनंद पूर्वक गन्ने आदि को सजाकर, मिष्ठान वितरण आदि करके किया करते थे। जब तक गृहस्थावस्था में रहे तब तक परिवार में सामूहिक स्वाध्याय चलता रहा।

     

    त्याग के प्रति निष्ठावान् - त्याग के प्रति आपकी गहन निष्ठा थी। बचपन में ही उन्होंने अंग्रेजी दवा खाने का त्याग कर दिया था। वे दशलक्षण एवं सोलहकारण पर्व में एक आहार-एक उपवास करते थे। प्रत्येक अष्टमी व चतुर्दशी को प्रोषधोपवास करते थे। लगभग २०, २१ वर्ष की आयु में आपने जूते पहनने का आजीवन त्याग कर दिया था। जब वे पिताजी के स्वास्थ्य के बिगड़ने पर दवा लेने औषधालय गए थे, तब उन्हें सूचना मिली कि पिताजी का स्वास्थ्य बिगड़ता जा रहा है। वे दौड़ते हुए घर आ रहे थे, लेकिन पैरों के जूते दौड़ने में बाधा उत्पन्न कर रहे थे। अपने जूतों को हाथ में लेकर जब वे घर पहुँचे तब उनके पिताजी का देहावसान हो चुका था। इससे उन्हें गहरा धक्का लगा। तभी से उन्होंने जूते पहनने का त्याग कर दिया।

     

    सात्त्विक व्यापारी - श्री मल्लप्पाजी अष्टगे एक सफल व्यवसायी और ईमानदार कृषक थे। उनके पास २० एकड़ भूमि थी, जिसमें गन्ना, गेहूँ, ज्वार, मिर्च, मूंगफली आदि की खेती होती थी। वे साहूकार कहलाते थे। दूसरे किसानों को समय-समय पर पैसे तो देते थे, पर कभी भी उनसे ब्याज नहीं लेते थे। मूलधन के स्थान पर उस समय की प्रचलित कीमत पर ही उनसे फसल ले लिया करते थे। इस प्रकार वे एक प्रकार से किसानों की सहायता ही करते थे। एक बार ज्येष्ठ पुत्र महावीर अष्टगे ने नौकरी करने की इच्छा पिता के सामने रखी तो उन्होंने कहा- हम मालिक से नौकर बनेंगे क्या?' मल्लप्पा जी नौकरी के पक्षधर नहीं थे।

     

    विशेष प्रतिभा : चिकित्सा ज्ञान - उन्हें वानस्पतिक औषधियों का विशेष ज्ञान था। उनके हाथों से निर्मित की जाने वाली छोटे बच्चों की दवा तो जैसे रामबाण थी। ठंड के दिनों में यदि लोग रात्रि १२ बजे भी बच्चों को लेकर आ जाएँ, तो आप आलस को छोड़कर तुरंत कोट पहनकर, बैटरी लेकर जंगल में औषधि लेने चले जाते थे। अपने हाथों से दवा कूट-पीसकर तैयार करते, घर पर ही णमोकार मंत्र बोलकर बच्चों को दवा पिला देते थे। तब मरणासन्न बच्चे भी ठीक हो जाते थे, उनके हाथ में ऐसा जादू था।

     

    अरिहंत प्रभु की आराधना में तत्पर - पिताजी के स्वर्गवासी होने पर जिनालय को दिए जाने वाले दान में सागौन की लकड़ी से बड़े मंदिर की छत बनवाई थी। उसकी नक्कासी देखने योग्य थी। उस समय उसका खर्च ७००० रुपये आया था। पूजन के बर्तन चाँदी के एवं आरती सोने की बनवाई थी।

     

    साधु सेवा में तत्पर - साधु सेवा को आप अपना परम कर्त्तव्य मानते थे। एक समय उन्होंने नियम ले लिया कि ७० - ८० कि.मी. के आस-पास तक यदि दिगम्बर साधु विराजमान हों, तो मैं तीन या चार माह में एक बार गुरु दर्शन करने अवश्य जाऊँगा। कैसे भी जानकारी प्राप्त करके वह मुनि दर्शन को चले ही जाते थे।

     

    एक बार वे आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी महाराज को लाने पास के गाँव गए। लौटने में अचानक बीच मार्ग का नाला चढ़ गया। अब महाराज सदलगा नहीं आ पाएँगे, ऐसा विचार कर उन्होंने झट से आचार्य श्री महावीरकीर्तिजी को उठाकर नाला में प्रवेश कर दिया। वे बलशाली एवं वीर तो थे ही। नाले में कीचड़ होने से, उसमें पैर फंस जाने के बावजूद भी वे महाराजश्री को नाला पार कराने में सफल हो गए। किनारे पर खड़े नगरवासियों में हर्ष की लहर दौड़ गई।

     

    प्राप्त हो कैवल्यज्योति - एक बार अपने घर में पंच परमेष्ठियों को स्मृत कर अखंड दीपक जलाने का संकल्प ले लिया, जो २६ वर्ष तक अखंड जलता रहा। पश्चात् वह वैरागी हो मुनि बन गए।

     

