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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पाठ ५ - महत् व्यक्तित्व

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    जिनागम में श्रमणों की आचार संहिता का वर्णन करने वाले अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं। एक ओर जब उन ग्रंथों का अध्ययन किया जाता है, और दूसरी ओर चरित्रनायक आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज की निर्दोष चर्या का अवलोकन किया जाता है, तब ऐसा प्रतीत होता है, मानो आचार्यश्रीजी मुनियों के आचरण को बताने वाले ग्रंथों की जीवंत प्रतिलिपि हों। प्रस्तुत पाठ में, आगम में कहे गए २८ मूलगुणों में गर्भित, पाँच महाव्रतों के पालन करने से बना है। जिनका व्यक्तित्व, ‘महत्’ ऐसे महापुरुष आचार्य श्री विद्यासागरजी के महाव्रत संबंधी कुछ विशिष्टता ग्राही प्रसंगों को दर्शाया जा रहा है।

     

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    जिन शासन में दिगंबर साधु ही मुक्ति का अधिकारी है, परंतु केवल दिगंबर वेष धारण कर लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं कहला सकता। आगम में कहे गए २८ मूलगुण उनके जीवन में उद्घाटित होना चाहिए। जिस प्रकार ऑक्सीजन के बिना प्राणियों का जीवन नहीं ठहर सकता, ठीक उसी प्रकार २८ मूलगुणों के बिना श्रमणत्व नहीं ठहर सकता। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ऐसे ही श्रमण हैं, जिनके संपूर्ण व्यक्तित्व में ये २८ मूलगुण तिल में तेल की भाँति समाए हुए हैं। इन मूलगुणों से संबंधित आचार्यश्रीजी के जीवन के प्रेरणादायी कुछ प्रसंग, क्रमशः आगे के पाँच पाठों तक द्रष्टव्य हैं।

     

    जिन शासन में दिगंबर साधु ही मुक्ति का अधिकारी है, परंतु केवल दिगंबर वेष धारण कर लेने मात्र से कोई श्रमण नहीं कहला सकता। आगम में कहे गए २८ मूलगुण उनके जीवन में उद्घाटित होना चाहिए। जिस प्रकार ऑक्सीजन के बिना प्राणियों का जीवन नहीं ठहर सकता, ठीक उसी प्रकार २८ मूलगुणों के बिना श्रमणत्व नहीं ठहर सकता। आचार्य श्री विद्यासागरजी महाराज ऐसे ही श्रमण हैं, जिनके संपूर्ण व्यक्तित्व में ये २८ मूलगुण तिल में तेल की भाँति समाए हुए हैं। इन मूलगुणों से संबंधित आचार्यश्रीजी के जीवन के प्रेरणादायी कुछ प्रसंग, क्रमशः आगे के पाँच पाठों तक द्रष्टव्य हैं।

     

    निर्वाणसारथी - २८ मूलगुण

    6. आगम की छाँव

     

    कर्मों को धोकर साधना में लगने वाला साधु है।

    साधु माने सज्जनता का व्यवहार करने वाला, भलाई करने वाला।

     

    मूलानि च तानि................वर्तमानः परिगृह्यते।

    साधुओं के मूलभूत जो गुण हैं वे मूलगुण कहलाते हैं।‘मूल' शब्द यहाँ प्रधान अर्थ में एवं 'गुण' शब्द आचरण अर्थ में ग्रहण किया गया है। मुनियों के प्रधान आचरणों को मूलगुण कहा गया है।

     

     

    मूलगणों के नाम -

    पाँच महाव्रत - अहिंसा, सत्य, अस्तेय (अदत्त-परित्याग), ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह (असंग) महाव्रत।

    पाँच समिति - ईर्या, भाषा, एषणा, आदान-निक्षेपण एवं प्रतिष्ठापन (उत्सर्ग, मल-मूत्र आदि का त्याग) समिति।

    पाँच इन्द्रिय निरोध - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु एवं श्रोत्र (कर्ण) इन्द्रिय निरोध।

    षट् आवश्यक - सामायिक (समता), स्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान एवं कायोत्सर्ग (व्युत्सर्ग/तनु विसर्ग)।

    शेष सात गुण - केशलोंच, आचेलक्य (निग्रंथ), अस्नान, क्षिति (भूमि) शयन, अदंतधावन (घर्षण), स्थितिभोजन (खड़े  होकर भोजन) एवं  एकभक्त (एक बार भोजन)।  

                                

    आचार्यश्री का भाव 

    • २८ मूलगुणों का अच्छे से पालन करना साधु का पहला कर्तव्य है। आगम में मूलगुणों को जड़ (नीव) कहा है। इन्हीं का निर्दोष पालन करने के लिए स्वाध्याय किया जाता है।
    • जो व्यक्ति मूलगुणों एवं आवश्यकों में कमी रखता है और बड़ेबड़े ग्रंथों का स्वाध्याय करता है, यह ठीक नहीं है। पहले अपने आवश्यकों एवं मूलगुणों का पालन करो, फिर बाद में बड़े-बड़े ग्रंथों का स्वाध्याय करो।
    • मूलगुण सदोष हों, उत्तरगुण निर्दोष हों, तो यह भी ठीक नहीं है। पहले मूलगुणों का निर्दोष पालन हो, बाद में उत्तरगुणों की बात करें। उदाहरणार्थ स्टैंड फैन होता है, जिसका स्टैंड नहीं घूमता । फैन (पंखा) बस घूमता है, हवा करता रहता है। उसी प्रकार मूलगुण रूपी स्टैंड स्थिर रहता है और उत्तरगुण रूपी पंखे से (आत्म संतुष्टि की) हवा चारों ओर प्राप्त होती रहती है।
    • तप, उपवास भले ही न हो, परन्तु २८ मूलगुणों की पूर्णता होनी ही चाहिए।
    • जैसे बैंक में मूलधन जब रखा, तब से ही ब्याज मिलने लगता है। उसी प्रकार मूलगुण के होते ही संयमलब्धि (विशुद्धि) स्थान बढ़ते हैं, और निर्जरा बढ़ती जाती है, अतः इन्हें ठीक रखना चाहिए।

     

    श्रमणत्व के शिखर : पंच महाव्रत

     

    आगम की छाँव

     

     हिंसाया.. ..............योगिनां जिनैः ।।५०-५१।।

    श्रेष्ठ मुनिराज अपने मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से जो हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह रूप पाँच पापों का पूर्ण रूप से सर्वथा त्याग कर देते हैं उनको भगवान् जिनेन्द्र देव मुनियों के महाव्रत कहते हैं।

     

    महान्ति च ..................................संयमनिवृत्तिकारणानि।

    जो महान् व्रत हैं, उनको महाव्रत कहते हैं। यहाँ ‘महान्' शब्द का अर्थ महत्त्व व प्राधान्य अर्थ में एवं ‘व्रत' शब्द का अर्थ सावद्य (पाप) से निवृत्ति रूप अर्थ में और मोक्ष की प्राप्ति के लिए निमित्तभूत आचरण अर्थ में है, क्योंकि ऐसे आचरण का महान् पुरुषों (तीर्थंकर आदि) के द्वारा अनुष्ठान (आचरण) किया जाता है अथवा स्वतः ही मोक्ष को प्राप्त कराने वाले होने से ये महान् व्रत ‘महाव्रत' कहलाते हैं।

     

     आचार्यश्री का भाव

    • महाव्रत निवृत्ति रूप हैं, पाँच पाप की निवृत्ति का नाम महाव्रत है। पाँच महाव्रत नींव के समान हैं,इन्हीं के ऊपर ही मुनि का भवन खड़ा हुआ है। इनका बड़ा महत्त्व है। इसको अच्छे से समझ लेना चाहिए। केवल संकल्प ले लेना काफी नहीं है। यदि नीव का एक खंभा (कॉलम) हिलने लगता है, तो भवन गिरता नहीं, लेकिन गिरने की संभावना हो जाती है।
    • महाव्रतों के बिना समितियों का कोई महत्त्व नहीं होता, क्योंकि व्रतों की रक्षा के लिए ही समितियाँ होती हैं। जैसे घड़ी के साथ डिब्बा मिलता है। घड़ी महाव्रत है और डिब्बा समिति है।

     

    अभय का मेरु : अहिंसा महाव्रत

     आगम की छाँव

     

    हृदा च वपुषा... .....................तन्महाव्रतम्।५२-५३।।

    छहों काय के समस्त जीवों को अपनी आत्मा के समान समझकर मन, वचन व काय और कृत, कारित व अनुमोदना के ९ भेदों से प्रयत्नपूर्वक उनकी रक्षा करना अहिंसा महाव्रत कहलाता है।

