क्रोधादि आस्रव निरे मुझसे सदा से, मैं हूँ अभिन्न निज-बोधमयी सुधा से।
ऐसा न मूढ़ जब लौं, वह जान पाता, क्रोधाग्नि से स्वयम को तबलौं जलाता ॥७४॥
क्रोधाग्नि से यह कुधी जबलौं जलेगा, तो कर्म का चयन भी तबलौं करेगा।
है जीव की यह रही विधिबन्ध गाथा, सर्वज्ञ का मत यही यह छंद गाता ॥७५॥
रागात्म में निहित अन्तर जान पाता, ज्ञानी वही मुनि जिनागम में कहाता।
पाता न आस्रव नहीं विधिबन्ध नाता, होता समाधिरत है पर को भुलाता ॥७६॥
दु:खों अनात्म-मय-कार्मिक आस्रवों को, एकान्त से अशुचियों दुखकारणों को।
अत्यन्त हेय लख के तजता विरागी, ज्ञानी वही मुनि अतः तज राग राजी ॥७७॥
मैं एक शुद्ध नय से दृग बोध स्वामी, हूँ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अबद्धनामी।
नीराग भाव करता निज लीन होऊँ, शुद्धोपयोग बल से विधि-पंक धोऊँ ॥७८॥
क्रोधादि कर्म मम आतम में बंधे हैं, ना है शरण्य ध्रुव वे मुझसे जुदे हैं।
है दुःख, दुःख फलदायक जान ऐसा, हैं छोड़ते मुनि इन्हें धर नग्न-भेषा ॥७९॥
नोकर्मरूप जड़ पुद्गलकाय का भी, मोहादिकर्म रतिराग विभाव का भी।
कर्ता न आतम रहा, इस भाँति ज्ञानी, हैं जानते हृदय से सुन सन्त वाणी ॥८०॥
आत्मा अशुद्धनय से परभाव कर्ता, होता विशुद्ध नय से निजभाव कर्ता।
धर्मानुराग तक को ‘पर मान' ज्ञानी, विश्रांत हो स्वयम में बनते न मानी ॥८१॥
जो भी अनेक विध हैं विधि आतमा में, ज्ञानी उन्हें निरखते रत हो क्षमा में।
वे साधु किन्तु न कभी पर रूप पाते, स्वीकारते न पर को पर में न जाते ॥८२॥
निष्पाप आप अपने अपने गुणों को, ज्ञानी सदैव लखते तज दुर्गुणों को।
आधार ले न पर का पर में न जाते, वे साधु किन्तु न कभी पर रूप पाते ॥८३॥
ज्ञानी नितान्त सुख के दुख के दलों को, हैं जानते जड़मयी विधि के फलों को।
वे साधु किन्तु न कभी पर रूप पाते, स्वीकारते न पर को पर में न जाते ॥८४॥
विज्ञान-हीन जड़ पुद्गल भी सदा से, होता सुशोभित नितान्त निजी दशा से।
पै छोड़ के न जड़ता पररूप पाता, स्वीकारता न पर को पर में न जाता ॥८५॥
है जीव में विकृत रागमयी दशायें, तो कर्मरूप ढलती विधिवर्गणायें।
मोहादि का उदय पाकर जीव होता, रागादिमान फलतः निज होश खोता ॥८६॥
कर्ता न जीव यह हो विधि के गुणों का, कर्ता कभी न विधि चेतन के गुणों का।
तो भी परस्पर निमित्त नहीं बनेंगे, तो ‘रागभाव' ‘विधिभाव' न जन्म लेंगे ॥८७॥
भाई अतः समझ लो मन में सुचारा, कर्ता निजात्म, निज का निज भाव द्वारा।
रूपादिमान जड़ पुद्गल कर्म सारे, आत्मा उन्हें न करता जिन यों पुकारे॥८८॥
आत्मा सुनिश्चित स्वभाव विभाव कर्ता, भोक्ता स्वयं स्वयम का निज शक्ति भर्ता।
जैसा सुशान्त सर हो सर ही हिलोरा, लेता, उठी लहर हो, जब वायु जोरा ॥८९॥