    विषयों के प्रति उदासीनता - यूँ तो बचपन से ही उन पर धार्मिक संस्कारों का प्रभाव था। विवाह के छ: माह पूर्व मुनि बनने की भावना से वे घर से निकल गए थे। किन्तु उनके पिता श्री पारिसप्पाजी उन्हें ढूंढकर घर वापस ले आए और उनका विवाह कर दिया। गृहस्थावस्था में रहते हुए भी वे विषयों के प्रति उदासीन ही रहे। लगभग सन् १९५२/५३ में उन्होंने चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी के चरणों में मुनि बनने की भावना रखी थी। पर उन्होंने मना कर दिया। वे बोले, ‘पहले छोटे-छोटे बच्चों का दायित्व सँभालो, फिर देखना।' तब मल्लप्पाजी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के लिए निवेदन किया। उनकी छोटी उम्र को देखकर उन्हें शीलव्रत रूप अर्थात् एक पत्नी व्रत एवं पक्ष व पर्वादिक में ब्रह्मचर्य व्रत पालन करने का नियम दिया। नियम ग्रहण करके उन्होंने पुनः निवेदन किया कि आप हमें कुछ वैराग्य सूत्र दीजिए। तब आचार्य श्री शांतिसागरजी ने उन्हें कहा- ‘आत्मा भिन्न है, शरीर भिन्न है, इतना जानो बस।' अपने ही पुत्र ब्रह्मचारी विद्याधरजी की मुनि दीक्षा के बीस दिन बाद, लगभग २० जुलाई, १९६८ को जब मल्लप्पाजी सपरिवार अजमेर पहुँचे, तब तीसरे दिन मुनि श्री ज्ञानसागरजी का आहार उनके चौके में हुआ। उस दिन मल्लप्पाजी ने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया था। इस प्रकार उनका मन निर्ग्रन्थ दशा के लिए छटपटा रहा था।

     

    0029.jpgअंतत: बन ही गए मुनि - अपने द्वितीय पुत्र विद्याधर के मुनि बन जाने के बाद उन्होंने भी निर्ग्रन्थ पद को प्राप्त कर लिया। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी महाराज की परम्परा के तृतीय पट्टाचार्य वात्सल्यमूर्ति आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ को मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में मुनि दीक्षा ग्रहण की

    और नाम ‘मुनि श्री मल्लिसागरजी' रखा गया।

     

    साधना पथ पर हुए अग्रसर - उन्होंने दीक्षा के बाद गुरुजी से कुछ नियम माँगा। गुरुजी ने ८ दिन के लिए नमक त्याग का नियम दिया। उसके बाद उन्होंने जीवन में कभी नमक नहीं लिया। रसों में आप एकाध रस ही लेते थे। फलों में आप एक केला लेते थे। आपकी साधना बहुत श्रेष्ठ थी। ७० वर्ष की उम्र में भी वह एक दिन में ६५ कि.मी. तक चल लेते थे। वैयावृत्ति भी नहीं करवाते थे। उनका संहनन अच्छा था। उपवास के अगले दिन उन्हें पारणा करनी है, ऐसा विकल्प नहीं होता था। श्रावक जब शुद्धि का जल लेकर पहुँचते, तब उन्हें लगता था कि आहार को उठना है।

     

    ईसरी, बिहार में सन् १९८३ में आचार्य श्री विद्यासागरजी से चारित्र शुद्धि का व्रत (१२३४ उपवास) लिया। एक उपवास - एक आहार करते हुए लगभग सात-आठ वर्ष में कर्नाटक के उगार ग्राम, जिला बेलगाम में यह व्रत पूर्ण हुआ। वहाँ के श्रावकों ने मुनिश्रीजी के चारित्र शुद्धि व्रत के पूर्ण होने के उपलक्ष्य में बूंदी के १२३४ लाडू मंदिरजी में चढ़ाए। घी के १२३४ दीपक जलाए। बड़ी धूम-धाम से उत्सव मनाया। उन्होंने कर्मदहन के भी एक सौ छप्पन उपवास किए। वे प्रायः उपवास करते रहते थे जिनकी पृथक् से कोई गिनती ही नहीं है।

     

     

     

    0030 - Copy.jpgस्वयं तीर्थ बनने का पुरुषार्थ - भव्य जीव तीर्थ क्षेत्रों की वंदना स्वयं तीर्थ बनने के लिए करता है। मल्लप्पाजी ने भी अपने जीवनकाल में सिद्धक्षेत्र श्री सम्मेद शिखरजी की यात्रा तीन बार की। एक बार मातापिता के साथ, दूसरी बार पत्नी तथा बच्चों के साथ, तीसरी बार मुनि दीक्षा के बाद आचार्य श्री विद्यासागरजी के साथ पैदल की। इसके अलावा पावापुरजी, चंपापुरजी, मांगीतुंगीजी, गिरनारजी, प्रवचनरत मुनि श्री मल्लिसागरजी कुंथलगिरिजी आदि अनेक सिद्धक्षेत्रों की वंदना भी आपने मुनि अवस्था में की थी।

     

     

    0030.jpgजीवन रूपी मंदिर पर चढ़ाया समाधि का कलश  जीवन के अंत तक मुनि चर्या का निर्दोष पालन करते  हुए, शतभिषा नक्षत्र में मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५२१, विक्रम संवत् २०५१, ईस्वी सन् ०९ दिसंबर, १९९४ को श्री नेमिनाथ दिगंबर जैन मंदिर, शाहूपुरी, कोल्हापुर, महाराष्ट्र में आपकी समाधिस्थ मुनि श्री मल्लिसागरजी का अग्निसंस्कार समाधि जाग्रत अवस्था में हुई थी।

     

    सातिशय पुण्यशालिनी माँ: श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे - जिस प्रकार सभी वनों में गोशीर्ष चन्दन नहीं होता, सभी खदानों में हीरा नहीं निकलता, सभी दिशाओं से सूरज नहीं निकलता तथा सभी सरोवरों में सहस्रदल कमल नहीं खिलते, उसी प्रकार सभी माताएँ महापुरुषों को जन्म नहीं देतीं। कोई बिरली माता ऐसी होगी जो महापुरुषों को जन्म देने वाली होती है। उन्हीं बिरली माताओं में एक हैं माँ श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज आपको ‘सती श्रीमंती’ कहा करते थे।