     आचार्यश्री का भाव

    • प्रथम अहिंसा महाव्रत सभी महाव्रतों का मूल है। जैसे वृक्ष की जड़/मूल में कीड़ा लग जाता है तो वह सूख जाता है। वैसे ही अहिंसा महाव्रत में कमी रह जाए तो पूरे मूलगुणों में दोष लग जाता है अर्थात् वे मलिन या नष्ट हो जाते हैं। अतः इन्हें सुरक्षित ही रखना चाहिए।
    • अहिंसा विश्वहितधारिणी है। अहिंसाव्रत तो मुनि के लिए जननी के समान कहा है।
    • अहिंसा की गोद में ही हमें रहना चाहिए। अहिंसा स्वभावनिष्ठ परिणति है, इसलिए इसको सदा याद रखना चाहिए।
    • जिसके पास दया, अहिंसा नहीं, वो कहीं भी चला जाए, चाहे तीर्थंकरों की शरण में भी चला जाए, उसको कुछ नहीं मिलने वाला।
    • अहिंसा महाव्रत की जिसको चिंता है, तो फिर वह अपना काम दूसरे से नहीं कराएगा, स्वयं करेगा।
    • दूसरों को आदेश देकर काम कराने से अहिंसा महाव्रत निर्दोष नहीं पल सकता है। व्रत हमारा है, न कि दूसरों का।

     

    पर की पीड़ा

    अपनी करुणा की

    परीक्षा लेती।

     

    आचार्यश्री का स्वभाव

    आचार्यश्रीजी से जुड़े प्रसंगों को ज्यों-ज्यों पढ़ते जा रहे, त्यों-त्यों आत्मा में आह्लाद की वृद्धि होती जा रही। लगता है, उन्हें क्या कहें ? दृढ़धर्मी या वर्धमानचारित्री। कभी-कभी लगता है कि  ‘भगवन्’ कहना भी उन्हें उपयुक्त नहीं होगा। प्रभु तो देह से और कर्मों से रहित हुए तब भगवान् बने। ये तो आज के युग में जन्मे और आदि प्रभु के युग की भाँति चर्या पाल रहे हैं। ऐसे ही कुछ संस्मरण यहाँ दृष्टव्य हैं।

     

    महाव्रत, हमारे हैं। - सन् १९८७, थूबोनजी, गुना, मध्यप्रदेश में आचार्यश्रीजी का स्वास्थ्य एकदम बिगड़ गया। स्वयं से उठना-बैठना भी मुश्किल हो गया। एक दिन आचार्यश्रीजी विश्राम कर रहे थे। एक महाराजश्रीजी ने आकर कहा-हमने मार्जन कर दिया है, आप करवट बदल लीजिए। इतनी अशक्यावस्था में भी उन्होंने स्वयं ही अपनी पिच्छी हाथ में लेकर धीमे-धीमे पुनः परिमार्जन किया, फिर करवट ली। एक महाव्रती द्वारा किए गए परिमार्जन को नहीं स्वीकारा। वे कहा करते हैं कि मूलगुण स्वाश्रित होना चाहिए। अहिंसा महाव्रत के प्रति गुरुजी की सजगता देख महाराजश्रीजी के नेत्र सजल हो गए।

     

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    दोषों की पकड़ से बचो - यह प्रसंग उस दिन का है, जब मई, १९९७, सिद्धवरकूट में ज्येष्ठा आर्यिका श्री गुरुमतिजी गोम्मटेश्वर बाहुबली की यात्रा करके गुरुचरणों में आई थीं, जिनकी भव्य अगवानी पहले से ही उपस्थित लगभग ५० आर्यिकाओं द्वारा की गई थी। सभी आर्यिकाएँ गुरुजी से यात्रा संबंधी चर्चा कर रही थीं। तभी एक श्रावक देव-पूजन करके आया। गुरुदेव अर्द्ध पद्मासन मुद्रा में बैठे थे, सो उस श्रावक ने पूजन की कलशी में शेष बचे थोड़े से जल से गुरुजी के एक चरण के अँगूठे का ही पाद-प्रक्षालन कर दिया। फलतः गंधोदक सभी को प्राप्त न हो सका, तब आर्यिकाश्री गुरुमतिजी ने श्रावकों को लक्ष्य करके कहा- ‘थोड़ा और जल लाकर दूसरे चरण का भी प्रक्षालन कर दीजिए। उनके इन वचनों को सुनकर पकड़ी गई आज तो गुरुमतिजी पकड़ी गई। देखो जल लाने का कहती है। अरे! जल लाने में जितना भी आरंभ-सारंभ होगा, श्रावक जाएगा-आएगा, जीवाणि करेगा, ईंधन से तपाएगा, करवाने रूप सारे सावद्य (पाप) का दोष आपको आएगा।' संयमियों को इस बात का ध्यान रखना चाहिए। आर्यिका गुरुमतिजी ने क्षमा माँगी एवं इसमें लगे दोष को दूर करने हेतु प्रायश्चित्त का निवेदन किया।

     

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    अहिंसा का सूक्ष्मातिसूक्ष्म पालन - डॉ. पी.सी. जैन, जबलपुर अपने बड़े बेटे को लेकर कुंडलपुर में विराजमान आचार्यश्रीजी के दर्शनार्थ गए, उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- यह मेरा बेटा पुणे, महाराष्ट्र में अपना मकान बना रहा है, अब यह वहीं रहेगा। आपसे आशीर्वाद लेने आया है। तभी उनके बेटे ने जिज्ञासा भाव से आचार्यश्रीजी से पूछा- क्या वास्तु का प्रभाव मनुष्य पर पड़ता है ?' आचार्यश्रीजी मौन रहे। उन्होंने पुनः पूछा‘आचार्यश्रीजी! क्या वास्तु का उल्लेख आगम में आया है ?' अब भी आचार्यश्रीजी का उत्तर मौन ही था। बाद में कभी अवसर पाकर प्रसंगवशात् डॉ. पी.सी. जैन ने आचार्यश्रीजी से कहा- ‘मेरे बेटे ने जब वास्तु के विषय में पूछा था, तब आप मौन क्यों रहे? वास्तु का उल्लेख भी शास्त्रों में आया है एवं इसका प्रभाव भी पड़ता है। आचार्यश्रीजी बोले- ‘देखो! उस समय वह मकान बना रहा था, यदि मैं हाँ कर देता और वह उसके अनुसार अपने मकान में तोड़फोड़ कर जो परिवर्तन करता, उस कार्य के आरंभ-सारंभ में हुई हिंसा का दोष हमें जाता। धन्य हैं! आचार्य भगवंत, जो मन-वचन-काय एवं कृत-कारित-अनुमोदना रूप हिंसा तो दूर उससे भी अत्यंत सूक्ष्म दोष से भी स्वयं को सहज ही बचा लेते हैं।

     

    इस तरह आचार्य भगवंत अहिंसा महाव्रत स्वयं पालते हैं और पलवाते भी हैं। सूक्ष्म से सूक्ष्म जीवों का घात महाव्रती न तो करते हैं और न करवाते हैं, साथ ही अनुमोदना रूप पाप से भी बचते हैं। और मोक्षमार्गी को बेचने की शिक्षा प्रदान करते हैं।

     

    विश्व कीर्ति का ध्वज : सत्य महाव्रत

    आगम की छाँव

     

    रागादीहिं.............. ...............सच्चे।।६।।

    रागादि के द्वारा असत्य बोलने का त्याग करना और पर को ताप करने वाले सत्य वचनों के भी कथन का त्याग करना तथा सूत्र और अर्थ के कहने में अयथार्थ वचनों का त्याग करना सत्य महाव्रत है।

     

    आचार्यश्री का भाव

    • अहं (अहंकार) को छोड़, अहं (निज) को पाना ही सत्य है। ऐसे सत्य को बार-बार नमस्कार हो।
    • सत्य महाव्रत का अर्थ सत्य बोलना नहीं है बल्कि असत्य का त्याग करना है।
    • अहिंसा साधु का जीवन है, तो सत्य उसका वास्तविक प्राण है।
    • जिस सत्य के द्वारा प्राणियों को पीड़ा पहुँचती है, ऐसा सत्य भी असत्य कहलाता हैं।
    • एक शब्द के स्थान पर बहुत बोलना, यह सत्य व्रत नहीं कहलाता है।
    • अधिक बोलने वालों के सत्य महाव्रत बन ही नहीं सकता है।
    • मोक्षमार्ग में तथ्यात्मक बोलो, हितकारी जो हो, उसे बोलो, मीठे शब्दों के साथ बोलो और सारभूत ही बोलना चाहिए।
    • बोलने के पूर्व स्व-परहित के बारे में, धर्म का गौरव बढ़ेगा कि नहीं, कहीं अपयश तो नहीं फैलेगा, सोच लेना चाहिए। ध्यान रखना, बोलने से यश फैल सकता है, तो अपयश भी पल्ले में आ सकता है।
    • सत्यवादी आवेश में आकर कार्य नहीं करेगा। दृढ़ता, धीरता, गंभीरता सदा ही साथ रखो, तभी जीत होगी। हमारा समर्थन भले ही न हो, पर असत्य का आलम्बन नहीं लेना चाहिए। सत्य से ही तृप्ति होती है। कभी परेशानी नहीं आएगी। सत्यता के साथ बाहर भले ही अकेले दिखें, किंतु उसके साथ साक्षात् जिनवाणी है, गुरुदेव हैं, अकेला कहाँ है वह।

