हाथ में कमण्डलु लिए सेठ जी छाया की भाँति श्रमण के पीछे-पीछे जा रहे हैं। नगर के पास में ही उपवन (बगीचा) है उपवन में नसियाँ जी है, जिसमें नयनहारी नेमिनाथ भगवान् का जिनबिम्ब है, जो निजस्वरूप का ज्ञान कराता है। नसियाँ जी का गगन चूमता-सा ऊँचा शिखर है, शिखर पर स्वर्ण का कलश चढ़ा हुआ है। जो अपनी कान्ति से बता रहा है कि संसार की सारी चमक-दमक भ्रम पैदा करने वाली और चतुर्गतियों में भटकाने वाली है । इनसे सन्मार्ग नहीं मिलता। जिनबिम्ब के दर्शन करते ही तन रोमांचित हो, मन हर्षित हुआ।
एक बार पुनः गुरु चरणों को नमस्कार कर सेठ ने घर लौटने का उपक्रम किया, पर शरीर शक्ति हीन-सा लगा। आँखों में आँसू भर आए, पथ ओझल-सा हो गया, पैर भारी से लगने लगे। रोकने का प्रयास किया किन्तु रोना रुक न सका। पूज्यपाद, गुरु चरणों में लोट-पोट होता हुआ सेठ जोर-जोर से रोने लगा। रोते हुए मुख से निकले कुछ शब्द-हे गुरुवर! यह जीव आपके चरणों की शरण को छोड़कर वापस घर लौटना नहीं चाहता है। जैसे-हंस मानसरोवर को छोड़ अन्यत्र कहीं जाना नहीं चाहता। फिर भी दुःख की बात है कि शरीर को मन का साथ देना ही पड़ता है।
मेरा मन भी बहुत चंचल है प्रभो ! जल्दी ही उद्वेग-आवेग (क्रोधादि की तीव्रता) से घिर जाता है फिर ऐसी परिस्थिति में संसार के दुःख, पापों से भयभीत हो, धर्म के प्रति रुचि रूप परिणामों के साथ सदाचरण-सम्यक्चारित्र का पालन कैसे संभव हो सकता है? फिर समीचीन आधार के बिना यह जीवन कैसे टिकेगा?
तीव्र कर्मोदय के कारण चाहकर भी धर्म का पालन, पहाड़-सा भारी और कठिन लग रहा है। आषाढ़ माह में आने वाली बाढ़ में, छोटे-छोटे ही नहीं बड़े-बड़े हाथी जैसे प्राणी भी बह जाते हैं, वही दशा मेरी भी हो रही है कर्मों के आगे मैं कुछ भी नहीं कर पा रहा हूँ। मैं अपने आपको बौना ही नहीं किन्तु अपाहिज भी महसूस कर रहा हूँ। लम्बा पथ है कैसे चलें, आकाश को छूता शिखर है कैसे चढ़े और कुशल साथी भी तो नहीं है कैसे बढ़े अब आगे।