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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • स्याद्वाद-अधिकार

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    उजल उजल स्याद्वाद-शुद्धि हो जो बुध को अति भाती है,

    वस्तु-तत्त्व की सरल व्यवस्था इसीलिए की जाती है।

    एक ज्ञान ही युगपत् होता उपाय उपेय किस विध है,

    इसका भी कुछ विचार करते गुरुवर बुधजन इस विध है ॥२४७॥

     

    पशु सम एकान्ती का निश्चित ज्ञान पूर्णतः सोया है,

    पर में उलझा हुवा सदा है निज बल को बस खोया है।

    स्याद्वादी का यदपि ज्ञान वह सकल ज्ञेय का है ज्ञाता,

    तदपि निजी पन तजता नहिं है स्वरस भरित ही है भाता ॥२४८॥

     

    देख जगत को 'ज्ञान' समझकर एकान्ती बन मनमानी,

    पशु सम स्वैरी विचरण करता ज्ञेय-लीन वह अज्ञानी,

    जगत-जगत में रहा निरा, पर जगत जानता स्याद्वादी,

    जग में रह कर जग से न्यारा, मुनिवर निज रस का स्वादी ॥२४९॥

     

    पर पदार्थ के ग्रहण भाव कर आगत पर-प्रति-छवियों से,

    ज्ञान-शक्ति अति निर्बल जिनका जड़ जन नशते पशुओं से।

    अनेकान्त को ज्ञानी लखता, ज्ञेय-भेद-भ्रम हरता है,

    सतत उदित पर एक ज्ञान का, अबाध अनुभव करता है ॥२५०॥

     

    पर प्रति-छवि से पंकिल चिति को इक विध, शुचि करने मानी,

    स्वपर प्रकाशक ज्ञान स्वतः पर उसे त्यागता अज्ञानी।

    पर ज्ञेयों से चित्रित चिति को स्वतः शुद्धतम स्याद्वादी,

    पर्यायों वश अनेकता बस चिति में लखता निज स्वादी ॥२५१॥

     

    निज का अवलोकन ना करता एकान्ती पशु मर मिटता,

    पूर्ण प्रकट स्थिर पर को लखता मुग्ध हुवा पर में पिटता।

    स्याद्वादी निज अवलोकन से पूरण-जीवन जीता है,

    शुद्ध-बोध द्युति-पाकर भाता तुरत-राग से रीता है॥२५२॥

     

    निज आतम को नहीं जानता पर में रत, पा विकारता,

    विषय-वासना वश निज को शठ सकल, द्रव्यमय निहारता।

    पर का निज में अभाव लख, पर-पर को पर ही जान व्रती

    निज के शुचितम बोध तेज में स्याद्वादी रममान यती ॥२५३॥

     

    भिन्न क्षेत्र स्थित पदार्थ-दल को विषय बनाता अपना है,

    बाहर भ्रमता, मरता निज को परमय लख शठ सपना है।

    निज को निज का विषय बनाकर निज में निज बल समेटता,

    आत्म क्षेत्र में रत स्याद्ववादी होता पर-पन सुमेटता ॥२५४॥

     

    आत्म-क्षेत्र में स्थिति पाने शठ भिन्न-क्षेत्र स्थित पदार्थपन,

    तजे संग तज चिति-गत-ज्ञेयों मरता तजता निजार्थपन।

    निज में स्थित होकर लखता नित पर में निज की अभावता,

    स्याद्वादी मुनि पर तजता पर तजता कभी न स्वभावता ॥२५५॥

     

    पूर्व ज्ञान का विषय बना था उसको नशता लख, सो ही,

    स्वयं ज्ञान का नाश मान पशु मरता हताश हो मोही।

    बाह्य वस्तुएँ बार-बार उठ मिटती, परन्तु स्याद्वादी,

    स्वीय काल वश, त्रिकाल ध्रुव निज को लख रहता ध्रुव स्वादी ॥२५६॥

     

    ज्ञेयालम्बन जब से तब से-ज्ञान हुवा यों कहें वृथा,

    ज्ञेयालम्बन-लोलुप बन शठ पर में रमते सहें व्यथा।

    भिन्न काल का अभाव निज में मान जान वे गतमानी,

    सहज, नित्य, निज-निर्मित शुचितम ज्ञानपुंज में रत ज्ञानी ॥२५७॥

     

    पर परिणति को निज परिणति लख पर में पाखण्डी रमता,

    निज महिमा का परिचय बिन पशु एकान्ती भव-भव भ्रमता।

    सब में निज-निज भाव भरे हैं उन सबसे अति दूर हुआ,

    प्रकट निजामृत को अनुभवता स्याद्वादी नहिं चूर हुआ ॥२५८॥

     

    विविध विश्व के सकल ज्ञेय का उद्भव अपने में माने,

    निर्भय स्वैरी शुद्ध भाव तज खेल-खेलते मनमाने।

    पर का मुझमें अभाव निश्चित समझ किन्तु यह मुनि ऐसा,

    निजारूढ़ स्याद्वादी निश्चल लसे शुद्ध दर्पण जैसा ॥२५९॥

     

    उद्भव व्यय से व्यक्त ज्ञान के विविध अंश को देख, तभी,

    क्षणिक तत्त्व को मान कुधी जन सहते दुख अतिरेक सभी।

    पै स्याद्वादी चितिपन सिंचित सरस सुधारस सु पी रहा,

    अडिग-अचल बन शुद्ध-बोध-घन सुजी रहा, मुनि सुधी रहा ॥२६०॥

     

    निर्मल निश्चल बोध भरित निज आतम को शठ जान अहा।

    जल उछलती चिति परिणति से भिन्न आत्म परमाण अहा।

    नित्य ज्ञान हो भंगुर बनता उसे किन्तु द्युतिमान, वही,

    चेतन-परिणति बल से ज्ञानी-ज्ञान क्षणिकता लखे सही ॥२६१॥

     

    तत्त्व ज्ञान से वंचित ऐसे मूढ़ जनों को दर्शाता,

    ज्ञान मात्र वह आत्म तत्त्व है साधु जनों को हर्षाता।

    अनेकान्त यह इस विध होता सतत सुशोभित अपने में,

    स्वयं स्वानुभव में जब आता मिटते सब हैं सपने ये ॥२६२॥

     

    वस्तु तत्त्व की सरल व्यवस्था उचित रूप से करता है,

    अपने को भी उचित स्थान पर स्थापित खुद ही करता है।

    तीन लोक के नाथ जिनेश्वर जिन-शासन पावन प्यारा,

    अनेकान्त यह स्वयं सिद्ध है विषय बनाया जग सारा ॥२६३॥

     

    ॥ इति स्याद्वादाधिकारः ॥

     

    दोहा

     

    मेटे वाद-विवाद को, निर्विवाद स्याद्वाद।

    सब वादों को खुश रखे, पुनि पुनि कर संवाद ॥१॥

    समता भज, तज प्रथम तू पक्षपात परमाद।

    स्याद्वाद आधार ले, ‘समयसार' पढ़ बाद ॥२॥


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