शुद्धात्म में नियम से उपयोग भाता, क्रोधादि में न उपयोग कभी सुहाता।
वो क्रोध, क्रोध भर में उपयोग में ना, हे! भव्य क्रोध अब तो बस छोड़ देना ॥१८८॥
चैतन्य-धाम उपयोग निरा निहाला, नोकर्म कर्म जिसमें न सदा उजाला।
नोकर्म कर्म जड़ पुद्गल का पिटारा, होता कभी न उसमें, उपयोग प्यारा ॥१८९॥
ऐसा जिसे अविपरीत विबोध होता, सारी प्रवृत्ति तजता मन मैल धोता।
शुद्धोपयोग सर में डुबकी लगाता, योगी वही, नित उसे शिर मैं नवाता ॥१९०॥
भारी तपा कनक यद्यपि हो तथापि, भाई नहीं कनकता तजता कदापि।
त्यों कर्म के उदय में तप साधु जाता, पै साधुता न तजता, सुख आशु पाता ॥१९१॥
ज्ञानी सहर्ष शुचि जीवन नित्य जीता, शुद्धोपयोग - पय को भर-पेट पीता।
रागी, सराग - निज को लखता रहेगा, अज्ञानरूप-तम में भटका फिरेगा ॥१९२॥
साधू समाधिरत हो निज को विशुद्ध, जाने, बने सहज शुद्ध अबद्ध बुद्ध।
रागी स्व को समझ रागमयी बिचारा, अज्ञान के तिमिर में निज को बिसारा।
होता न मुक्त भव से दुख हो अपारा ॥१९३॥
जो आपको सब शुभाशुभ वृत्तियों से, पूरा बचाकर सुखासुख साधनों से।
सम्यक्त्व-बोध-व्रत में रुचि से लगाता, है त्याग राग पर का, निज गीत गाता ॥१९४॥
वो सर्व संग तज के मुनि हो इसी से, जाने नितान्त निज में निज को निजी से।
एकत्व की वह छटा मन को लुभाती, नोकर्म, कर्म तक को सबको भुलाती ॥१९५॥
ऐसा निरन्तर निजातम-तत्त्व ध्यानी, सम्यक्त्व-बोध-व्रत में रत साधु ज्ञानी।
हो, कर्म-मुक्त गुणयुक्त सदा लसेगा, लोकाग्र में स्थित शिवालय में बसेगा ॥१९६॥
शिल्पादि लेख लख के जिस भाँति जाना, जाता परोक्षतम-पूर्ण पदार्थ बाना।
सत् शास्त्र के मनन से गुरु देशना से, हो जाय ज्ञात यह जीव सुसाधना से ॥१९७॥
प्रत्यक्ष ज्ञान बल से जिन केवली है, जैसे निजात्म लखते सबसे बली है।
साक्षातकार जिनका बन जाय ऐसा-छद्मस्थ होकर कहे बुध कौन वैसा ॥१९८॥
मिथ्यात्व औ अविरती जड़-बोध, योग, रागादि के जनक ये सुख के वियोग।
आलोक से सकल लोक अलोक देखा, सर्वज्ञ ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥१९९॥
होता जभी विलय भी इनका तभी से, हो नष्ट आस्रव मुनीश्वर का सही है।
औचित्य ! आस्रव जभी मिटते सभी हैं, आठों कुकर्म मिटते सहसा तभी हैं ॥२००॥
दुष्टाष्ट कर्म मिटते तन मेल टूटे, संदेह क्या तन मिटा जग जेल छूटे।
विज्ञान की किरण उज्वल पूर्ण फूटे, आनन्द लाभ फिर तो चिरकाल लूटे ॥२०१॥