धारा विराग दृग जो मुनिधर्म पाके, होते उन्हें विषय कारण निर्जरा के।
भोगोपभोग करते सब इन्द्रियों से, साधू सुधी न बंधते विधि-बंधनों से ॥२०२॥
भोगोपभोग जब वे मुनि भोगते हैं? होते अवश्य सुख-दुःख नियोग से हैं।
ले स्वाद दुःख सुख का बनते न रागी, वे निर्जरा करम की करते विरागी ॥२०३॥
खाता भले विष सुधी विष, मंत्र, ज्ञाता, पाता न मृत्यु फिर भी दुख भी न पाता।
त्यों निर्विकल्पक समाधि विलीन ध्यानी, भोगे विपाक विधि के बँधते न ज्ञानी॥२०४॥
होता प्रमत्त नहिं मादकता घटा के, जो मद्यपान करता रुचि को हटा के।
ज्ञानी विराग मुनि भोगत भोग सारे, ये कर्म से न बंधते, निज को निहारे ॥२०५॥
लो भोग, भोगकर भी मुनि हो न भोगी, भोगे बिना जड़ कुधी बन जाय भोगी।
इच्छा बिना यदि करे कुछ कार्य त्यागी, कर्ता कथं फिर बने पर का विरागी ॥२०६॥
होता यदा उदय पुद्गल क्रोध का है, तो भाव क्रोध उगता रिपु बोध का है।
होगा नहीं यह विभाव, स्वभाव मेरा, ज्ञानी निरामय निरा नित मैं अकेला ॥२०७॥
रागादि भाव तुममें जब हो रहे हैं, कैसा कहो फिर उन्हें पर वे रहे हैं।
भाई ‘विभाव' न‘स्वभाव' अत: निरे हैं, कायादि भी पर अत: मुझसे घिरे हैं ॥२०८॥
होता वही श्रमण है समदृष्टि वाला, पीता सदा परम पावन बोध प्याला।
है डूबता बहुत भीतर-चेतना में, देता न दृष्टि उदयागत वेदना में ॥२०९॥
विश्वास हो विविध है विधि के विपाक, ऐसा कहें जिन, जिन्हें मम ढोक लाख।
होगा नहीं यह विभाव, स्वभाव मेरा, ज्ञानी निरामय निरा, नित मैं अकेला ॥२१०॥
तू राग को तनिक भी तन में रखेगा, शुद्धात्म को फिर कदापि नहीं लखेगा,
होगा विशारद जिनागम में भले ही, आत्मा त्वदीय कुछ औ भव में डुले ही ॥२११॥
आत्मा न आतम-अनातम को लखेगा, सम्यक्त्व पात्र किस भाँति अहो बनेगा।
यो कुन्द-कुन्द कहते बन वीतरागी, क्यों व्यर्थ दुःख सहता तज राग रागी ॥२१२॥
संभोग-भाव सब भोग्य पदार्थ भाई, प्रत्येक काल मिटते न यथार्थ थाई।
ज्ञानी मुनीश इस भाँति जभी लखेगा, कांक्षा पुनः किसलिए किसकी रखेगा? ॥२१३॥
संसार-काय, विधिबंधन भोग द्वारा, धारा प्रवाह चलते जग में सुचारा।
ज्ञानी तभी मुनि करें उनमें न प्रीति, आश्चर्य क्या? जब हुई निज की प्रतीति ॥२१४॥
देहादि को यदि मदीय मनो! कहूँगा, नि:शंक चेतन, अचेतन मैं बनूंगा।
मैं तो सचेतन निकेतन हो तना हुँ? मेरा नहीं पर परिग्रह, मैं बना हूँ॥२१५॥
ये द्रव्य-भावमय कर्म विभाव सारे, छोड़ो इन्हें ध्रुव नहीं व्यय शील वाले।
शुद्धात्म से प्रभव भाव-स्वभाव धारो, जो है अबाध ध्रुव केवल विश्व सारो ॥२१६॥
ऊबा हुआ विषय से मुनि वीतरागी, डूबा हुआ स्वयम में सब ग्रन्थ त्यागी।
मेरा शरीर यह है तज बुद्धिमानी, ऐसा भला कहत है वह कौन ज्ञानी? ॥२१७॥
हो जीर्ण-शीर्ण तन पूर्ण सड़े गले ही, भाई भले अनल से पल में जले ही।
हो खण्ड-खण्ड अणु होकर भी खिरेगा, मेरा न राग तन में फिर भी जगेगा ॥२१८॥
सद्बोध रूप सर में डुबकी लगाले, संतप्त तू स्नपित हो सुख शांति पाले।