     

     

    आँखें न मँदो

    नही आँखें दिखाओ

    सच क्या देखो।


     आचार्यश्री का स्वभाव

    अनुभय वचनात्मक शैली - आगम के साँचे में ढला आचार्य भगवन् का जीवन एकदम श्रृंगारित नज़र आता है। आचार्यश्रीजी कहते हैं-‘सत्य और अनुभय वचन संसार सुख के निर्माता हैं, ये वचन पाप से रहित हैं और धर्म से सहित हैं, बोलने योग्य हैं तथा सारभूत हैं।' आचार्यश्रीजी अधिकांशतः अनुभय वचन एवं सांकेतिक शब्दों का प्रयोग करते हैं। जैसे “देखो', ‘देख लो’, ‘देखते हैं', ‘निमित्त होगा तो’, ‘मैं क्या कहूँ’, ‘मैं कैसे कुछ बोल हूँ' आदि। सन् २००८, रामटेक, नागपुर, महाराष्ट्र, चातुर्मास के दौरान एक आर्यिका संघ ने आचार्यश्रीजी के पास संघस्थ ब्रह्मचारिणी बहन के द्वारा सूचना भेजी कि संघस्थ एक आर्यिकाजी के दाँतों में अत्यन्त पीड़ा है। वैद्यजी ने अमुक उपचार बताया है। क्या करें ? गुरुवर ने उत्तर दिया- ‘देख लो। पूछने वाली बहन ने कहा- ‘भगवन्! हम समझ नहीं पा रहे, आर्यिकाजी से क्या कह दें ?' आचार्यश्रीजी मौन रहे। उस बहन ने साहस जुटा कर पुनः कहा- ‘आचार्य श्रीजी ! उनको बहुत वेदना है। कब से तो आहार नहीं कर पा रहीं हैं। हाँ कह दें भगवन् ?' वह बोले- ‘कह तो रहा हूँ देख लो ।' नहीं समझ पाई बहन कि यह ‘देख लो' शब्द क्या कह रहा है। उसने आकर आर्यिकाजी से कहा- ‘गुरुजी ने तो कुछ कहा ही नहीं। कह रहे थे ‘देख लो। अब आप क्या करेगीं ?' आर्यिकाजी बोलीं- ‘दीदी ! उन्होंने ‘देख लो' कह दिया, इसी में तो उत्तर है। क्या आप गुरुजी का आशय नहीं समझ पाईं, गुरुजी अपनी चर्या में दोष नहीं लगाते । जहाँ पर स्पष्ट रूप से निर्दोषता या सदोषता होती है, वहाँ तो वह 'हाँ' या ‘न' का प्रयोग करते हैं। पर जहाँ पर हल्की-सी भी सदोषता होने की संभावना हो, किंतु कार्य की अनिवार्यता भी हो, तब वह सामने वाले को अनुभय वचन ‘देख लो' जैसे कुछ शब्दों द्वारा स्वतंत्रता प्रदान कर देते हैं। और स्पष्ट रूप से कुछ भी कहने पर संभावना रूप से लगने वाले सूक्ष्म दोषों से भी स्वयं को बचा ले जाते हैं।' ...ऐसा भी सत्य!

     

    किसी भी विषय पर ‘हाँ' या ‘न' कहते प्रायः उन्हें नहीं देखा जाता। कभी क्वचित्-कदाचित् यदि संकेत में भी स्वीकृति रूप भाव प्रकट हो जाएँ, तो उसे भी वह अक्षरशः पूर्ण करते हैं। यह प्रसंग तब का है जब आचार्य श्री विद्यासागरजी के चरणों ने राजस्थान की भूमि को दूसरी बार स्पर्श किया था। राजस्थान वह पवित्र भूमि है, जहाँ पर विचरण कर आचार्य श्री ज्ञानसागरजी महाराज ने जिनशासन की महिमा मंडित करने वाले एक विराट् व्यक्तित्व का निर्माण किया था। राजस्थान की भूमि तो वही थी, पर तब और अब में अंतर इतना था कि तब उस विराट् व्यक्तित्व के साथ प्रत्यक्ष रूप में गुरु का हाथ और साथ था। और अब आज्ञा एवं क्रिया रूप में गुरु का साथ और हाथ है, प्रत्यक्षतः नहीं।

     

    मुनि श्री विद्यासागरजी का चौथा वर्षायोग अपने गुरु आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के साथ सन् १९७१, में मदनगंज-किशनगढ़ (अजमेर, राजस्थान) में हुआ था। यहाँ की समाज ने इस दौरान आचार्य श्री ज्ञानसागरजी के दिशा निर्देशन में श्री आदिनाथ दिगंबर जैन मंदिर का निर्माण कार्य आरंभ किया था। आचार्य महाराज जहाँ भी रहे, समाज उनके पास जाकर समय-समय पर दिशा निर्देश लेती रही और मंदिर के निर्माण की प्रगति की सूचना उनके जीवित रहने तक उन्हें देती रही। आचार्य महाराज की समाधि के पश्चात् इस जिनालय के पंचकल्याणक उन्हीं के सुशिष्य आचार्य श्री विद्यासागरजी जो इस समय बुंदेलखण्ड में प्रवासरत थे, के चरण सान्निध्य में ही करवाने की तीव्र भावना समाज की बनी। इसके लिए समाज के अग्रणी लोग आचार्यश्रीजी के पास अनवरत निवेदन करने भी जाते रहे। प्रत्येक बार गुरुदेव, ‘निमित्त होगा तो'..... कह कर मौन हो जाते थे। समय निकलता गया।

     

    सन् १९७९ में आचार्यश्रीजी कुण्डलपुर (दमोह, मध्यप्रदेश) में विराजमान थे। उस समय किशनगढ़ से एक प्रतिनिधि मंडल के २०/२२ लोग पुनः निवेदन करने २७ जनवरी, १९७९ को प्रातः लगभग १०.00 बजे कुण्डलपुर पहुँचे। जिनमें प्रमुख थे, सर्व श्री कपूरचंदजी गंगवाल, श्री मूलचंदजी लुहाड़िया, श्री दीपचंदजी चौधरी, श्री बोदूलालजी गंगवाल, अजमेर के श्री छगनलालजी पाटनी, श्री कजौड़ीमलजी सावरकर, ताराचंदजी गंगवाल आदि। उन्होंने बड़ी भक्तिभाव से अपनी प्रार्थना निवेदित की। दो दिन तक आचार्यश्रीजी इस विषय में मौन ही रहे, पर श्रावकों का अथक प्रयास जारी रहा। जिसके फलस्वरूप २९ जनवरी, १९७९ को दोपहर के प्रवचन में आचार्यश्रीजी के मुख से निकला ‘पंचकल्याणक करना है सो कराओ, ‘विशुद्धि बढ़ाओ।' और हँसते हुए आगे बोले- भाई साई (बयाना) के पेटे कुछ जमा कराओ।' उनका आशय था कि कुछ त्याग बगैरह करो। तो उन सभी ने यथाशक्ति कुछ न कुछ त्याग किए। इन शब्दों ने तो जैसे प्रतिनिधि मंडल में प्राण फेंक दिए। यद्यपि स्पष्ट रूप से कुछ नहीं था, पर कुछ तो था। वे आशा की किरण लेकर खुशी-खुशी वापस लौट गए। पंचकल्याणक की तिथि २५ से ३१ मई, १९७९ निश्चित हो गई। 

     