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    उनका जन्म वीर निर्वाण संवत् २४४५, विक्रम संवत् १९७५, ईस्वी सन् १ फरवरी, १९१९ में ग्राम अक्कोळ, तालुका चिक्कोडी, जिला बेलगाम, कर्नाटक में हुआ था। पिता जमींदार भाऊसाहब कमठे एवं माता श्रीमती बहिनाबाई थीं। वे अपने माता-पिता की इकलौती सन्तान थीं। लौकिक शिक्षा मराठी माध्यम से कक्षा छठवीं तक प्राप्त की। श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे जब छ: माह की थीं, तभी उनके माता-पिता का प्लेग महामारी के कारण देहावसान हो गया था। उनका पालन-पोषण दादा-दादी ने किया था। दादा-दादी धार्मिक एवं बड़े वैभवशाली सम्पन्न गौड़ा जमींदार थे।

     

    आदर्श गृहिणी - आदर्श गृहिणी बनकर गृहस्थ जीवन का निर्माण करना स्त्री के जीवन का सर्वोच्च ध्येय होता है। आदर्श गृहिणी कुटुम्ब, समाज, देश और काल की भूषण मानी जाती है। माँ श्रीमती श्रीमंतीजी ऐसी ही एक आदर्श गृहिणी थीं। नित्यप्रति भगवान् जिनेन्द्र देव के दर्शन-पूजन करने के बाद ही वे भोजन आदि गृहस्थी वाले कार्य स्वयं करती थीं।

     

    उनके घर में कुँआ था, पड़ोस में ही बावड़ी थी और थोड़ी ही दूरी पर नदी भी थी। वह अपने हाथ से चक्की (हाथ वाली) चलाकर आटा तैयार करती थीं, सिर पर घड़े रखकर पानी भरकर लाती थीं, गोबर से घर-आँगन लीपती थीं, बच्चों को जहाँ अच्छे-अच्छे संस्कार देने में निपुण थीं, तो वहीं स्वादिष्ट व्यंजन बनाती थीं। दही मथकर मक्खन निकालतीं और तत्काल गर्म करके देशी घी बना देती थीं। सभी बच्चों को छाछ पीना अनिवार्य था। घर और खेत के कर्मचारियों का भी पूरा ध्यान रखती थीं। विशेषतया पूरणपोली, इडली, डोसा बनाती ही रहती थीं, क्योंकि विद्याधर को ये विशेष पसंद थे।

     

    स्वभाव - श्रीमती श्रीमंतीजी वात्सल्य की देवी और सदगुणों से परिपूर्ण गृहलक्ष्मी थीं। वह बहुत ही दयानिष्ठ, कलाकुशल, धर्मपरायणा, शीलवती एवं शांत स्वभावी महिला थीं। आपके मुख पर सदा प्रसन्नता एवं शांति झलकती रहती थी।

     

    अभिरुचि - माँ श्रीमती श्रीमंतीजी अष्टगे सात्त्विक और सुरुचिपूर्ण जीवनचर्या में सदा संलग्न रहती थीं। भजन गाना एवं अतिथि-संविभाग (चौका लगाना) करने में उनकी रुचि थी। उन्होंने अपने जीवनकाल में चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागरजी, आचार्य श्री देशभूषणजी, आचार्य श्री सुबलसागरजी, आचार्य श्री धर्मसागरजी, आचार्य श्री ज्ञानसागरजी, आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी आदि को आहार दान दिया। यात्रा के समय जहाँ कहीं भी उन्हें मुनिराजों को आहार देने का अवसर प्राप्त होता तो वह कभी नहीं चूकती थीं। यहाँ तक कि विद्याधर के गर्भावस्था में स्वप्न तक में भी उन्होंने चारण ऋद्धिधारी दो मुनिराजों को आहार दिया था।
     

    संस्कार प्रदात्री - ‘एक माँ सौ उपाध्यायों से भी श्रेष्ठ होती है। बचपन में माँ के द्वारा किया गया संस्कारों का बीजारोपण भविष्य में एक विशाल वट वृक्ष के रूप में परिवर्तित होता है। वह एक कुशल गृहिणी होने के साथ एक संस्कारदात्री माँ भी थीं। अपने बच्चों को धार्मिक संस्कारों के साथ व्यवहारिक जीवन जीने की कला एवं नैतिक शिक्षा भी देती थीं। प्रात:काल देवदर्शन के बाद ही बच्चों को दूध आदि देती थीं। अपने खेत में पैदा हुए धान्य जैसे चना, गेहूँ, मूंग, मोठ, धान्य आदि में से अच्छे-अच्छे धान्य आदि बीनकर अतिथि–संविभाग के लिए रख लेती थीं।

     

    मुनिराज के आहार के बाद ही बच्चों को भोजन मिलता था। बच्चे आकुलित भी हो जाएँ, तो भी उन्हें मुनिराज के आहार के पहले भोजन नहीं देती थीं। कच्ची माटी को पकाकर घट का रूप देना उन्हें खूब आता था। वह बच्चों को बड़े प्यार से कहती थीं कि देखो बेटा मुनिराज परमेष्ठी होते हैं। उनके आहार के बाद आपको सब चीजें मिलेंगी। आप लोग दरवाजा के पास बैठकर आहार देखना और बिल्ली, कुत्ता आदि किसी भी जानवर को आने नहीं देना। वह बच्चों से आहार के बाद मुनिराजों को पिच्छी दिलवातीं, उनके चरणों में पूजन एवं आरती करवाती थीं।

     

    इतना ही नहीं वह बच्चों को प्रतिकूल परिस्थिति में सहनशील बनने की शिक्षा भी देती थीं। एक बार बालक विद्याधर अपने बाल सखाओं के साथ खेलकर घर वापस आए और माँ से बोले- ‘माँ! आज तो मैं बहुत थक गया हूँ। आप मेरे पैर दबा दो।' माँ ने हँसकर जवाब दिया- ‘बेटा! क्या बूढा हो गया जो इतना-सा दर्द भी सहन नहीं कर पाता। सहन करना सीखो।

