अब मान से रहित कुम्भ सबसे आगे है पीछे नौ-नौ व्यक्तियों की दो पंक्तियाँ कुम्भ के पीछे जो परस्पर एक दूसरे के आश्रित हो चल रही हैं। एक माँ की दो सन्तान के समान शरीर से पृथक्-पृथक् किन्तु एक जान-सी और कुम्भ के मुख से निकली मंगल-कामना की पंक्तियाँ
"यहाँ ..... सब का सदा
जीवन बने, मंगलमय
छा जावे सुख-छाँव,
सबके सब टलें....
अमंगल-भाव, "(पृ. 478)
सबका जीवन सदा पुण्य से भरपूर और पाप से खाली रहे, सबके जीवन में सुख की छाँव रहे, सबका सब अमंगल दूर हो, सबकी जीवन लता सद्गुणों से हरी-भरी प्रसन्नचित हो, सबकी असीम इच्छाएँ दूर हों और इच्छा रहित, निर्विकल्प- शान्त जीवन बने बस।
इधर सरिता-तट के किनारों में कुम्भ के स्वागत हेतु आकुलता-सी झलक रही है। उदित होते सूर्य की किरणें, चंचल लहरों में समाती हुई ऐसी लग रही है मानो मदवाली कोई नारी गुलाबी साड़ी पहने हुई स्नान करती-करती सकुचा रही है, पूरा वातावरण सत्य धर्ममय हो चुका है, सरिता का किनारा, तट निकट आ ही गया।
उदित सूर्य की किरणों का, तट में उठते झाग की सफेदी में मिश्रण ऐसा लग रहा है, मानो सरिता तट अपने हाथों में गुलाब फूल की माला लिए स्वागत के लिए खड़े हों। प्रथम ही उत्साह से सादर तट का स्वागत स्वीकारते हुए कुम्भ ने तट का चुम्बन किया फिर प्रसन्नता के साथ सभी नदी से बाहर निकल आए, सभी की पगतलियों ने धरती की दुर्लभ धूल का स्पर्श किया। फिर कमर में बंधी एक- दूसरे की रस्सी खोल दी, इस पर रस्सी बोलती है-मुझे क्षमा करना तुम, मेरी वजह से आप लोगों की दुबली पतली कमर छिल-छुल गई।