तत्त्व नित्य या क्षणिक सर्वथा इत्यादिक जो नय गाते।
कलह परस्पर करते मरते सभी परस्पर भय खाते ॥
विमलनाथ प्रभु अनेकान्तमय तुम-मत के जो नय मिलते।
बने परस्पर पूरक, हिल-मिल सभी कथंचित् पथ चलते ॥१॥
निजी सहायक शेष कारकों को आपेक्षित करते हैं।
एक-एक कर जिस विध कारक कार्य सिद्ध सब करते हैं।
समानता को विशेषता को लखते हैं क्रमबार भले।
उस विध तव नय गौण मुख्य हो वक्ता के अनुसार चले ॥२॥
ज्ञानमयी हो स्व-पर प्रकाशक प्रमाण जिस विध निश्चित है।
जैनागम में निराबाध वह स्वीकृत है, औ समुचित है॥
अभेद-मय औ भेद-ज्ञान में सदा मित्रता शुद्ध रही।
समानता औ विशेषता की समष्टि जिन से सिद्ध रही ॥३॥
किसी वस्तु की विशेषता का, कथक विशेषण होता है।
विशेषता जिसकी की जाती, विशेष्य बस वह होता है ॥
किन्तु विशेषण विशेष्य इनमें नित्य निहित सामान्य रहा।
स्यात् पद-वश प्रासंगिक होता मुख्य-गौण तब अन्य रहा ॥४॥
स्यात् पद भूषित तव नय बनते सुर-सुख शिव-सुख-दाता हैं।
जिस विध पारस योग प्राप्त कर लोह स्वर्ण बन भाता है ॥
अतः हितैषी सविनय होते तव पद में प्रणिपात रहें।
परम पुण्य का फलतः बुधजन लाभ लुटा दिन-रात रहें ॥५॥
(दोहा)
कराल काला व्याल सम, कुटिल चाल का काल।
मार दिया तुमने उसे, फाड़ा उसका गाल ॥१॥
मोह-अमल वश समल बन, निर्बल मैं भयवान।
विमलनाथ तुम अमल हो, संबल दो भगवान ॥२॥