    ३० जनवरी, १९७९ में आचार्यश्रीजी का विहार कुण्डलपुर से किशनगढ़, अजमेर, राजस्थान की ओर हुआ। वह ७०० किलोमीटर का रास्ता तय करके जयपुर, राजस्थान पहुँचे। वहाँ छोटे दीवानजी के मंदिर में ठहरे। इस वर्ष जयपुर में महावीर जयंती १० अप्रैल, १९७९, मंगलवार के दिन आचार्यश्रीजी के सान्निध्य में मनाई गई। रामलीला मैदान में आचार्यश्रीजी के प्रवचन सुनने सारा शहर उमड़ पड़ा। फिर यहाँ से विहार कर पाकिस्तान के मुल्तान शहर से आए हुए आदर्श नगर जैन मंदिर में गए। यहीं से उन्हें टायफाईड आना शुरू हो गया। फिर वापस छोटे दीवानजी के मंदिर गए। १०५-१०६ डिग्री बुखार एक-डेढ़ माह तक लगातार आता रहा। शरीर इतना कृश हो गया कि स्वतः उठना-बैठना भी दूभर हो गया। जब पंचकल्याणक के पाँच दिन ही शेष थे, तभी २१ मई, १९७९ के दिन उन्होंने प्रात:काल छोटे दीवानजी के मंदिरजी में वेदी की तीन प्रदक्षिणा लगाईं। जैसे वह अपनी शक्ति को समझ रहे हो। और उसी दिन उन्होंने सायं पाँच/साढे पाँच बजे किशनगढ़ की ओर विहार कर दिया। इन्हीं दिनों आचार्यश्रीजी की गृहस्थजीवन की जन्मदात्री माँ आर्यिका श्री समयमतिजी एवं दोनों बहनें आर्यिका श्री नियममतिजी व आर्यिका श्री प्रवचनमतिजी जयपुर में ही विराजमान थीं। उनमें से एक (बहन) आर्यिका श्री १०५/१०६ डिग्री बुखार आ रहा था। परंतु आचार्यश्रीजी ने विहार करते समय उनकी तरफ दृष्टि भी नहीं डाली। तभी एक ऐसी अनोखी व आश्चर्यकारी घटना घटी कि कड़कड़ाती धूप में जहाँ बादल का नामो-निशान भी नहीं था, वहाँ चाँदपोल बाजार के बाहर खजांची की नसिया में प्रवेश करते ही बारिश की बूंदों ने शगुन कर दिया।

     

    वैद्यों ने मनाही की, कहा- ‘एक-डेढ़ किलोमीटर से अधिक चलने पर पुनः टायफाईड आ सकता है। समाज ने डोली तैयार करके रखी, पर उन्हें डोली में बैठाना तो दूर उनसे कहने तक का साहस समाज न कर सकी। एक दिन छोड़, दूसरे दिन २३ मई, १९७९ के दिन महलां, राजस्थान में आहार चर्या करने गए तो मात्र दो अंजली जल ही लिया कि अंतराय आ गया। फिर २४ मई को भी सामान्य से जल, दूध और दो-चार ग्रास ही ले पाए कि पुन: अंतराय हो गया। श्रावकों के लाख मना करने के बावजूद भी उन्होंने इसी दिन शाम को विहार कर दिया। राजस्थान की भीषण गर्मी, बीमारी की अवस्था, इस पर भी गुरुदेव ने अठारह-अठारह किलोमीटर का विहार किया। आगे-आगे वर्षा और पीछे-पीछे महाराज यही क्रम पूरे मार्ग में चलता रहा।

     

    गुरुदेव के अदम्य साहस को देखकर, जयपुर के कुशल वैद्यराज श्री सुशीलजी, जिनका उपचार चल रहा था, बोले- ‘ऐसे संतों का जीवन तो असाधारण है, जिन पर साधारण जीवों पर लागू होने वाले आयुर्वेद के सिद्धांत लागू नहीं होते। मेरे ज्ञान के अनुसार रोगियों के इतिहास की यह पहली घटना है कि  जब डेढ़ माह से तीव्र टायफाईड से पीड़ित रोगी पहली बार अठारह किलोमीटर तो क्या, एक किलोमीटर भी पैदल चल सका हो। यह तो लोकोत्तर महात्मा के जीवन की लोकोत्तर घटना है।

     

    दृढ़ इच्छाशक्ति धारक गुरुदेव गन्तव्य स्थान तक पहुँचे, बीच में रुके नहीं। वचन तो दूर संकेत में कहे गए भावों को भी उन्होंने हर हाल में पूरा किया। २८ मई, १९७९, जन्म कल्याणक के दिन प्रातःकाल ३०-४० हजार नर-नारी , आबाल-वृद्ध आदि के मध्य विशाल जुलूस के साथ आचार्यश्रीजी का ससंघ किशनगढ़ में मंगल पदार्पण हो गया। इसी समय आचार्यकल्प श्री श्रुतसागरजी का संघ भी यहाँ विराजमान था। दोनों संघों का भव्य मिलन हुआ। अपनी अभीष्ट भावना को पूरा होता देख समाज के हर्ष का ठिकाना न रहा। किशनगढ़ का यह पंचकल्याणक महोत्सव आचार्यश्रीजी का सान्निध्य पा ऐतिहासिक और अभूतपूर्व बन गया।

     

    अखिल वैभव का हेतु : अचौर्य महाव्रत

     आगम की छाँव 

     

    गामादिसु..........परिवजणं तं तु ।।७।।

    ग्राम आदि में गिरी हुई, भूली हुई इत्यादि जो कुछ भी छोटी-बड़ी वस्तु है और जो पर के द्वारा संग्रहीत है, ऐसे परद्रव्य को ग्रहण नहीं करना, सो वह अदत्त-परित्याग (अचौर्य) नाम का महाव्रत है।

     

     आचार्यश्री का भाव

    • सर्वज्ञ, वीतराग और हितोपदेशी भगवान् ने हमारे आत्म कल्याण के लिए एक सूत्र दिया है, वह है अस्तेय, अचौर्य महावत। ‘स्तेय कहते हैं अन्य पदार्थों के ऊपर अधिकार जमाने की आकांक्षा, पर-पदार्थों पर आधिपत्य रखने का वैचारिक प्रयास।
    • दूसरों के द्रव्य को देखते ही, ‘नहीं-नहीं', ऐसा भाव आवे, तब ही अचौर्य महाव्रत पलता है। ‘जहाँ देह अपनी नहीं, तहाँ न अपनो कोय' ऐसा विचार करने वाले मुनि, पर-धन (वस्तु) को अपना कैसे कह सकते हैं?
    • जिस द्रव्य के द्वारा संयम की हानि हो, उस द्रव्य को नहीं लेना चाहिए, वह चोरी कहलाएगी। इसमें सब चीज आ जाएँगी। आहार आदि भी आ जाएगा। भक्ति के अतिरेक में कोई देता है, यदि वह संयम की हानि में कारण है, तो मुनि को वह नहीं लेना चाहिए।
    • दाँत में फँसे हुए कण को निकालने के लिए बिना पूछे तृण भी नहीं लेना चाहिए।
    • संयम की हानि एवं विकास किसमें होता है, यह विवेक मुनिराज में होना चाहिए।
    • किसी पदार्थ से आत्मीय भाव नहीं रखना चाहिए। जैसे डायरी, पेन, पाटा और चौकी मेरी है, यह कहना भी ठीक नहीं है।
    • अपनी चर्या के द्वारा दूसरों की आस्था गिराना भी चोरी करना ही है।
    • कभी किसी से याचना नहीं करना, किसी को कुछ आज्ञा नहीं देना, किसी भी पदार्थ से ममत्व नहीं रखना, सदा निर्दोष पदार्थ का सेवन करना और साधर्मी पुरुषों के साथ शास्त्रानुकूल वार्तालाप करना। ये पाँच अचौर्य महाव्रत को शुद्ध रखने वाली श्रेष्ठ भावनाएँ हैं। आचार्यश्रीजी अचौर्य महाव्रत के धनी हैं। अचौर्य महाव्रत का पालन तो ठीक उनकी पाँच भावनाओं से सुसज्जित उनका जीवन है। इन भावनाओं के अनुरूप उन्होंने अपना स्वभाव बना लिया है।

     

    पक्षी कभी भी

    दूसरों के नीड़ में

    घुसते नहीं।

     

    0034.jpg आचार्यश्री का स्वभाव 

    बिन पूछे कैसे लेता - अतिशय क्षेत्र बहोरीबंद (कटनी, मध्यप्रदेश) का प्रसंग है। संयोगवश आहार के बाद श्रावक आचार्यश्रीजी के स्थान पर संघस्थ मुनि श्री कुंथुसागरजी का कमण्डलु ले गए, और आचार्यश्रीजी के कमरे में रख दिया। ईर्यापथ भक्ति के बाद आचार्यश्रीजी मुनि श्री कुंथुसागरजी से बोले- ‘क्यों, कुंथु! यह कमण्डलु तुम्हारा है, मैं उपयोग में ले लूं।' उन्होंने कहा- ‘जी, आचार्यश्रीजी।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘बहुत देर से मेरे पास रखा था, पर बिना पूछे कैसे लेता।' मुनि श्री कुंथुसागरजी हाथ जोड़कर बोले- ‘गुरुदेव! सब आपका ही है, ये मण्डल (संघ) और कमण्डल।' गुरुदेव सहज ही बोले- ‘नहीं, न मेरा ये  मण्डल है और न ही कमण्डल है।