     

    माँ की दी गई दृढ़ शिक्षा का फल है कि आज आचार्यश्रीजी हर प्रकार के सुख-दुःख एवं रोगादि बाईस परीषहों को समता के साथ सहन कर रहे हैं। वह कहते हैं- ‘अपना दुःख कहा नहीं, सहा जाता है। और दूसरों का दुःख सहा नहीं, कहा जाता है।'

     

    संस्कारों के बीज तुम बोते चलो, कभी न कभी फूल आएँगे।

    जो छोटे से बीज अभी दिख रहे, आगे वे वट वृक्ष बन जाएँगे।।

     

    संयम सोपान पर बढ़ाए कदम - श्रीमती श्रीमंतीजी ने अपनी दोनों पुत्रियों- शांता तथा सुवर्णा एवं पति श्री मल्लप्पाजी के साथ ही माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन्, ०५ फरवरी, १९७६ को आचार्य श्री धर्मसागरजी से मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में आर्यिका दीक्षा ली। आपका नाम आर्यिका श्री ‘समयमतिजी' रखा गया। दोनों पुत्रियों के नाम क्रमशः आर्यिका श्री नियममतिजी और आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी रखा गया एवं पति का नाम मुनि श्री मल्लीसागरजी हुआ। उस दिन कुल ग्यारह दीक्षाएँ हुईं, इनमें से चार दीक्षार्थी एक ही परिवार (अष्टगे परिवार, सदलगा) के थे।

     

     

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    संयम साधना - दीक्षा के दूसरे दिन से ही उन्होंने नमक का आजीवन त्याग कर दिया था। आपने उपवास पूर्वक जिनगुण संपत्ति, कर्म दहन, णमोकार मंत्र, सम्यक्त्व पच्चीसी, सहस्रनाम, तत्त्वार्थ सूत्र आदि व्रत किए। गृहस्थ अवस्था में भी अष्टमी-चतुर्दशी को वे प्रायः उपवास करती थीं।

     

    संयमी जीवन की सफलता समाधि - ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी, पुनर्वसु नक्षत्र, रविवार, वीर निर्वाण संवत् २५०९, विक्रम संवत् २०४१, ईस्वी सन् ३ जून, १९८४, प्रातः ९.३० पर ग्राम कोछोर, जिला सीकर, राजस्थान में लगभग ६५ साल की उम्र में आपने संयमी जीवन को सफल करते हुए समाधिमरण किया। आपने समाधिमरण के १५ दिन पूर्व ही स्वेच्छा से अन्न का त्याग कर दिया था। मरण से दो दिन पूर्व ही यम सल्लेखना अर्थात् चारों प्रकार के आहार जल का त्याग कर दिया था। आचार्य श्री ज्ञानसागरजी से दीक्षित छुल्लक श्री विनयसागरजी थे। इन्होंने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज द्वारा दीक्षित आचार्य कल्प मुनि श्री विवेकसागरजी द्वारा दीक्षा ग्रहण कर मुनि श्री विजयसागरजी नामकरण पाया था। उन्हीं मुनि श्री विजयसागरजी के चरण सान्निध्य में पूर्णतः जागृति के साथ णमोकार मंत्र का स्मरण करते-करते उनका समाधिपूर्वक मरण हो गया।

     

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    संसार के सर्वस्य त्याग, समस्त प्रेम, सर्वश्रेष्ठ सेवा और सर्वोत्तम उदारता 'माँ' नामक अक्षर से भरी हुई है। धन्य है ऐसी माँ ! जो युग प्रतीक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज जैसे महापुरुष को जन्म देकर जन-जन के कल्याण में सहभागी बन गई। श्री नानूलाल, राजकुमारजी जैन, सर्राफ, जयपुर, राजस्थान को आर्यिका समयमतिजी का सान्निध्य एवं सेवा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। आर्यिका समयमतिजी को नज़दीक से जानकर उन्होंने उनका संक्षिप्त चरित्र संस्मरण रूप में लिखा है। इसमें वह लिखते हैं- ‘लोग नारे लगाते हैं कि हर माँ का बेटा कैसा हो? विद्यासागर जैसा हो। पर माँ भी कैसी हो? विद्यासागर की माँ जैसी हो, यह भी ख्याल रखना होगा।'

     

    सुकुल संवर्द्धक अग्रज : महावीरजी अष्टगे

    बड़े भाई श्री महावीरजी अष्टगे परिवार के इकलौते ऐसे सदस्य हैं, जिन्होंने सातिशय पुण्यशाली परिवार के वंश की परंपरा को अग्रसर किया है। अष्टगे परिवार के कुल आठ सदस्यों में से एक आपने ही सद्दगृहस्त होने की भूमिका निभाई। शेष सभी सदस्य मोक्ष पथ के अनुगामी हो गए। भाई श्री महावीरजी का जन्म ज्येष्ठ कृष्ण चतुर्दशी, मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २४६९, विक्रम संवत् २०००, ईस्वी सन् १ जून, १९४३ को हुआ था। आपने स्नातक (बी.ए. अंग्रेजी) तक शिक्षा प्राप्त की। आपका विवाह शमनेवाड़ी ग्राम, जिला बेलगाम, कर्नाटक की सुसंस्कारित कन्या अलका देवी से वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् २० दिसंबर, १९७५ में हुआ। आपकी बेटी दीपिका एवं बेटा अक्षय अष्टगे दो संतानें हैं। कृषि एवं ज्वेलरी का व्यापार होता है।

     

