योगसार
(1971)
आचार्य योगीन्द्र देव द्वारा रचित अपभ्रंश भाषाबद्ध ‘योगसार' का पद्यानुवाद राष्ट्रभाषा में आचार्यश्री द्वारा लोकहितार्थ किया गया है।
जो 'वसन्ततिलका छन्द' में निबद्ध है। आचार्यश्री ने यह पद्यानुवाद मदनगंज-किशनगढ़, अजमेर (राज) में १९७१ के चातुर्मास काल में पूर्ण किया था। इसमें वास्तविक योग और उसके रहस्य पर प्रकाश डाला गया है। यह अनुवाद भी अत्यन्त समीचीन है। आचार्यदेव कहते हैं कि आत्मा तीन प्रकार की होती है-परमात्मा, अन्तरात्मा और बहिरात्मा। इनमें से बहिरात्मभाव को छोड़कर अन्तरात्मभाव ग्रहण करके परमात्मा का ध्यान करना चाहिए
आत्मा यहाँ विविध है बहिरंतरात्मा,
आदेय ध्येय ‘परमातम' है महात्मा।
तू अन्तरात्म बन के परमात्म ध्या रे!
दे! दे! सुशीघ्र बहिरातम को विदा रे॥६॥