     

    धन्य है आचार्यश्रीजी को कि उन्होंने न तो बिना पूछे कमण्डलु का उपयोग किया और न ही अपने कमण्डलु के विषय में खोज स्वयं की। क्योंकि दूसरों से पूछने पर उसे खोजने के लिए श्रावकों की जो अयत्नाचारपूर्वक क्रिया होती, उससे लगने वाला दोष भी उन्हें स्वीकार नहीं था। बचपन तक में वह बिना दी हुई वस्तु को नहीं स्वीकारते थे। एक बार वह और मारुति अपने खेत में खड़े थे। दूसरे बाजू वाले के खेत में ट्रेक्टर के चलने से मिट्टी का एक बड़ा-सा डिमला उचक कर विद्याधर के खेत में आ गया। विद्याधर ने उठाकर उसे बाजू वाले खेत में ही फेंक दिया। जिसे देख मारुति ने कहा- ‘मिट्टी ही तो थी, क्या जरुरत थी। वापस फेंकने की ?' विद्याधर बोले- ‘अगले जन्म में उसकी मिट्टी के बदले जमीन देनी पड़ेगी। सब कर्म का खेल है।' मारुति बोले-‘यह मिट्टी है, तुमने तो उठाई नहीं, स्वयं ही आई है। विद्याधर बोले- ‘वस्तु की कीमत की बात नहीं है, उस वस्तु के ममत्व भाव से पाप होता है। वह मिट्टी तो हमने देख ली थी ना...। अपनी नहीं हैं, फिर भी स्वीकार लेना, तो पाप ही हुआ ना....।' धन्य है। गुरुवर को जो जन्मतः ही हेय (छोड़ने योग्य) उपादेय (ग्रहण करने योग्य) की बुद्धि सहित थे।

     

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    याचना तो दूर, संकेत तक नहीं देते - कुण्डलपुर, (दमोह, मध्यप्रदेश) मई २०१६ का प्रसंग है। एक दिन स्वाध्याय करते-करते आचार्यश्रीजी ने पेंसिल उठाई, उसे देखा और  रख दिया। यह दृश्य सामने कुछ दूरी पर आचार्यश्रीजी से चर्चा करने के भाव से प्रतीक्षा कर रहीं दो ब्रह्मचारिणी बहनों ने देखा। उन्हें समझते देर न लगी, उन्होंने तुरंत जाकर संघस्थ मुनिश्रीजी को बताया कि संभवतः गुरुजी कुछ लिखना चाह रहे हैं, पर पेंसिल व्यवस्थित (नोंक) न होने से उन्होंने लिखा नहीं। मुनिश्री ने तत्काल ही पेंसिल लाकर गुरुजी को दे दी। आचार्यश्रीजी ने उन्हें बड़े ही आश्चर्य से देखा कि इन्हें कैसे ज्ञात हुआ ? जब उनकी दृष्टि सामने कुछ दूरी पर प्रतीक्षारत उन बहनों पर गई, तब वह समझ गए और मुस्करा दिए। बाद में उन मुनिश्री ने बताया कि आचार्यश्रीजी कभी भी किसी वस्तु के लिए इशारा भी नहीं करते हैं। संघस्थ ज्येष्ठ साधु प्राय:कर गुरुजी का बाजौटा (चौका) व्यवस्थित कर देते हैं। इसके बावजूद भी कई बार तीन-तीन, चार-चार दिन तक गुरुजी का लेखन कार्य रुका रहता।

     

    उन्होंने बताया एक बार तीन-चार दिन से गुरुजी का लेखन कार्य रुका हुआ देखकर सहजता से किसी ने पूछ लिया, “आचार्यश्रीजी! क्या आपका लेखन कार्य पूर्ण हो गया ?' आचार्यश्रीजी ने न तो ‘हाँ' कहा और न ही 'ना' । उपदेशात्मक शैली में बोले- ‘योग्य उपादान और योग्य निमित्त के मिलने पर कार्य की सिद्धि होती है। निमित्त के अभाव में नैमित्तिक का भी अभाव हो जाता है। प्रत्येक कार्य का कारण होता है। कारण मिलने पर कार्य सिद्ध होता है। बाद में ज्ञात हुआ कि आचार्यश्रीजी के बाजौटे पर पेंसिल नहीं रखी थी। जब पेंसिल साफ़ करके उनके चौके पर रख दी।| तब लेखन कार्य पुनः प्रारंभ हो गया। धन्य है। गुरुवर की धैर्य एवं गंभीरता की पराकाष्ठा। लेखन कार्य रोक दिया, पर आगम की आज्ञा, अचौर्य महाव्रत की भावना रूप अयाचकवृत्ति का पालन पूर्ण निष्ठा से किया |

     

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    आज्ञा नहीं, इशाराही पर्याप्त समझो - इतने विशाल संघ के नायक आचार्यश्रीजी को कभी भी आज्ञा देते नहीं देखा जाता। यदि कभी आवश्यकता भी पड़े, संघ में निर्देश देने या किसी को सतर्क करने की, तो प्रायः सामूहिक कक्षाओं में प्रसंग उपस्थित कर अपनी बात संकेत के माध्यम से कह देते हैं। अथवा संघस्थ ज्येष्ठ साधुओं को इशारा कर देते हैं। वे कहा करते हैं कि समझदार को इशारा ही काफ़ी है और नासमझ को सारा भी दे दो, तो कम है।

     

    उनके आशीर्वाद एवं प्रेरणा से स्वास्थ्य, शिक्षा, राष्ट्र, संस्कृति एवं संस्कार आदि विषयक कितने प्रयास एवं योजनाएँ संचालित हैं, पर कभी भी वह आदेशात्मक शैली का प्रयोग नहीं करते। जहाँ आज्ञा देते-देते भी कार्य की परिणति नहीं पाई जाती, वहीं गुरुजी के एक इशारे पर जनजन बलिहारी होते हैं। और सभी कार्य क्षण भर में पूर्णता को प्राप्त हो जाते हैं। 

     

    ६ अप्रैल, २००१, सोमवार, बहोरीबंद, महावीर जयंती के दिन, मध्याह्न के समय मुख्यमंत्री श्री दिग्विजयसिंह आचार्यश्रीजी के पास दर्शनार्थ आए। समिति के सदस्यों ने उनके समक्ष सामाजिक कुछ आवश्यकताओं को रखा और आचार्यश्रीजी से कहा-‘गुरुदेव! आप मंत्रीजी को इस कार्य के लिए आशीर्वाद दीजिए, वह शीघ्र पूरा कर सकें।' मुख्यमंत्रीजी ने हाथ जोड़े और कहा‘आप हमें आदेश करें, हम अवश्य पूरा करेंगे।' आचार्यश्रीजी बोले- ‘आदेश तो हम देते नहीं। और फिर हँसते हुए बोले- जो । इशारे को ही आदेश समझ ले, तो समझ ले।

     

    0037.jpgअत्यंत निर्ममत्त्वी - सन् १९७६ में वर्षायोग/चातुर्मास के पूर्व आचार्यश्रीजी का ससंघ कुंडलपुर पहुँचना हुआ। मुनि श्री समयसागरजी, जो उस समय क्षुल्लक अवस्था (उम्र १८ वर्ष) में थे, गंभीर रूप से अस्वस्थ हो गए थे। उनका ज्वर बहुत समय से नहीं जा रहा था। जैन दर्शन के मूर्धन्य विद्वान् पंडित श्री जगन्मोहनलालजी, कटनी ने आचार्यश्रीजी से अनुरोध किया कि यहाँ जंगल है, छोटी बस्ती है, कोई वैद्य नहीं है एवं आपके वर्षायोग की स्थापना में अभी १ माह शेष है। अतः क्षुल्लक श्री समयसागरजी को मुझे अपने साथ कटनी ले जाने की अनुमति दीजिए। आचार्यश्रीजी ने अनुमति देते हुए कहा- “श्रावकों का अधिक संपर्क संयम में बाधक होता है।'' तब पंडितजी ने कहा- ‘क्षुल्लक श्री योगसागरजी को भी साथ भेज दीजिए।' आचार्यश्रीजी ने उत्तर दिया- ‘नहीं, क्षुल्लक श्री नियमसागरजी को ले जाओ।' चूंकि क्षुल्लक श्री समयसागरजी और क्षुल्लक श्री योगसागरजी दोनों ही आचार्यश्रीजी के गृहस्थावस्था के भाई थे। अतः आचार्यश्रीजी का अभिप्राय था, अस्वस्थता काल में क्षुल्लक श्री समयसागरजी को मोह उत्पन्न न हो जाए। पंडितजी क्षुल्लक श्री समयसागरजी एवं क्षुल्लक श्री नियमसागरजी को कटनी ले गए। एक दिन क्षुल्लक श्री समयसागरजी का स्वास्थ्य अत्यंत बिगड़ गया, उनको ठंडा पसीना आने लगा। रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) ८0 से ३५ तक गिर गया। नाड़ी नहीं मिल रही थी एवं हार्ट ने ठीक से काम करना बंद-सा कर दिया। चिकित्सक बोले- ‘आधुनिक पद्धति से उपचार करना पड़ेगा, नहीं तो समाधि हो जाएगी। ऐसी स्थिति में पंडितजी को आचार्यश्रीजी के वचन याद आ गए-' श्रावकों का अधिक संपर्क संयम में बाधक है। अतः उन्होंने उपचार नहीं कराया और क्षुल्लक श्री समयसागरजी से पूछा- ‘महाराज! आपका स्वास्थ्य नहीं सुधरा तो आप क्या करेंगे ?' महाराज बोले-‘समाधि ले लेंगे'। पंडितजी ने कहा* भीतर से क्या पूरी तैयारी है ?' वह बोले- ‘आप चिंता न करें, मैं पूरी तरह तैयार हूँ। मैं मरण-भय से मुक्त हूँ।' तब पंडितजी ने कहा- ‘मेरे साथ भक्तामरजी का पाठ कीजिए।' वह पाठ करने लगे।