औ अन्त में बल अनन्त ज्वलन्त पाके , विश्राम ले अमित काल स्वधाम जाके ॥२१९॥
विज्ञान पंचविधि एक निजातमा है, सत्यार्थ है निरखते अघ-खातमा है।
लेता सहाय निज का यदि चाव से तू, लेगा विराम चिर चेतन छाँव में तू ॥२२०॥
होते कई मुनि, बिना निज बोध जीते, पीते सुधा न निज की रह जाय रीते।
विज्ञान को भज अतः, विधि काटना है, तू चाहता यदि निजी निधि छाँटना है॥२२१॥
धर्मानुराग शुभराग शुभोपयोग, चाहे नहीं मुनि परिग्रह का सुयोग।
त्यागी रहा इसलिए शुभ धर्म का है, ज्ञाता निरन्तर, न बंधक कर्म का है॥२२२॥
होता अधर्ममय है अशुभोपयोग, ज्ञानी न चाहत कभी अघ संग योग।
ज्ञाता अत: मुनि निसंग कुभोग का है, सच्चा उपासक रहा उपयोग का है॥२२३॥
तत्त्वार्थ का सब पदार्थन का यथार्थ, शब्दार्थ अर्थ गहता सबके हितार्थ।
साधू तथापि श्रुत का अभिमान त्यागी, संसार सौख्य नहिं चाहत वीतरागी ॥२२४॥
ज्ञानी वही श्रमण है अपरिग्रही है, इच्छा कभी अशन की करता नहीं है।
ज्ञाता अतः अशन का रहता सही है, निस्संग को मुकति की मिलती मही है ॥२२५॥
ज्ञानी वही श्रमण है अपरिग्रही है, वो-चाहता तरलपान कभी नहीं है।
ज्ञाता रहा इसलिए रस पान का है, निस्संग है रसिक भी निज ज्ञान का है॥२२६॥
यों अंतरंग-बहिरंग निसंग ज्ञानी, होता निरीह सबसे सुन संत वाणी।
आकाश सा निरवलम्बन जी रहा है, ज्ञानाभिभूत-समता रस पी रहा है ॥२२७॥
ना भूत की स्मृति अनागत की अपेक्षा, भोगोपभोग मिलने पर भी उपेक्षा।
ज्ञानी जिन्हें विषय तो विष दीखते हैं, वैराग्य-पाठ उनसे हम सीखते हैं ॥२२८॥
ज्ञानी न बंध करता विधि से घिरा हो, पंचेन्द्रि के विषय से जब वो निरा हो।
हो पंक में कनक पै रहता सही है, आत्मीयता कनकता तजता नहीं है ॥२२९॥
पंचेद्रियों विषय में रममान होता, तो मूढ़ बंध विधि को स्वयमेव ढोता।
लोहा स्वयं कि जब कर्दम संग पाता,धिक् धिक् स्वभाव तजता झट जंग खाता ॥२३०॥
सिंदूर नाग-फणि की जड़ ढूँढ लाओ, औ मूत्र भी हथिनि की उनमें मिलाओ।
ज्यों धोंकनी धुनकती रस प्राप्त होता, सीसा सुवर्ण बनता जब भाग्य होता ॥२३१॥
है अष्ट कर्म मल किट्ठ असार सारा, लोहा बना पतित आतम है हमारा।
रागादि ही कलुष कालिख मात्र जानो, सम्यक्त्व-बोध-व्रत औषध पात्र मानो ॥२३२॥
सदध्यान की धधकती अगनी जलाओ, त्यों धोंकनी तपमयी तुम तो चलाओ।
योगी बनो सतत आतम गीत गालो, ज्योतिर्मयी शुचिमयी निज को बनालो ॥२३३॥
जैसा सफेद वह शंख सुशोभता है, निर्जीव जीवमय द्रव्य सुभोगता है।
कोई नहीं धवलता उसकी मिटाता, है कृष्णता न उसमें पुनि डाल पाता ॥२३४॥
नाना अचेतन सचेतन भोग भोगे, ज्ञानी मुनीश मुनि के-व्रत पा अनोखे।
ऐसा विबोध मुनि का डिग क्यों सकेगा? रागाभिभूत कर कौन उसे सकेगा? ॥२३५॥
मानो कि शंख खुद ही निज से चिगेगा, आत्मीयता धवलता यदि वो तजेगा।
तो कृष्णता कलुषता उसमें उगेगी, वैभाविकी परिणती फिर क्यों रुकेगी? ॥२३६॥
निर्जीव शंख खुद वो निज से चिगेगा, आत्मीयता धवलता यदि हा! तजेगा!