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    महावीरजी अष्टगे बड़े शांत, गंभीर एवं सरल स्वभावी हैं। जब आपके परिवार के सात सदस्य (माँ, पिता, तीन भाई, दो बहनें) वैरागी होकर मोक्षमार्ग के प्रतीक बन गए, तब आप भी विरक्त होकर घर छोड़ना चाहते थे, पर कर्म का योग कहें अथवा परिस्थितियों की विवशता, आपको गृहस्थ बनना पड़ा। वह आज गृहस्थी में जल से भिन्न कमल की भाँति रह रहे हैं। भरत चक्रवर्ती की भाँति वैराग्य धारण करने को उनका मन आतुर है।

     

    0036.jpgमहावीर भैयाजी से वार्ता - श्रावण कृष्ण द्वादशी, गुरुवार, २० जुलाई, २०१७ के दिन महावीर भैयाजी से गुरुचरणानुरागियों को साक्षात्कार करने का अवसर प्राप्त हुआ। उन बिंदुओं को यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं-

    प्रश्नकर्ता - जब सारा परिवार विरक्त होकर चला गया तब आपको कैसी अनुभूति हुई ?

    महावीरजी - अनुभूति क्या-आधा पागल हो गया था। जिसकी जो सलाह रहती, ‘हाँ' कर देता था, बस।

    प्रश्नकर्ता - फिर आप कैसे सँभले ?

    महावीरजी - सँभलना क्या था? मन का संतुलन ही बिगड़ गया था। हमें सँभालने हमारी छोटी बुआ ‘लक्ष्मीबाई' हमारे पास आ गई थीं। वह सदलगा से ४ किलोमीटर की दूरी पर ही शमनेवाड़ी नामक गाँव में रहती थीं। उन्होंने हमें सँभाला और २२ दिसंबर, १९७५ में हमारा विवाह अपनी बेटी 'अलका' से करा दिया। 

    प्रश्नकर्ता  - बुआ की बेटी से ?

    महावीरजी - हाँ, हमारे यहाँ कर्नाटक में मामा-बुआ की बेटा-बेटियों में विवाह का रिवाज है। इसे दोष नहीं माना जाता।

    प्रश्नकर्ता - आपकी रुचि क्या है ? आपको क्या पसंद है ?

    महावीरजी - अभी तो हमें घर छोड़ना पसंद है। सभी निकल गए। हमको यह खटकता है कि हम अभी तक नहीं निकल पा रहे हैं। क्या करें ? हम दीक्षा लेना अभी चाह रहे थे, पर सन् २०१२ में हमारे सिर पर, पेड़ से टूटकर सूखा नारियल गिर गया था, जिससे हमें सिर का ऑपरेशन कराना पड़ा। अतः दीक्षा नहीं ले पा रहा हूँ।

    प्रश्नकर्ता - इस समय सारा विश्व आचार्यश्रीजी का ५०वाँ संयम स्वर्ण महोत्सव मना रहा है। आपको क्या अनुभूति हो रही है ?

    महावीरजी - हमें गर्व होता है कि उनके परिवार में मेरा जन्म हुआ। जब कभी भी हमारा परिचय आचार्य श्री विद्यासागरजी के गृहस्थावस्था के भाई के रूप में कराया जाता है तो हमें बहुत अच्छा लगता है।

    प्रश्नकर्ता - बस एक अंतिम प्रश्न। सुना है कि आपने अपना मूल घर जहाँ पर महावीर, विद्याधर, शांता, सुवर्णा, अनंतनाथ, शांतिनाथ, आदि खेले-कूदे, बड़े हुए, माता-पिता से धार्मिक संस्कार पाए। वह स्थान दान कर दिया। वहाँ पर १00८ श्री शांतिनाथ जिनालय का निर्माण करवा दिया। इसकी भूमिका कैसी बनी ? आपकेमन में यह भाव कैसे आया ?

    महावीरजी - घर को मंदिर बनाने का भाव तो दिल्ली के एक सेठ श्री महावीरप्रसादजी माचिसवालों के मन में आया था। वह सेठ जीवन में पहले कभी मंदिर नहीं जाते थे। सन् १९७९ एवं १९८४ में मुनि श्री मल्लिसागरजी का वर्षायोग शक्ति नगर, दिल्ली में हुआ। मुनिश्री की तप-साधना सुनकर वह बड़े प्रभावित हुए। उन्होंने मुनिश्री से रोज अभिषेक और पूजन करने का नियम ले लिया। एक दिन वह नेमिनाथ जिनालय, कोल्हापुर में विराजित मुनि श्री मल्लिसागरजी महाराज के दर्शन एवं आशीर्वाद ग्रहण कर स्तवनिधि, कुंभोज बाहुबली होते हुए सदलगा पधारे थे। हमारे घर में प्रवेश करते ही गद्गद हो उठे। हमसे बोले, आपके घर में प्रवेश कर मुझे ऐसा लगा जैसे कि मैंने एक जैन मंदिरजी में ही प्रवेश कर लिया हो। मैं अब इस घर को गृहस्थी का घर नहीं बनाकर, परम पावन तीर्थ बनाना चाहता हूँ। आपको मुझे सहयोग देना होगा अर्थात् घर छोड़ना होगा। हमने उन्हें तुरंत हाँ कर दिया और कहा, ये तो हमारा परम सौभाग्य है। जब मेरे पूरे परिवार ने घर छोड़कर संन्यास ले लिया, तो क्या मैं घर नहीं छोड़ सकता ? हमारे पूर्व जन्म का कर्म था जो मैं यहाँ अटका हूँ। मैं भी एक दिन इसी मार्ग पर आने वाला हूँ।

     

     

