किन्तु बेटा सन्मार्ग पर चलना, जीवन में चारित्र को अंगीकार करना खेल मत समझना। भव-भव में जब पुरुषार्थ किया जाता है चारित्र ग्रहण करने की भावना भायी जाती है तब कहीं जाकर यह मुक्ति का पथ मिलता है।
और यह भी समझ लेना होगा कि समझदार, दमदार व्यक्ति भी क्यों न हो काई लगे पाषाण पर यदि पैर रखता है तो उसका पैर भी फिसलता ही है। फिर साधना के प्राथमिक चरण में, दृढ़ आस्थावान पुरुष भी क्यों न हो? फिसलन की, पदच्युत होने की पूरी-पूरी सम्भावना बनी रहती है, कारण की इस आत्मा पर अनादिकालीन राग-द्वेष, मोह रूप विकृत (बुरे) परिणामों का संस्कार जो रहा।
प्राथमिक दशा ही नहीं, निरन्तर अभ्यास के बाद भी स्खलन - संभव है। जैसे प्रतिदिन रोटी बनाने वाले पाक शास्त्री की भी पहली रोटी लगभग कड़ी और जली-सी बनती है इसीलिए मेरी बात ध्यान से सुनो –
"आयास से डरना नहीं
आलस्य करना नहीं!" (पृ. 11 )
कभी पुरुषार्थ, मेहनत से भयभीत नहीं होना और ना ही प्रमाद करना। साधना पथ पर चलते-चलते कभी ऐसी चढ़ाई भी आ सकती है, जिसमें श्रेष्ठ समता-साधक भी विषमता को स्वीकार कर लेता है। पथिक सत्पथ से भटक जाता है, साधक दुख की अनुभूति करने लग जाता है, साधना पथ को छोड़ने का मन बना लेता है, फिर ऐसी दशा में समीचीन चारित्र रूपी चिड़िया उड़ जावेगी एवं क्रोध की बुढ़िया अपना जोर दिखाने लगेगी। असंयमित जीवन में फिर अनर्थ ही अनर्थ शेष बचेगा। इसीलिए बेटा! सुनो –
"प्रतिकार की पारणा
छोड़नी होगी बेटा!
अतिचार की धारणा
तोड़नी होगी बेटा!" (पृ. 12)
आस्था की आराधना स्वरूप साधना की स्वीकार करने के पहले ही बदले की भावना सदा के लिए मन से निकालनी होगी, कोई कितना भी कष्ट दे प्रतीकार नहीं, समता से स्वीकारना होगा। अतिचार यानी ग्रहण किए गए संकल्प में सदोषता का विचार भी मन में नहीं लाना होगा। अन्यथा कालान्तर में ये ही कारण साधना पथ को नष्ट करने में, संयमी जीवन को भ्रष्ट करने में निमित्त बन सकते हैं।
एक बात और कहनी है यदि साधना पथ पर चलते हुए अपनी बुद्धि और गति में विकास चाहती हों तो इतना ध्यान रखना किसी भी सत्कार्य, त्यागसंयम को ग्रहण करने के लिए ज्यादा अनुकूलता की प्रतीक्षा नहीं करना, भाव बनते ही तद्रूप परिणत कर लेना, क्योंकि राग से लिप्त यह जीवन सदा अनुकूलता की ही चाह रखता है, किन्तु अनुकूलता की प्रतीक्षा करना सही-सही पुरुषार्थ नहीं है, इससे साधना की गति में मंदता आ सकती है/आती है। इसी प्रकार साधना करते समय यदि प्रतिकूलताएँ आएँ तो उसे स्वीकार करना, तत्व चिन्तन के माध्यम से समता धारण करना क्योंकि प्रतिकूलता का प्रतिकार करना भी एक प्रकार से द्वेष भावों को ही जन्म देना /आमंत्रित करना है और प्रतिकार करने पर बुद्धि भी क्रोधादि कषाय रूप विकृत परिणामों से मलिन हो जाती है।
साधना करते-करते कभी-कभी ऐसा भी लगता है कि हम जितनी साधना करना चाहते थे नहीं कर पा रहे हैं, पर्याप्त प्रगति नहीं मिल पा रही है, तब साधना की चाह कम होने लगती है। धैर्य छूटने लगता है, साहस कमजोर पड़ने लगता है, मन ग्लानि से भर जाता है, किन्तु ध्यान रखना यह सब श्रद्धालु पुरुष, जो पापों का सर्वथा त्याग करने वाला यमी हो, पाँच इन्द्रियों को वश में करने वाला दमी हो और निरन्तर संवेग और वैराग्य का सहारा ले मोक्षमार्ग में पुरुषार्थ करने वाला हो उसके लिए अभिशाप नहीं किन्तु वरदान ही सिद्ध होते हैं। वह साधक और अधिक दुगुणे उत्साह के साथ पुरुषार्थ करने में जुट जाता है।
पाप = जो दुख देते हैं, पतन की ओर ले जाते हैं, ऐसे हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह।
दही खट्टा हो अथवा मीठा, सही तरीके से मन्थन किया जावे तो नवनीत का लाभ अवश्य ही होता है। इसी प्रकार अच्छी बुरी सभी परिस्थितियों में साधना का आनन्द लिया जा सकता है यदि समीचीन पुरुषार्थ किया जावे तो, परिणाम यह निकला -
"संघर्षमय जीवन का
उपसंहार वह
नियमरूप से
हर्षमय होता है, धन्य!" (पृ. 14 )
जीवन अथवा साधना-पथ चाहे जितना भी संकटों में उलझा हो, किन्तु उसका समापन नियम रूप से प्रसन्नता, आनन्द को देने वाला होता है, क्योंकि दु:ख के बाद नियम से सुख आता है। इसीलिए बेटा! तुझे बार-बार याद दिला रही हूँ कि जीवन में सदा साधु-साध्वियों की आज्ञा पालन करना, उनकी बात टालना नहीं। ‘‘पूत का लक्षण पालने में” ये जो सूति कही जाती है, उसका सही अर्थ अपने बड़े, गुरुजनों की आज्ञा पालने में ही पुत्र का सही लक्षण है, ना कि पालने अर्थात् झूले में। इतना कहकर माँ धरती मौन हो जाती है।
1. दमदार = मजबूत, ताकतवर।
2. स्खलन = फिसलना, हटना।
3. प्रमाद = अच्छे कार्यों में उत्साह नहीं होना, आलस्य करना।
4. विषमता = साम्य परिणामों से विपरीत अवस्था।