     

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    रात्रि ११ बजे के बाद ब्लड प्रेशर ३६ से अधिक नहीं हुआ, उन्हें मूच्र्छा-सी आने लगी। तब उन्होंने पंडितजी के बेटे प्रमोदकुमारजी से कहा- “यदि मैं मूर्छित हो जाऊँ, तो मेरा इतना ख्याल रखना, समाज के लोग मुझे अस्पताल न ले जाएँ। ऐसा वचन दो मुझे। उन दिनों वर्धा शासकीय चिकित्सालय के सुप्रसिद्ध डॉक्टर निगम, कटनी आए हुए थे। उन्होंने महाराज को देखा तो बोले- ‘ऐसी स्थिति में चेतना रहती ही नहीं है, यह तो आत्मबल से बोल रहे हैं। कोई चमत्कार ही इन्हें बचा सकता है।' पंडितजी ने उसी समय एक व्यक्ति को एवं अपने पुत्र को भी कार से कुंडलपुर आचार्यश्रीजी के पास पत्र लिखकर भेजा- ‘क्षुल्लक श्री समयसागरजी बहुत अस्वस्थ हैं, डॉक्टर ने जवाब दे दिया। समाधि का काल आ गया है। समाधि के लिए साधु कोई भी नियम तोड़कर आ सकता है, अत: आप आ जाएँ। पत्र पढ़कर आचार्यश्री जी ने उत्तर दिया- ‘पंडितजी स्वयं सक्षम हैं, समाधि करा देंगे। मेरे आने  की आवश्यकता नहीं है।' प्रमोदजी ने बार-बार निवेदन किया, पर आचार्यश्रीजी वही बात दोहराते रहे। उस समय प्रमोदजी को जोश तो था, पर होश नहीं था, क्योंकि महाराज की स्थिति उनकी आँखों में घूम रही थी। अतः अज्ञानतावश वह आचार्यश्री जी से बोले- ‘महाराजजी! आपको चलना ही पड़ेगा। यदि आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं हो, तो डोली से ले चलेंगे, नहीं तो कार लेकर आया हूँ। आप अभी चलें बाद में प्रायश्चित्त कर लेना।' आचार्यश्रीजी शांत भाव से सब सुनते रहे। फिर बोले- ‘पंडितजी को हमारा आशीर्वाद है। वह सक्षम हैं, समाधि करा देंगे।' प्रमोदजी को आचार्यश्रीजी का पुनः वही उत्तर सुनकर आवेश आ गया। वह बोले- ‘आचार्यश्रीजी! आप बहुत कठोर हैं। क्षुल्लक श्री समयसागरजी आपके संघस्थ साधु हैं और छोटे भाई भी। आपको कटनी चलना ही पड़ेगा।' इतना कहकर उन लोगों की आँखों से आँसू बहने लगे। मर्यादा दोनों के बीच में थी। वे तुरंत वापिस आ गए। इधर क्षुल्लक श्री समयसागरजी के अँगूठों में मकरध्वज आदि औषधि एवं पूरे शरीर पर सिकी हुई अरहर की दाल का चूर्ण रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) बढ़ाने के लिए लगाया जा रहा था। बड़े बाबा की कृपा व आचार्यश्रीजी के आशीर्वाद से औषधि ने काम किया और रक्तचाप (ब्लड प्रेशर) धीरे-धीरे सामान्य हो गया। और कुछ दिनों में क्षुल्लक श्री समयसागरजी स्वस्थ हो गए।

     

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    पंडितजी जब कुंडलपुर आए, तब आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘इतनी अस्वस्थ अवस्था में आप क्यों नहीं आए ?' आचार्यश्रीजी ने हँसते हुए कहा - ‘पंडितजी! गृहस्थों और साधुओं के चिंतन में यही तो अंतर है। समयसागर युवा थे, भावनाओं का आवेग था, साधना काल है। यदि मुझे देखकर मोह उत्पन्न हो जाता तो उनकी समाधि ही बिगड़ जाती। आचार्य ऐसा कोई कार्य नहीं करते, जिससे निर्ग्रन्थों  में ग्रन्थियाँ उत्पन्न हों।' पंडितजी ने जब आचार्यश्रीजी के अंतस् के भावों को सुना, तब वे उनकी निर्ममत्वता एवं दृढ़धर्मिता को देखकर नतमस्तक हो गए।

     

    इस तरह आचार्यश्रीजी न तो कभी याचना करते, न किसी को आज्ञा देते और उनकी निर्ममत्वता स्तुत्य एवं प्रणम्य है। अचौर्य महाव्रत की चौथी भावना निर्दोष पदार्थ का सेवन एवं पाँचवी भावना शास्त्रानुकूल वार्तालाप इनका विषय क्रमशः एषणा समिति और भाषा समिति में द्रष्टव्य है।

     

    शिवसुख की खान : ब्रह्मचर्य महाव्रत

    आगम की छाँव

     

    स्वात्मजेव...................ब्रह्मचर्य-महाव्रतं ।।१८०-१८१।।

    शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वीतरागी पुरुष अपने रागरूप परिणामों का सर्वथा त्याग कर कन्या को अपनी पुत्री के समान मानते हैं, युवतियों को अपनी बहिन (भगिनी) के समान मानते हैं और वृद्धा स्त्री को अपनी माता के समान मानते हैं। इस प्रकार जो निर्मल ब्रह्मचर्य को धारण करते हैं उसको भगवान् जिनेन्द्र देव ब्रह्मचर्य महाव्रत कहते हैं।

     

    आचार्यश्री का भाव

     

    • ब्रह्मचर्य का अर्थ वस्तुतः है चेतन का भोग।
    • ब्रह्मचर्य का अर्थ भोग से निवृत्ति नहीं बल्कि रोग से निवृत्ति है। जिसे आप लोगों ने भोग माना है, वह वास्तव में रोग है। उस रोग से निवृत्ति ही ब्रह्मचर्य है। आपके भोग का केन्द्र भौतिक सामग्री है, हमारे यहाँ भोग की सामग्री बनती है चैतन्य शक्ति। हमेशा-हमेशा ब्रह्मचर्य पूज्य बना, किन्तु कभी भोग सामग्री पूज्य नहीं बनी।
    • पाँचों इन्द्रियों के विषयों से विरक्त होने का नाम ही ब्रह्मचर्य है।
    • जैसे लौकिक जगत में थक जाने पर विश्राम आवश्यक हो जाता है, ऐसे ही संसार से विश्राम की दशा में ब्रह्मचर्य आवश्यक हो जाता है।
    • उपयोग को विकारों से बचाकर, राग से बचाकर वीतरागता में लगाना चाहिए, यही  ब्रह्मचर्य है।
    • ब्रह्मचर्य का अर्थ अपने में रम जाना। परमार्थ के क्षेत्र में आँखें खुली रहनी चाहिए और विषय- वासना के क्षेत्र में अंधा होकर रहना चाहिए।
    • यौवन की झाड़ी में रावण जैसे विद्वान् भी फैंस गए थे, इसलिए यौवन की झाड़ी से बचकर निकलना। जिस प्रकार बहने के उपरांत नदी वापस नहीं लौटती, उसी प्रकार बीता हुआ वक्त वापस नहीं आता। अपने को पहचानो और उसमें डूबो, ताकि मल से आच्छादित तुम्हारा परमात्मा जाग्रत हो जाए।
    • जिस औदारिक शरीर से संयम पलता है, यदि इसी को विकारमय बना दोगे, तो संयम कैसे पलेगा ?
    • ब्रह्मचारी को कोमल बिछोना, संस्तर का उपयोग नहीं करना चाहिए। मुलायम यदि है तो संस्तर नहीं माना जा सकता है। अपनी ही चटाई आदि
    • उपयोग में लाना चाहिए। सभी जिस पर बैठते हैं, उसको उपयोग में लेना यह ठीक नहीं है।
    • नृत्य, गान, वाद्य इन कलाओं से ब्रह्मचर्य नष्ट होता है। इनसे स्वयं की रक्षा करो।
    • गलत साहित्य से ब्रह्मचारी को बचना चाहिए। इससे पैसा, समय व संयम भी खत्म होता है।
    • ब्रह्मचर्य ही आत्मनिष्ठ होने का व्यवहार है। यह शारीरिक दृष्टि से चलता है, तब भी यह महत्त्वपूर्ण है। मोक्षमार्ग का रास्ता इससे प्रशस्त होता है।