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    हमसे स्वीकृति प्राप्त कर उन्होंने कार्तिक शुक्ल तृतीया, रविवार, वीर निर्वाण संवत् २५१४, विक्रम संवत् २०४४, ईस्वी सन् २५ अक्टूबर, १९८७ को मुनि श्री मल्लिसागरजी के पास कोल्हापुर जाकर के एवं जनवरी, १९८८ में श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र क्षेत्रपालजी, ललितपुर, उत्तरप्रदेश में विराजित आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज के पास भी जाकर के इस पवित्र कार्य हेतु आशीर्वाद प्राप्त किया।

     

    इस तरह सेठ महावीरप्रसादजी माचिसवाले, दिल्ली एवं दिल्ली के कुछ अन्य श्रावकगणों के सहयोग से मार्गशीर्ष शुक्ल दशमी, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५२०, विक्रम संवत् २०५०, ईस्वी सन् २३ दिसंबर, १९९३ को शिलान्यास होकर हमारा घर आज शिखरबद्ध एवं अष्टधातु से निर्मित श्री शांतिनाथ भगवान् की मनोज्ञमूर्ति से प्रतिष्ठित होकर ‘१००८ श्री शांतिनाथ जिनालय' के रूप में परिणत हो गया। पंचकल्याणक हेतु समाज के निवेदन पर आचार्य श्री विद्यासागरजी का आशीर्वाद प्राप्त हुआ। माघ शुक्ल प्रतिपदा से सप्तमी वीर निर्वाण संवत् २५२९, विक्रम संवत् २०५९, ईस्वी सन् २ से ८ फरवरी, २००३ में आचार्य श्री विद्यासागरजी के शिष्य मुनि श्री नियमसागरजी आदि १३४ पिच्छीधारी साधु एवं आर्यिकाओं के सान्निध्य में यहाँ का पंचकल्याणक बाल ब्रह्मचारी प्रदीप भैया, अशोकनगर, मध्यप्रदेश के प्रतिष्ठाचार्यत्व में बड़ी धूमधाम से संपन्न हुआ। और हमारा घर आज ‘कल्याणोदय तीर्थ' के रूप में परिणत हो गया। हम अपने घर को मंदिरजी के लिए त्यागकर बहुत हर्ष एवं गौरव का अनुभव करते हैं। देश भर के लोग आचार्यश्रीजी के इस जन्म स्थान को देखने आते हैं और यहाँ जिनालय देखकर खुश हो जाते हैं।

     

    आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के घर में जिन प्रमुख स्थानों से उनकी यादें जुड़ी हुई हैं, उन स्थानों को एवं उनके द्वारा उपयोग की गई वस्तुएँ आज भी वहीं सुरक्षित सँजोकर रखी गई हैं। नीचे वाला भाग संग्रहालय बनाकर वैसा का वैसा ही रखा है।

     

     

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    0039.jpgपथानुगामिनी अनुजा : शांताजी अष्टगे

    नाम - बालब्रह्मचारिणी शांताजी।

    जन्म - वीर निर्वाण संवत् २४७६, विक्रम संवत् २००६, ईस्वी सन् १९४९।

    शिक्षा - सातवीं, माध्यम कन्नड़। भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत।

    अभिरुचि - अतिथि-सत्कार एवं दान देना।

    ब्रह्मचर्य व्रत - सवाई माधोपुर, राजस्थान, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् ०८ अप्रैल, १९७५ में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से।

    सातवीं प्रतिमा - खतौली, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में अक्षय तृतीया के दिन आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से।

    आर्यिका दीक्षा - मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश, माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ में आचार्य श्री धर्मसागरजी से।

    नामकरण - आर्यिका श्री नियममतिजी।

    वर्तमान में - सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारिणी शांताजी, श्राविकाश्रम, तुकोगंज, इंदौर, साधनारत मध्यप्रदेश।

    एक दिन घर पर चल रहे सामूहिक स्वाध्याय दौरान बहन शांता एवं सुवर्णा ने विद्याधर से पूछा- ‘भैया! इतनी सारी किताबें (ग्रंथ) हम कहाँ रखेंगे?' विद्याधर ने कहा- ‘कहीं नहीं', और हृदय पर हाथ रखकर बोले-‘यहाँ रखेंगे। अल्पवय में विद्याधर ने अपनी बहनों को शिक्षा दी कि ग्रंथों को ग्रंथालय की शोभा नहीं, हृदय की शोभा बनाना चाहिए।

     

    बहनों ने बताया, विद्याधर भैया रात्रि में हम लोगों को तत्त्वार्थ सूत्र सिखाते थे। यदि उन्हें किसी दिन मंदिर से आने में देरी हो जाती और हम लोग सो जाते, तब वे माँ से पूछते कि हम लोगों ने पाठ सुनाया अथवा नहीं। यदि नहीं, तो वे उसी समय हमें जगाकर बैठा देते थे। वे उस दिन का पाठ उसी दिन तैयार करवाते थे।

     

    0040.jpgपथानुगामिनी अनुजा : सुवर्णाजी अष्टगे

    नाम - बाल ब्रह्मचारिणी सुवर्णाजी।

    जन्म - वीर निर्वाण संवत् २४७९, विक्रम संवत् २००९, ईस्वी सन् १९५२।

    शिक्षा - दसवीं, माध्यम मराठी।

    भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत।

    अभिरुचि - भजन गुनगुनाना एवं परिसर को सुंदर रखना।

    ब्रह्मचर्य व्रत - सवाई माधोपुर, राजस्थान, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् ०८ अप्रैल, १९७५ में आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज से।

    सातवीं प्रतिमा - खतौली, जिला मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश में अक्षय तृतीया के दिन आचार्य श्री धर्मसागरजी महाराज से।

    आर्यिका दीक्षा - मुजफ्फरनगर, उत्तरप्रदेश, माघ शुक्ल पंचमी, रेवती नक्षत्र, वीर निर्वाण संवत् २५०३, विक्रम संवत् २०३३, ईस्वी सन् ०५ फरवरी, १९७६ में आचार्य श्री धर्मसागरजी से।