कर्ता तथापि व्यवहारतया जड़ों का, भोक्ता सचेतन रहा विधि के फलों का।
ऐसा न हो फिर हमें सुख क्यों न होता? संसार क्यों फिर भला दिन-रैन रोता ॥१०॥
आत्मा उसी तरह पुद्गल कर्म को भी, ज्यों वेदता व करता निज धर्म को भी।
ऐसा कहो यदि अरे! पुरुषार्थ जाता, संसार का सृजक ईश्वर-वाद आता ॥९१॥
आत्मा, स्वभाव-पर पुद्गल भाव को ही, हो एकमेक करता इक साथ सो ही।
ऐसा सदैव कहता लघु-धी विकारी, मिथ्यात्व मंडित मुधा, द्विक्रियावधारी ॥९२॥
ज्यों मोह के उदय में यह शीघ्र आत्मा, रागादिभाव करता बनता दुरात्मा।
त्यों मोह का उदय पा निज को भुलाता, आनन्द स्वीय तजता सुख-दुःख पाता ॥९३॥
मिथ्यात्व मान मद मोह प्रलोभ द्वारा, अज्ञान औ अविरती रतिराग सारा।
ये हैं द्विधा जड़ सचेतन भेद द्वारा, संसार मार्ग चलता इनसे असारा ॥९४॥
मिथ्यात्व से बन रही भव बीच फेरी, अज्ञान औ अविरती त्रय योग वैरी।
चारों अजीव जड़ पुद्गलशील-वाले, औ चार जीवमय हैं उपयोग वाले ॥९५॥
मोहाभिभूत उपयोग धरे अनादि, निम्नोक्त तीन परिणाम करें प्रमादी।
अज्ञान औ अविरती अरु दृष्टि मिथ्या, पाया अतः न अबलौं सुख सत्य नित्या ॥९६॥
लो वस्तुतः शुचि निरंजन आतमा है, तो भी रहा त्रिविध मोहतया भ्रमा है।
जैसा विभाव करता उपयोग भाता, कर्ता उसी समय है उसका कहाता ॥९७॥
रागादिभाव कर जीव जभी सुहाता, तत्काल पुद्गल स्वयं विधि रूप पाता।
आकाश में रवि लसे फिर होय वर्षा, क्यों ना बने सुरधनू सहसा सहर्षा? ॥९८॥
है अन्यरूप करता निज को विमोही, औ आत्मरूप करता जड़ अन्य को ही।
हा! मूढ़ जीव विधि बन्धन को जुटाता, धिक्कार कातर निरंतर पीर पाता ॥९९॥
जो अन्य को निजमयी करता नहीं है, औ आपको परमयी करता नहीं है।
ज्ञानी वही मुनिवशी सुख बीज बोता, ना कर्म बन्ध करता निज लीन होता ॥१००॥
मिथ्यादिरूप ढलता उपयोग गाता, मैं क्रोध हूँ सतत यों रट है लगाता।
कर्ता अतः वह निजी उस भाव का है, ज्ञाता नहीं विमल निर्मल भाव का है ॥१०१॥
मिथ्यादि रूप ढलता उपयोग गाता, धर्मादि द्रव्यमय हूँ निज को भुलाता।
कर्ता अतः वह निजी उस भाव का है, ज्ञाता नहीं विमल निर्मल भाव का है॥१०२॥
अज्ञान से भ्रमित हो पर को निजात्मा, शुद्धात्म को परमयी करता दुरात्मा।
घोरान्धकार चहुँ ओर घनी निशा में, औचित्य! पैर पड़ते उल्टी दिशा में ॥१०३॥
आत्मा सुनिश्चित निजीय विभाव कर्ता, आत्मज्ञ हैं कह रहे पर भाव हर्ता।
ऐसा रहस्य सुन के मुनि अप्रमादी, कर्तृत्त्व भाव तजते भजते समाधि ॥१०४॥
कर्ता कुम्हार घट का व्यवहार से है, वो क्योंकि निश्चित सहायक बाह्य से है।
होता उसी तरह जीव निमित्त कर्ता, नोकर्म कर्म मन का, निज शक्ति-भर्ता ॥१०५॥
मानो कुम्हार घट निश्चय से बनाता, क्यों कुम्भ रूप ढल तन्मय हो न पाता।