     

    निद्रा वासना

    दो बहने हैं

    जिन्हें लज्जा न छूती।

     

     आचार्यश्री का स्वभाव 

    ब्रह्मचर्य कैसे पले ? - निर्दोष, आगमोक्त ब्रह्मचर्य व्रतधारी आचार्य भगवंत के पास सन् १९७४, सोनीजी की नसिया में एक अन्य मतावलंबी साधु आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी के दिगंबर रूप का दर्शन करके सोचा कि यहाँ मेरी शंका का समाधान मिल सकता है। उन्होंने आचार्यश्रीजी से पूछा- ‘मैं कामेन्द्रिय को जीतना चाहता हूँ, पर सफल नहीं हो पा रहा हूँ, आपने कैसे जीता ?' आचार्यश्रीजी बोले- ‘हठयोग से इन्द्रियों को नहीं जीत सकते। इन्द्रियों को जीतने के लिए पहले मन को जीतो। इसके अलावा रसना इन्द्रिय को जीतने से भी कामेन्द्रिय को जीतने में सहयोग मिलता है।

     

    ब्रह्मचर्य की सतर्कता - आचार्य भगवन् सशील ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हैं। कभी भी अकेली स्त्री से एकांत में  वार्तलाप नहीं करते । सन् २००८, रामटेक में एक अकेली श्राविका गुरुजी से चर्चा करने आ गई। आचार्यश्रीजी मौन रहे। उन्होंने सोचा कि वह उठकर चली जाएगी। पर वह वहीं पर बैठी रही। आचार्यश्रीजी ने उसको जाने का इशारा किया। फिर भी वह नहीं उठी। तब आचार्यश्रीजी स्वयं उठकर बाजू में ब्रह्मचारी भाइयों के कमरे में चले गए। पर उन्होंने एकांत में अकेली महिला से बात नहीं की। धन्य हैं। गुरुदेव को जो व्रतों के पालन के प्रति अपनी क्रियाओं के द्वारा सतर्क रहते हुए सब के लिए भी प्रेरणादायी बने हुए हैं।

     

    गुरु आज्ञा की निर्मल परिणति - आचार्यश्रीजी अखंड बाल-ब्रह्मचारी हैं। आपका जीवन चरित्र चंद्रमा की चाँदनी के समान धवल है। वह कभी भी असंयमी, स्त्रीजाति, यहाँ तक कि ब्रह्मचारिणी-शिष्याओं के भी नाम नहीं लेते। एक बार किन्हीं मुनिमहाराज ने कहा- ‘आचार्यश्रीजी महेन्द्र-सुनीताजी आ गए।' एक बार कहा, दो बार कहा, आचार्यश्रीजी ने सुन लिया और मौन रहे। बाद में मुनिश्रीजी से बोले- ‘महिलाओं के नाम आपने मुख से नहीं लेना चाहिए।' सैकड़ों की संख्या में आर्यिकाएँ एवं हजारों की संख्या में ब्रह्मचारिणी बहनें हैं। उनके जीवन को संयमित रूप से संचालित करने, प्रायश्चित देने या किसी प्रकार के निर्देश आदि देने संबंधी कोई भी चर्चा हो, वह सामूहिक रूप में ही किया करते हैं। वे अपने गुरु से प्रदत्त शिक्षानुसार आर्यिकाओं को अपने साथ में नहीं रखते हैं। सन् १९७६, में कंचन माँजी, अजमेर (राजस्थान), रत्तीबाईजी, सतना (मध्यप्रदेश), दराखाबाईजी, संतरामपुर (गुजरात) एवं मणिबाईजी, बागीदौरा (राजस्थान) इन चारों ने आचार्यश्रीजी से आर्यिका दीक्षा की प्रार्थना की। उस समय भी आचार्यश्रीजी ने उनसे, जो कि वह उम्र में बड़ी एवं गृहस्थाश्रम से विरक्ता थीं, कहा कि मैं दीक्षा तो दे दूंगा, पर साथ में नहीं रखेंगा। बाद में इन्हीं के द्वारा ही ब्राह्मी विद्या आश्रम का बीज विकसित हुआ।

     

    ‘मैं अपने संघ में आर्यिका नहीं रखेंगा।' इसलिए १५ वर्ष तक दीक्षा प्रदान नहीं की। और जब १० फरवरी, १९८७ को सिद्धक्षेत्र नैनागिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में प्रथम बार आर्यिका दीक्षा प्रदान की, तब भी दीक्षार्थी बहनों से यही बात कही। दीक्षार्थी बहनों ने जब आचार्यश्रीजी से कहा- ‘हम सभी दीक्षा के बाद कहाँ रहेंगे? कैसे रहेंगे?' तब सत्पथ प्रदर्शक आचार्य भगवन् ने बड़ी ही सहजता से कहा‘मूलाचार ग्रंथ की जहाँ आज्ञा है, वहाँ रहना और उसमें जैसा आचरण बताया है, वैसा आचरण करते हुए रहना।

     

    दीक्षा के बाद आर्यिकाएँ आचार्यश्री के दर्शन एवं मार्गदर्शन हेतु संघ में आती हैं, पर उनकी  वसतिका एकदम पृथक् होती है। छोटी आर्यिकाएँ आगमानुसार बड़ी आर्यिका के बिना गमनागमन नहीं करतीं। कुछ दिन ही ठहरकर उन्हें विहार करना होता है। आचार्यश्रीजी हमेशा कहा करते हैं, मुनियों को श्री और स्त्री से दूर रहना चाहिए और आर्यिकाओं को शिक्षा देते हुए कहते हैं कि कभी भी असंयमी पुरुषों के नाम नहीं लेना चाहिए।

     

    अपवर्ग का सेतु : अपरिग्रह महाव्रत

    आगम की छाँव

     

    त्यजन्ते निखिला यत्र...................माकिंचन्यमहाव्रतम्॥२३०-२३१॥

    जहाँ पर बुद्धिमान् (श्रमण) लोग शरीर, कषाय आदि संसारी जीवों के साथ रहने वाले और वस्त्रालंकार आदि जीव के साथ न रहने वाले समस्त परिग्रहों का त्याग कर देते हैं तथा मन-वचन-काय और कृत-कारित-अनुमोदना से परिग्रहों में होने वाली मूच्र्छा व ममत्व का भी त्याग कर देते हैं, उसको भगवान् जिनेन्द्रदेव ने पूज्य ‘आकिंचन्य' महाव्रत कहा है।

     