    नामकरण - आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी।

    वर्तमान में - सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारिणी सुवर्णाजी, श्राविकाश्रम, तुकोगंज, इंदौर, साधनारत मध्यप्रदेश।

    बहन सुवर्णा के जन्म से दस दिन पूर्व पिताजी ने २१ तोला सोना खरीदा था, अतः आपका नाम सुवर्णा रखा गया। दोनों बहनें उम्र में छोटी थीं। शांताजी की उम्र १२ वर्ष एवं सुवर्णाजी की उम्र ९ वर्ष थी। व्रत करने की जिद करने लगीं। तब माँ ने कहा- ‘अभी तुम छोटी हो उपवास नहीं बनेंगे। एकासन कर लिया करो।' माँ ने अपने ममता भरे भावों से समझाया कि एकासन का मलतब सुबह एक बार पूरा भोजन कर लो एवं शाम को पूड़ी, बूंदी, जलेबी आदि तले पदार्थ ले लिया करो। एक दिन विद्याधर भैया ने उन्हें एकासन में शाम को भोजन करते देख लिया, तो बोले- ‘ऐसा भी कोई एकासन होता है क्या ? ऐसा तो मैं हमेशा कर सकता हूँ। एक बार भोजन करना और शाम को मुँह में कुछ भी नहीं डालना। वही एकासन कहलाता है। इसके बाद से दोनों बहनों ने सही एकासन व्रत करना शुरू कर दिया।

     

    0041.jpgअनुगामी अनुज : अनंतनाथजी अष्टगे

    नाम - बाल ब्रह्मचारी अनंतनाथजी जैन अष्टगे।

    जन्म - भाद्रपद शुक्ल नवमी, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत २४८३, विक्रम संवत् २०१३, ईस्वी सन् १३ सितंबर, १९५६, दोपहर १२ बजे।

    शिक्षा - हाई स्कूल, माध्यम मराठी।

    भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत।

    ब्रह्मचर्य व्रत - श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी, राजस्थान वैशाख कृष्ण सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५०१, विक्रम संवत् २०३२, ईस्वी सन् २ मई, १९७५ ।

    सातवीं प्रतिमा - धौलपुर, राजस्थान।

    क्षुल्लक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र, सोनागिरिजी, जिला दतिया, मध्यप्रदेश, मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई. सन् १८ दिसंबर, १९७५।

    एलक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र कुण्डलपुरजी, जिला दमोह, मध्यप्रदेश, कार्तिक शुक्ल नवमी, शनिवार, वीर निर्वाण संवत् २५०४, विक्रम संवत् २०३४, ई. सन् १९ नवंबर, १९७७।

    मुनि दीक्षा - श्री वर्णीभवन, मोराजी, सागर, मध्यप्रदेश, वैशाख कृष्ण अमावस्या, मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २५०७, विक्रम संवत् २०३७, ईस्वी सन् १५ अप्रैल, १९८0।

    नामकरण - मुनि श्री योगसागरजी महाराज।

    दीक्षा गुरु - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज।

     

    विद्याधर ने अपने छोटे भाई-बहनों को बचपन में णमोकार मंत्र एवं भूत, वर्तमान एवं भविष्य तीनों कालों के चौबीस तीर्थंकरों के नाम और विदेह क्षेत्र के तीर्थंकरों के नाम भी याद करा दिए थे। मुनि श्री योगसागरजी कहते हैं कि बचपन से ही वे हमारे गुरु थे, और आज भी हैं।

     

    0042.jpgअनुगुणी अनुज : शांतिनाथजी अष्टगे।

    नाम - बाल ब्रह्मचारी शांतिनाथजी जैन अष्टगे ।

    जन्म - आश्विन शुक्ल पूर्णिमा (शरद पूर्णिमा), सोमवार, वीर निर्वाण संवत् २४८४, विक्रम संवत् २०१५, ई. सन् २७ अक्टूबर, १९५८, समय २ से २.३० के बीच ।

    शिक्षा - हाई स्कूल, माध्यम मराठी।

    भाषा ज्ञान - कन्नड़, मराठी, हिन्दी, संस्कृत।

    ब्रह्मचर्य व्रत - श्री दिगंबर जैन अतिशय क्षेत्र श्री महावीरजी ,राजस्थान, वैशाख कृष्ण, सप्तमी, शुक्रवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई.सन् २ मई, १९७५।

    सातवीं प्रतिमा - सवाई माधोपुर, राजस्थान क्षुल्लक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र सोनागिरिजी, जिला दतिया, मध्यप्रदेश मार्गशीर्ष शुक्ल पूर्णिमा, गुरुवार, वीर निर्वाण संवत् २५०२, विक्रम संवत् २०३२, ई. सन् १८ दिसंबर, १९७५।

    एलक दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी, जिला छतरपुर, मध्यप्रदेश, कार्तिक कृष्ण अमावस्या (दीपावली), मंगलवार, वीर निर्वाण संवत् २५०५, विक्रम संवत् २०३५, ई. सन् ३१ अक्टूबर, १९७८।

    मुनि दीक्षा - श्री दिगंबर जैन सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिजी, छतरपुर, मध्यप्रदेश, चैत्र कृष्ण षष्ठी, शनिवार, वीर निर्वाण संवत् २५०६, विक्रम संवत् २०३६, ई. सन् ०८ मार्च, १९८0।

