मंगल-कारक गर्भ जन्ममय कल्याणों में पूज्य हुए।
वासुपूज्य प्रभु शत इन्द्रों से तुम पद-पंकज पूज्य हुए।
हे मुनि-नायक लघु धी मैं हूँ मेरे भी अब पूज्य बनें।
पूजा क्या नहिं दीपक से हो रवि की जो द्युति-पुंज तनें ॥१॥
वीतराग जिन बने तुम्हें अब पूजन से क्या अर्थ रहा।
वैरी कोई रहे न तब फिर निंदक भी अब व्यर्थ रहा ॥
फिर भी तव गुण-गण-स्मृति से प्रभु परम लाभ है वह मिलता।
निर्मलतम जीवन है बनता मम मन-मल सब यह धुलता ॥२॥
पूजन पूजक पूज्य प्रभो! जिन तव जब करता भव्य यहाँ।
अल्प पाप तब पाता फिर भी पाता पावन मुख्य महा॥
किन्तु पाप वह ताप नहीं है घटना-भर अनिवार्य रही।
सुधा-सिन्धु में विष-कण करता बाधक का कब कार्य कहीं? ॥३॥
उपादानमय मूल हेतु का बाह्य द्रव्य ले सहकारी।
श्रावक जब तव पूजन करता पाप-पुण्य का अधिकारी ॥
किन्तु साधु जब पूजन करते संग-रहित ही जो रहते।
पुण्य-पाप में भावं शुभाशुभ केवल कारण जिन कहते ॥४॥
बाह्याभ्यन्तर हेतु परस्पर यथायोग्य ये मिले सही।
तभी कार्य सब जग के बनते द्रव्य धर्म बस दिखे यही ॥
मोक्ष कार्य में यही व्यवस्था पर इससे विपरीत नहीं।
अतः वन्द्य तुम बुध जन से ऋषि-पति हो, कहता गीत सही ॥५॥
(दोहा)
औ न दया बिन धर्म ना, कर्म कटे बिन धर्म।
धर्म मर्म तुम समझकर, कर लो अपना कर्म ॥१॥
वासुपूज्य जिनदेव ने, देकर यूं उपदेश।
सबको उपकृत कर दिया, शिव में किया प्रवेश ॥२॥