तो कृष्णता कलुषता उसमें उगेगी, वैभाविकी परिणती फिर क्यों रुकेगी ॥२३७॥
ज्ञानी स्वयं यदि मनो! भजता विधि को, विज्ञान की उजलता तजता निधी को।
अज्ञान रूप ढलता फिर क्या बताना!! दुर्भाग्य पाक सहता भव दुःख नाना ॥२३८॥
कोई यहाँ नर नराधिप की सुसेवा, मानो धनाढ्य बनने करता सदैवा।
राजा उसे सुखद-सुन्दर-सम्पदायें, देता सुदुर्लभ अभीष्ट विलासतायें ॥२३९॥
हो कर्म-सेव करता इस ही प्रमाणे-संसारिजीव यदि संपति-भोग पाने।
तो कर्म भी विविध सौख्य प्रमोदकारी, देता उसे क्षणिक-भौतिक-दुःखकारी ॥२४०॥
मानो धनाढ्य बनने करता न सेवा, कोई यहाँ नर नराधिप की सदैवा।
राजा कभी न मनवांछित सम्पदायें, देता उसे सुखद पूर्ण विलासतायें ॥२४१॥
साधू विराग दृग पा निज में लसें वे, ना कर्म को विषय सेवन हेतु सेवें।
तो कर्म भी न उनको सुख-सम्पदा दे, तू कर्म-धर्म पर ध्यान अतः सदा दे ॥२४२॥
नि:शंक हो मुनि सदा समदृष्टि वाले, सातों प्रकार भय छोड़ स्वगीत गाले।
निःशंकिता अभयता इक साथ होती, तो भीति ही स्वयम हो भयभीत रोती ॥२४३॥
मिथ्यात्व औ अविरती कुकषाय योगों को रोकते, विधि-विमोहक बाधकों को।
नि:शंक हैं निडर हैं समदृष्टि वाले, रे वीतराग बनके मुनि शील-पाले ॥२४४॥
कांक्षा कभी न रखता जड़ पर्ययों में, धर्मो पदार्थ दल के विधि के फलों में।
होता वही मुनि निकांक्षित अंगधारी, वंदें उसे बन सकें द्रुत निर्विकारी ॥२४५॥
कोई घृणास्पद नहीं जग में पदार्थ, सारे सदा परिणमें निज में यथार्थ।
ज्ञानी न ग्लानि करते मुनि हो किसी से, धारे तृतीय दृग अंग तभी रुची से ॥२४६॥
ना मुग्ध मूढ मुनि हो जग वस्तुओं में, हो लीन आप अपने-अपने गुणों में।
वे ही महान समदृष्टि अमूढदृष्टि, नासाग्र-दृष्टि रख नासत कर्म-सृष्टि ॥२४७॥
मिथ्यात्व आदिक शुभाशुभ भाव छोड़े, हैं सिद्धभक्तिरत हैं मन को मरोड़े।
सम्यक्त्वसंग उपगूहन अंगधारी, वे मान्य पूज्य अनगार, नहीं अगारी ॥२४८॥
उन्मार्ग पे विचरता मन को हटाता, सन्मार्ग पे नियम से मुनि जो लगाता।
वो ही स्थितीकरण अंग सुधारता है, संसार से तिर रहा जग-तारता है ॥२४९॥
ज्ञानादि रत्नत्रय में शिवपंथियों में, वात्सल्य भाव रखता मुनि-पुंगवों में।
माना गया समय में सम-दृष्टिवाला, वात्सल्य अंग अवधारक शांत शाला ॥२५०॥
हो रूढ़ ध्यान रथ, हाथ लगाम लेता, जो धावमान मन को झट थाम लेता।
सम्यक्त्व मंडित महा मुनि साधना है, होती नितान्त जिन-धर्म प्रभावना है ॥२५१॥