कर्त्री स्वकार्य घट की मृतिका अतः है, कर्ता निजातम रहा निजका स्वत: है ॥१०६॥
कर्ता नहीं जड़ अचेतन वस्तुओं का, आत्मा निमित्त तक भी न घटादिकों का।
योगोपयोग जिनमें कि निमित्त होते, योगादिकों कर कुधी जड़ सत्य खोते ॥१०७॥
निस्सारभूत जड़ पुद्गल भाव धारे, ये ज्ञान-आवरण आदिक-कर्म सारे।
आत्मा इन्हें न करता इस भाँति योगी, ज्ञानी सदा समझते, तज भोग भोगी ॥१०८॥
आत्मा शुभाशुभ विभाव जभी करेगा, कर्ता तभी नियम से उसका बनेगा।
यों बार-बार कर कर्म कुधी सरागी, है भोगता दुख कभी सुख, दोष भागी ॥१०९॥
जो द्रव्य आप अपने-अपने गुणों में, होता न संक्रमित है पर के गुणों में।
वो अन्य को परिणमा सकता हि कैसे? अन्धा भला पथ दिखा सकता हि कैसे? ॥११०॥
तादात्म्य धार निज द्रव्य निजी गुणों से, आत्मा उन्हें कर रहा कि, युगों-युगों से।
पाया सुयोग विधि पुद्गल का तथापि, स्वामी न आतम बना, विधि का कदापि ॥१११॥
अज्ञानि का विकृत भाव निमित्त होता, तो आप पुद्गल अहो! विधिरूप होता।
जीवात्म ने विविध कर्म किये इसी से, माना अवश्य उपचार किया खुशी से ॥११२॥
लो युद्ध यद्यपि सुसैनिक ने किया है, लोकोपचार वह भूपति ने किया है।
दुष्टाष्ट कर्म दल को जड़ ने बनाया, पै मानना विकृत आतम ने बनाया ॥११३॥
स्वीकारता परिणमा करता कराता, आत्मा सबंध पर पुद्गल को उगाता।
ऐसा नितान्त व्यवहार सुबोलता है, जो भव्य के सहज लोचन खोलता है॥११४॥
राजा, गुणी अवगुणी करता प्रजा को, वो पूर्ण सत्य व्यवहार, नहीं मजा-को।
आत्मा करे विधिमयी जड़द्रव्य को है, ऐसा न मान्य व्यवहार, अभव्य को है ॥११५॥
सामान्य से चउविधा विधिबन्ध कर्ता, निम्नोक्त है दुखद है शुचि-भाव-हर्ता।
मिथ्यात्व औ अविरती कुकषाय योग, ज्यों ये मिटे नियम से भव का वियोग ॥११६॥
मिथ्यात्व लेकर सुयोगि सुकेवली लौं, ये हैं विभेद उनके दस तीन भी लो।
ये दीन जीव गुणथानन, में पड़े हैं, स्वाधीन सिद्ध सब वे इनसे परे हैं ॥११७॥
मिथ्यात्व आदि गुण पुद्गल से बने हैं, सारे अचेतन निकेतन ही तने हैं।
ये कर्म को कर रहे यदि हों तथापि, आत्मा न भोग सकता उनको कदापि ॥११८॥
निर्धान्त! प्रत्यय सभी गुण-नाम वाले, दुष्टाष्ट कर्म करते मन को विदारे।
ज्ञाता विशुद्ध नय से निजधर्म धर्ता, कर्त्ता न आतम रहा गुण कर्म-कर्ता ॥११९॥
है जीव से समुपयोग अभिन्न जैसा, है क्रोध भी यदि त्रिकाल अभिन्न वैसा।
तो एक-मेक सब जीव-अजीव होंगे, ये बंध मोक्ष फिर तो सब साफ होंगे ॥१२०॥
हो क्रोध आत्ममय ज्यों उपयोग भाता, आत्मा अनात्म जड़ में ढल पूर्ण जाता।
नोकर्म कर्म तक प्रत्यय आदि सारा, आत्मीय हो फिर नहीं भव का किनारा ॥१२१॥
पूर्वोक्त दोष भय से यदि मित्र मानो, है क्रोध भिन्न निज आतम भिन्न मानो।
