Jump to content
मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • पुण्य-पाप-अधिकार

       (0 reviews)

    भेद शुभाशुभ मिस से द्विविधा विधि है स्वीकृत यदपि रहा,

    उसको लखता निज अतिशय से बोध ‘एक विध' तदपि अहा !

    शरद चन्द्र सम बोध चंद्रमा निर्मल निश्चल मुदित हुआ,

    मोह महातम दूर हटाता सहज स्वयं अब उदित हुआ ॥१००॥

     

    ब्राह्मणता के मद वश इक है मदिरादिक से बच जीता,

    स्वयं शूद्र हूँ इस विध कहता मदिरा प्रतिदिन इक पीता।

    यद्यपि दोनों शूद्र रहे हैं युगपत् शूद्री से उपजे,

    किन्तु जाति भ्रम वश ही इस विध जीवन अपने हैं समझे ॥१०१॥

     

    कर्म हेतु है पुद्गल-आश्रय पुद्गल, स्वभाव फल पुद्गल,

    अतः कर्म में भेद नहीं है अभेद नय से सब पुद्गल।

    और शुभाशुभ बंध अपेक्षा एक इष्ट है बंधन है,

    अतः कर्म है एक नियम से कहते जिन मुनि-रंजन हैं॥१०२॥

     

    कर्म अशुभ हो अथवा शुभ हो भव बंधन का साधक है,

    मोक्षमार्ग में इसीलिए वह साधक नहिं है बाधक है।

    किन्तु ज्ञान निज विराग, शिव का साधक है दुखहारक है,

    वीतराग सर्वज्ञ हितंकर कहते शिव-सुख साधक हैं ॥१०३॥

     

    पूर्ण शुभाशुभ करणी तज बन निष्क्रिय निज में निरत रहे,

    मुनिगण अशरण नहिं पर सशरण अविरत से वे विरत रहें।

    ज्ञान ज्ञान में घुल मिल जाना मुनि की परम शरण बस है,

    निशि-दिन सेवन करते रहते तभी सुधामय निज रस हैं ॥१०४॥

     

    अमिट अतुल है अनुपम आतम शान-धाम वह सचमुच है,

    मोक्षमार्ग है मोक्षधाम है स्वयं ज्ञान ही सब कुछ है।

    उससे न्यारा सारा खारा बंध हेतु है बंधन है,

    ज्ञान-लीनता वही स्वानुभव शिवपथ उसको वंदन है॥१०५॥

     

    ज्ञान ज्ञान में स्थिर हो जाता अन्य द्रव्य में नहिं भ्रमता,

    वही ज्ञान का ज्ञानपना है जिसको यह मुनि नित नमता।

    आत्म द्रव्य के आश्रित वह है, आश्रय जिसका आतम है,

    मोक्षमार्ग तो वही ज्ञान है, कहते जिन परमातम है॥१०६॥

     

    कर्म मोक्ष का नियम रूप से हो नहिं सकता कारण है,

    स्वयं बन्धमय कर्म रहा है भव बंधन का कारण है।

    तथा मोक्ष के साधन का भी अवरोधक औ नाशक है,

    अतः यहाँ पर निषेध उसका करते जिन, मुनि शासक हैं ॥१०७॥

     

    कर्म रूप में यदि ढलता है मनो ज्ञान वह भूल अहा,

    ज्ञान ज्ञान नहिं हो सकता वो ज्ञानपने से दूर रहा।

    पुद्गल आश्रित कर्म रहा है मृण्मय मूर्त अचेतन है,

    अतः कर्म नहिं मोक्ष हेतु नहिं हो सकता सुख केतन है॥१०८॥

     

    मोक्षार्थी को मोक्ष मार्ग में कर्म त्याज्य जड़ पुद्गल है,

    पाप रहो या पुण्य रहो फिर सब कुछ कर्दम दलदल है।

    दृग व्रत आदिक निजपन में दल मोक्ष हेतु तब बन जाते,

    निष्क्रिय विबोध रस झरता, मुनि स्वयं सुखी तब बन पाते ॥१०९॥

     

    कर्ता नहिं पर मोह उदय वह होता मुनि में जब तक है,

    समीचीन नहिं ज्ञान कहाता अबुद्धिपूर्वक तब तक है।

    सराग मिश्रित ज्ञान सुधारा बहती समाधिरत मुनि में,

    राग बंध का, ज्ञान मोक्ष का कारण हो भय कुछ नहिं पै ॥११०॥

     

    ज्ञान बिना रट निश्चय निश्चय निश्चयवादी भी डूबे,

    क्रियाकलापी भी ये डूबे डूबे संयम से-ऊबे।

    प्रमत्त बन के कर्म न करते अकम्प निश्चल शैल रहे,

    आत्म-ध्यान में लीन किन्तु मुनि तीन लोक पे तैर रहे ॥१११॥

     

    भ्रमवश विधि में प्रभेद करता मोह मद्य पी नाच रहा,

    राग-भाव जो जड़मय जड़ से निज बल से झट काट अहा।

    सहज मुदित शुचि कला संग ले केली अब प्रारंभ किया,

    भ्रम-तम-तम को पूर्ण मिटाकर पूर्ण ज्ञान शशि जन्म लिया ॥११२॥

     

    ॥ इति पुण्यपापाधिकार ॥

     

    दोहा

     

    विभाव परिणति यह सभी पुण्य रहो या पाप।

    स्वभाव मिलता, जब मिटे पाप-पुण्य परिताप ॥१॥

    पाप प्रथम मिटता प्रथम, तजो पुण्य-फल भोग।

    पुनः पुण्य मिटता, धरो आतम-निर्मल योग ॥२॥


    User Feedback

    Create an account or sign in to leave a review

    You need to be a member in order to leave a review

    Create an account

    Sign up for a new account in our community. It's easy!

    Register a new account

    Sign in

    Already have an account? Sign in here.

    Sign In Now

    There are no reviews to display.


×
×
  • Create New...