    नामकरण - मुनि श्री समयसागरजी महाराज।

    दीक्षागुरु - आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज।

    एक दिन शांतिनाथ (मुनि श्री समयसागरजी) खड़े-खड़े मूंगफली छील रहे थे। उसके दानों के लाल छिलकों को मोड़ते हुए फैंक मार कर उड़ा रहे थे। सफेद दाना हाथ में लिए थे। तभी विद्याधर ने पूछा- ‘क्या कर रहे हो?' शांतिनाथ ने कहा- ‘शरीर और आत्मा को अलग कर रहे हैं, भैया!' फिर सफेद दाने को दिखाकर बोले- ‘देखो यह आत्मा है...।

     

    0043.jpgअनन्य बाल सखा - मारुति लिंगायत

    विद्याधर के बचपन के अनन्य मित्र मारुति हैं। इनका जन्म सन् १९४०, सदलगा ग्राम, जिला बेलगाम (बेलगावी), कर्नाटक में हुआ था। इनका परिवार अष्टगे परिवार के खेत में बटिया से काम करता था। वे अष्टगे परिवार के सदस्य की भाँति थे। विद्याधर से उम्र में बड़े होकर भी स्कूल में देरी से प्रवेश लेने के कारण कक्षा एक से नवमी तक विद्याधर के साथ ही पढ़े। आठवीं एवं नवमी कक्षा सदलगा में नहीं होने से दोनों मित्र पाँच किलोमीटर की दूरी पर स्थित बेड़कीहाळ गाँव में साइकिल से जाते थे। बचपन से लेकर आज तक दोनों की मित्रता का रिश्ता वैरागी भावों की गोंद से जुड़ा हुआ है। जन्म से लिंगायत जाति के होकर भी आज वे कर्म से जैन हैं। दोनों मित्रों ने १४ वर्ष की उम्र में लग्न (शादी) तक के लिए एक साथ ब्रह्मचर्य व्रत लिया था। एक मित्र धर्म ध्वजा को फहराने वाले जिनशासन के नायक बन गए और दूसरा मित्र अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए मन में मुनिपने का भाव सँजोए सदलगा गाँव में ही धार्मिक जीवनयापन कर रहे हैं।

     

    विद्याधर के घर छोड़ने में सहभागिता से लेकर दीक्षा पर्यंत तक की सारी गतिविधियों के जानकार मारुति ही रहे हैं। ब्रह्मचारी विद्याधरजी अपने भावों के ऊर्ध्वगमन करने से लेकर चारित्र के आरोहण तक की सारी जानकारी पत्रों के माध्यम से उन्हें भेजते थे। स्वर्णिम इतिहास को रचने वाले लगभग २०० पत्र आज इस युग के स्वर्णिम दस्तावेज़ बन चुके हैं। मित्र विद्याधर की मुनि दीक्षा के बाद मारुति उनके दर्शन करने अष्टगे परिवार के साथ जुलाई, सन् १९६८ में अजमेर गए थे। सम्पूर्ण अष्टगे परिवार एवं मारुति वहाँ पर १५ दिन ठहरे थे। इसके बाद सन् १९६९, केशरगंज, अजमेर, राजस्थान में चातुर्मासरत मुनि श्री विद्यासागरजी के दर्शन करने वह पुनःगए और ढाई महीने तक रहे। स्वयं के लिए मुनि दीक्षा की प्रार्थना भी उन्होंने की थी। तब मुनि श्री विद्यासागरजी ने उन्हें आजीवन ब्रह्मचर्य व्रतपूर्वक धर्ममय जीवन बिताने को कहा। तभी उन्होंने आचार्य श्री ज्ञानसागरजी एवं मुनि श्री विद्या सागरजी के समक्ष आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण कर लिया था। घर वापस आने पर परिजनों ने विवाह के लिए आग्रह किया पर वह दृढ़ी बने रहे। अपने सम्यक्त्व को एवं ब्रह्मचर्य व्रत को नहीं छोड़ा। आठ वर्ष बाद वह, सन् १९७७ में कुण्डलपुर आचार्यश्री के दर्शन करने गए। इसके बाद से वे प्राय:कर प्रतिवर्ष आचार्य श्री विद्यासागरजी के दर्शन करने जाते हैं। ५ अक्टूबर, २०१७ में जब वह रामटेक दर्शन करने गए, तब आचार्यश्रीजी ने उन्हें घर पर ही समाधि की साधना करने की प्रेरणा दी। अपने मित्र को अपने गुरु के रूप में पाकर वे गद्गद हो उठते हैं।

     

    0045.jpgउपसंहार

    परिवार एक ऐसा उपवन है, जिसमें विविध रंग, रूप और गंध वाले पुष्प खिलते हैं। परंतु घर का मुखिया उन्हें माली की भाँति सजाकर, तराशकर रखता है। त्याग, क्षमा, दया, सामंजस्य और सहानुभूति के सूत्रों के साथ अपनी संस्कृति एवं संस्कारों को पीढ़ी-दर-पीढ़ी हस्तांतरित करता है। अष्टगे परिवार के सौभाग्य का क्या कहें ? संस्कारों की ऐसी कौन-सी मिट्टी और कौन-सा खाद-पानी होगा, जिस कारण यह महिमाशाली पूरा-का-पूरा परिवार धार्मिकता के रंग में रंगा हुआ है। तभी तो एक परिवार के सात भव्यात्माओं ने मोक्ष पथ पर आरूढ़ होकर अपना मार्ग प्रशस्त किया।

     

    युगों-युगों तक इस परिवार की गौरवगाथा गाई जाएगी,

    जिसने बचपन में ही विद्याधर की हृदयभूमि में

    धर्माचरणरूपी फूलों का ऐसा पौधा रोपा, जो आज

    श्रमणत्व का वटवृक्ष बनकर लहलहा रहा है।

     


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    बहुत ही सुंदर तरह से आचार्य श्री के बचपन की और उनके परिवार के बारे मे बताया गया। इससे जानने को मिलता है कि विद्याधर और उनका परिवार कैसे जन्म से ही धर्म प्रिय थे।

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