बाधा रही न फिर तो अति भिन्न न्यारे, शुद्धात्म से जड़मयी विधि कार्य सारे ॥१२२॥
जो जीव में जड़ बँधा न स्वयं बँधा है, वो कर्मरूप ढलता न स्वयं सदा है।
ऐसा त्वदीय मन का यदि भाव होगा, तो मित्र पुद्गल नहीं परिणामि होगा ॥१२३॥
किंवा स्वयं न ढलती विधि वर्गणायें, कर्मत्व में सहज पुद्गल की घटायें।
साम्राज्य सांख्य मत का फिर तो चलेगा, संसार का फिर पता रह ना सकेगा ॥१२४॥
आत्मा स्वयं परिणमाकर पुद्गलों को, देता बना विधि, मनो! विधि शक्तियों को।
आश्चर्य है! जड़ नहीं परिणामि वैसे!! आत्मा उन्हें परिणमा सकता हि कैसे? ॥१२५॥
है कर्म-रूप ढलता जड़ द्रव्य आप, हो मानते यदि यहाँ इस भाँति आप।
आत्मा स्वयं विधिमयी जड़ को बनाता, यों मानना फिर असत्य न सत्य भाता ॥१॥
निष्कर्ष चूँकि निकला विधि वर्गणायें, हैं कर्मरूप ढलती जड़ शक्तियाँ ये।
है अष्टकर्म सब पुद्गल शील वाले, विश्वास ईदृश अतः मन में जमाले ॥२॥
आत्मा स्वयं यदि नहीं विधि से बँधा है, क्रोधाभिभूत यदि हो न स्वयं सदा है।
तू मानता इस विधी कर बोध आत्मा, तो क्यों न हो अपरिणामि त्वदीय आत्मा ॥१२६॥
किंवा मनो अपरिणामि त्वदीय आत्मा, क्रोधाभिभूत यदि हो न स्वयं दुरात्मा।
संसार का फिर पता चल ना सकेगा, साम्राज्य सांख्यमत का सहसा चलेगा ॥१२७॥
मानो कि क्रोध खुद, पुद्गल को सुहाता, क्रोधाभिभूत यदि आतम को बनाता।
आत्मा रहा अपरिणामि तथापि कैसा? क्रोधी उसे कि, वह क्रोध बनाय कैसा? ॥१२८॥
क्रोधाभिभूत बनता बस आत्म आप, हो मानते यदि यहाँ इस भाँति आप।
तो क्रोध, क्रोधमय-आतम को बनाता, यों मानना फिर असत्य न सत्य गाथा ॥१२९॥
आत्मा करे जब प्रलोभ तभी प्रलोभी, मानी तभी जब करे अघ मान को भी।
मायाभिभूत बनता कर निंद्य माया, क्रोधी बने करत क्रोध स्वको भुलाया ॥१३०॥
हो अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, जो लीन आत्मरति में बनके अनंगा।
साधू निसंग वह निश्चय से कहाता, ऐसा कहे सब पदार्थ यथार्थ ज्ञाता ॥१३१॥
सम्मोह को शमित भी जिनने किया है? आधार ज्ञान-गुण का मुनि हो लिया है।
\वे वीतराग जितमोह सुधी कहाते, विज्ञान के रसिक यों हमको बताते ॥१३२॥
शुद्धोपयोग भजते तज सर्व भोग, धर्मानुराग तक त्याग शुभोपयोग।
वे हैं सुधी मुनि, पराश्रित धर्मत्यागी, ऐसा कहें गणधरादिक वीतरागी ॥१३३॥
आत्मा स्वयं हृदय में कुछ भाव लाता, कर्ता उसी समय वो उसका कहाता।
हो ज्ञान-भाव मुनि में अपरिग्रही में, अज्ञान भाव जु गृहस्थ परिग्रही में ॥१३४॥
है ज्ञान भाव करता मुनि अप्रमादी, तो कर्म से न बँधता लखता समाधि।
अज्ञान भाव कर नित्य गृही प्रमादी, है कर्म जाल फँसता मति को मिटा दी ॥१३५॥
लो! ज्ञान से उदित ज्ञान नितान्त होता, हे साधु बीज सम ही फल चूंकि होता।