     आचार्यश्री का भाव

    आत्मा को हल्का बनाने की प्रक्रिया परिग्रह त्याग है। पर-वस्तु से दूर होना है। परिग्रह त्याग किए बिना आत्मा की बात करना सन्निपात रोग जैसा है। बाह्य और अंतरंग दोनों परिग्रह को छोड़े बिना अहिंसा धर्म की महक नहीं आ सकती, आत्मानुभूति तो दूर की बात है। तीर्थंकरों की पूजा अपरिग्रह के कारण होती है। इस अपरिग्रह महाव्रत को तीर्थंकरों ने पालन किया है। मेरा भी आज सौभाग्य है कि मैंने भी उस अपरिग्रह व्रत को स्वीकार किया और पालन कर रहा हूँ। अपने आपको धन्य मानना चाहिए। संयमोपकरण के लिए एक पिच्छी रहती है। शौचोपकरण के लिए एक कमंडलु रहता है। लेकिन आज ज्ञानोपकरण की संख्या निश्चित नहीं करते हैं। कितने होते हैं, कितने होना चाहिए ? इसके बारे में भी सोच लेना चाहिए ?  परिग्रह कहने से आप लोगों का ध्यान जड़ की ओर चला जाता है, ऐसा नहीं। सचेतन भी  परिग्रह होता है। व्यक्ति विशेष के प्रति मूच्र्छा नहीं रखना चाहिए। कोई व्यक्ति हमारी बात करे, कोई बात नहीं, लेकिन हम उसकी बात करें, यह ठीक नहीं है। यह परिग्रह का कारण है। अभ्यंतर परिग्रह का त्याग करने के लिए बाह्य परिग्रह का त्याग अनिवार्य है। जितने बाह्य पदार्थ हैं उनको औंधा लटका दो, तो भीतर की सभी कषायें बाहर आ जाती हैं। जैसे घड़े को उल्टा कर देने पर सारा घी बाहर आ जाता है, वैसे ही हमें बाह्य पदार्थों की इच्छा को उल्टा कर देने से सारी कषायें बाहर आ जाती हैं। हमें सब बाह्य परिग्रह का त्याग करने के बाद अंतरंग परिग्रह छोड़ना चाहिए था, लेकिन यदि हम बाह्य परिग्रह में ही लगे रहे तो यह ठीक नहीं है। जो निर्दोष अपरिग्रह महाव्रत का पालन करेगा उसका क्षयोपशम भी बढ़ेगा और निर्जरा भी होती है। किसी से परिचय न रखो, उनका पता हम न रखें, वे भले ही हमारा पता रखें। संतों ने, गुरुओं ने उपकरण के बारे में कहा- ‘उपकारं करोति इति उपकरणं', जिससे मोक्षमार्ग में उपकार हो, वह रखो, शेष नहीं। यदि उसके प्रति इच्छा हो गई तो वह परिग्रह हो गया। जिसको छोड़ने के लिए पुरुषार्थ करें किंतु छोड़ा न जाए, वह परिग्रह है। गुरु के लिए शिष्य एवं शिष्य के लिए गुरु भी परिग्रह हो सकते हैं। यह शिष्य जो कर्म क्षय के लिए आया है, किंतु गुरु उससे इधर-उधर के काम करवाए, तो वह शिष्य गुरु के लिए परिग्रह हो गया। गुरु के लिए वह द्वेष या स्नेह का भाजन न बने, बल्कि वह कर्म क्षय के लिए आया है, तो गुरु उसे उसी क्षेत्र में स्थित करें। और शिष्य गुरु को प्रसन्न करने के लिए कमण्डलु नया कर दे, पिच्छी नई बना दे, नई पुस्तक ला दे, पाटा बिछा दे, तो यह शिष्य के लिये गुरु परिग्रह हो गए। भीतरी भाव के बिना परिग्रह नहीं आ सकता। जैसे बच्चा दूध नहीं पीना चाहता तो माँ जबरन पिला देती है, तो वह बच्चा उल्टी कर देता है। वैसे ही बिना अंदर की चाह के परिग्रह अपने आप नहीं चिपकता।* परिग्रह के बीच बैठ जाओ, लेकिन अपने अंदर परिग्रह को मत बैठाना। जैसे नाव पानी में रहे, पर नाव में पानी नहीं आना चाहिए। परिग्रह का त्याग आवश्यक है। जैसे नीचे से अग्नि निकाल दो, तो जो दूध उबल रहा है वह धीरे-धीरे शांत हो जाता है, वैसे ही परिग्रह छोड़ते ही उबलन ठीक होगी। फिर धीरे-धीरे  शांति होगी। फिर स्वस्थ हो जावेगा। फिर संतोष प्राप्त हो जाता है।

     

    साधुव साँप

    घर नहीं बनाते

    खाली रहते।

     

    0045.jpgआचार्यश्री का स्वभाव

    परिग्रह स्वामी, आप सेवक - परिग्रह की परिभाषा ही यही है कि ‘परि आसमन्तात् आत्मानं ग्रह्णाति स परिग्रहः।' जो चारों ओर से आत्मा को खींचता है, ग्रसित कर लेता है, उसका नाम | परिग्रह है।‘परिग्रह' शब्द की निष्पत्ति करते हुए आचार्य महाराज (आचार्य श्री ज्ञानसागरजी) ने एक बार कहा था ‘परितः समन्तात् आत्मानं ग्रह्णाति बध्नाति यत् सः परिग्रहः।' आत्मा को जो चारों ओर से बांध लेता है, ग्रहण कर लेता है, उसका नाम है परिग्रह। परिग्रह को आप नहीं खींचते, बल्कि परिग्रह के माध्यम से आप ही खिंच जाते हैं। परिग्रह को आप नहीं भोगते, बल्कि परिग्रह के द्वारा आप ही भोगे जा रहे हैं। परिग्रह सेठ, साहूकार बन चुका है, आप  उसके नौकर बन गए हैं। यथार्थ में निग्रंथसन् १९७७, सिद्धक्षेत्र द्रोणगिरिजी (छतरपुर, मध्यप्रदेश) में आचार्यश्रीजी विराजमान थे। उस समय भारतवर्षीय दिगंबर जैन तीर्थक्षेत्र कमेटी के अध्यक्ष, भारतीय ज्ञानपीठ, दिल्ली के संस्थापक एवं नवभारत टाइम्स, टाइम्स ऑफ इण्डिया आदि अनेक समाचार पत्रों के मालिक साहू शांतिप्रसादजी, दिल्ली वाले दर्शन करने आए। उसी समय जैनेन्द्रवर्णीजी द्वारा संकलित व संपादित ‘जैनेन्द्र सिद्धांत कोश' का प्रकाशन हुआ था। उसके चारों भाग वे आचार्यश्रीजी को भेंट करने के लिए लाए थे। आचार्यश्रीजी ने उन ग्रंथों का अवलोकन करते हुए कहा-'अच्छा पुरुषार्थ किया है। ऐसा कहकर ग्रंथ वापिस देने लगे। साहूजी बोले- “नहीं, महाराज! हम तो यह भेंट करने लाए हैं।' आचार्यश्रीजी बोले‘नहीं, साहूजी! हम इन्हें कहाँ रखेंगे? हमारे पास ग्रंथालय नहीं है। हम तो निग्रंथ हैं। ग्रंथ पढ़ते हैं, पर अपने पास ग्रंथालय नहीं रखते हैं।

     

    0046.jpgपरिग्रह घड़ी, आरंभ घंटी - कुण्डलपुर का प्रसंग है। एक महाराज ईर्यापथभक्ति में विलम्ब से आए। उन्होंने आचार्यश्रीजी से कहा- “आचार्यश्रीजी! आज कमरे की दीवार घड़ी बंद हो गई, और आज ही घंटी नहीं बजी। अतः समय का पता नहीं चला।' गुरुवर बोले- ‘महाराज! समय (आत्मा) को तो कभी नहीं भूलना चाहिए। और घड़ी की ओर ध्यान देना यह हो गया ‘परिग्रह' एवं घंटी की ओर ध्यान देना यह ‘आरंभ' है। साधु तो आरंभ-परिग्रह का पूर्ण त्यागी होता है। ऐसा कहकर वह हँस दिए। बातों ही बातों में सिद्धांत पिला देना, गुरुवर की अपनी विशेषता है।

    यथार्थ निर्गंथ साधु आचार्यश्री विद्यासागरजी |

     

    उपसंहार

     

    अहिंसा पथ का पथिक अपने पथ का निर्माण स्वयं करता चला जाता है। पथ का निर्माण तो चलने से ही होता है। महाव्रती ही अहिंसा के पथ पर चल सकता है। महाव्रती इसलिए कहा जाता है कि वह अकेला ही महान् पथ पर चल पड़ता है। फिर उसके पीछे बहुतों की संख्या चली जाती है।

    २२ मई, १९९९ नेमावर, (देवास, मध्यप्रदेश) में मूलाचार प्रदीप की कक्षा में आचार्यश्रीजी ने कहा- ‘जिस प्रकार कार तो आजीवन के लिए खरीदी जाती है, परंतु उसे चलाने के लिए समय-समय पर उसमें पेट्रोल डालते रहना पड़ता है। उसी प्रकार ये महाव्रत तो आजीवन के लिए अंगीकार किए जाते हैं, परन्तु उन्हें सुचारु रूप से पालन करने के लिए आगम में कही गईं प्रत्येक महाव्रत की पाँच-पाँच भावनाओं को हमेशा भाते रहना चाहिए, पेट्रोल की भाँति डालते रहना चाहिए।

     

     पाँच पापों का त्याग किया तो पाँच महाव्रत आ गए।

    शेष जो मूलगुण हैं वे इन महाव्रतों की पुष्टि के लिए हैं।


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