हो वीतराग मुनि जो कुछ ध्यान ध्याता, वो सर्वज्ञानमय ही, विधि को मिटाता ॥१३६॥
उत्पन्न मात्र भ्रम से भ्रमभाव होता, औचित्य कारण समा बस कार्य होता।
अज्ञानि-जीव मन में कुछ भी विचारे? अज्ञान से भरितभाव नितान्त पाले ॥१३७॥
लो! स्वर्ण के मुकुट कुण्डल ही बनेंगे, अच्छे किसे नहिं लगे मन को हरेंगे।
विज्ञानि के विमल भाव रहे रहेंगे, वे पूर्व के सकल कर्म हरे हरेंगे ॥१३८॥
लो! लोह, लोहमय आयुध का विधाता, देखो जिन्हें कि भय से मन काँप जाता।
अज्ञानि में तरल राग तरंग माला, देती उसे दुख पिलाकर पाप हाला॥१३९॥
अज्ञान का उदय आतम में जभी हो, है आत्म ज्ञान मिटता उलटा सभी हो।
मिथ्यात्व के उदय में पर को निजात्मा, है मान भूल करता, बनता दुरात्मा ॥१४०॥
आत्मा स्वयं जब असंयम से घिरेगा, स्वच्छन्द हो विषय सेवन ही करेगा।
कालुष्य की सघन कालिख से लिपेगा-आत्मा कषायमय दीपक ज्यों जलेगा ॥१४१॥
आत्मा स्वयं तब तरंगित हो हिलोरा-लेता, चले जब शुभा-शुभ योग जोरा।
हो तीव्र या पवन मंद जभी चलेगी, भाई अवश्य सर में लहरें उठेगी ॥१४२॥
पूर्वोक्त रूप घटना घटती जभी से, तो वर्गणा विधिमयी विधि हो तभी से।
हैं अष्ट कर्म बँधते इस जीव से हैं, देते अतीव दुख हैं कटु नीम से हैं ॥१४३॥
ये ही यदा उदय में वसु कर्म आते, तो जीव की विकृति में पड़ हेतु जाते।
संसार की प्रगति औ गति हो चलेगी, मेटे इन्हें मुनि जिन्हें मुक्ती मिलेगी ॥१४४॥
रागादि ये विकृत चेतन की दशायें, मोहादि के उदय में दुख आपदायें।
पै जीव-कर्म मिलके यदि राग होगा, तो कर्म चेतन, अचेतन जीव होगा ॥१४५॥
मोहादिका उदय पाकर जीव रागी, होता स्वयं नहिं कभी कहते विरागी।
धूली बिना जल कलंकित क्या बनेगा? क्या अग्नि योगबिननीरकभी जलेगा? ॥१४६॥
लो! जीव संग यदि पुद्गल वर्गणायें, है कर्मरूप ढलती दुख आपदायें।
दोनों नितान्त तब पुद्गल ही बनेंगे, आकाश फूल भव औ शिव भी बनेंगे ॥
रागादि भाव करता जड जीव ज्यों ही, हैं कर्मरूप ढलते जड़ द्रव्य त्यों ही।
रागादि से पृथक पुद्गल है इसी से, ऐसा समाधिरत साधु लखे रुची से ॥१४७॥
गाता विशुद्धनय जीव सदा जुदा है, दुष्टाष्ट कर्म दल से न कभी बंधा है।
संसारिजीव विधि से बँधता, बँधा था, यों भावभीनि स्वर में व्यवहार गाता ॥१४८॥
है पक्षपात यह तो नय नीति सारी, है निर्विकार यह आतम या विकारी।
वे वस्तुतः समयसार बने लसे हैं, जो साधु ऊपर उठे नय पक्ष से हैं ॥१४९॥
सर्वज्ञ ज्यों समयसारमयी बने हैं, साक्षी बने सहज दो नय के तने हैं।
त्यों साधु भी न बनता नय पक्षपाती, हो आत्मलीन! तजता पररीति-जाति ॥१५०॥
संसार में समयसार सुधा सुधारा, लेता प्रमाण नय का न कभी सहारा।
होता वही दृगगमयी व्रत-बोध-धाम, मेरे उसे विनय से शतशः प्रणाम ॥१५१॥