स्व पर तत्त्व का सही सुनिर्णय सुयुक्तियों से स्वतः लिया।
सुमति-नाथ मुनि ‘सुमति' नाम को सार्थक तुमने अतः किया ॥
शेषमतों में क्रिया-कर्म औ कारक कारण की विधियाँ।
चूँकि सही नहिं सभी सर्वथा एकान्तीपन की छवियाँ ॥१॥
तुमसे स्वीकृत तत्त्व सही है अनेक भी है एक रहा।
पर्ययवश वह अनेक दिखता द्रव्य अपेक्षा एक रहा ॥
इक उपचारी इनमें हो तो दूजा झूठा, इक नय से।
शेष मिटेगा अवाच्य जिससे तत्त्व बनेगा निश्चय से ॥२॥
तत्त्व कथंचित् असत्त्व सत् ही अपर अपेक्षा चहक रहा।
नभ में यदपि न पुष्प खिला पर, तरु पर खुल-खिल महक रहा ॥
तत्त्व, सत्त्व औ असत्त्व बिन यदि, रहा नहीं सम्मानित है।
तुम मत से प्रभु अन्य सभी मत, स्वीय वचन से बाधित हैं ॥३॥
तत्त्व सर्वथा नित्य रहा जो मिटता-उगता नहीं कभी।
तथा क्रिया औ कारक विधियाँ उसमें बनती नहीं कभी ॥
जनन असत का नहीं सर्वथा सत भी वह ना विनस रहा।
दीपक, खुद बुझ, सघन तिमिर बन, पुद्गल-पन से विहस रहा ॥४॥
नास्तिपना औ अस्तिपना है इष्ट कथंचित् यही सही।
वक्ता के कथनानुसार ये मुख्य-गौण हो कभी कहीं ॥
तत्त्व-कथन की सही प्रणाली सुमति-नाथ प्रभु तव प्यारी।
स्तुति करती है तव, मम मंदा मति, अमंद हो सुख प्याली ॥५॥
(दोहा)
सुमति-नाथ प्रभु सुमति दो मम मति है अति मंद।
बोध कली खुल-खिल उठे महक उठे मकरन्द ॥१॥
तुम जिन मेघ मयूर मैं गरजो बरसो नाथ।
चिर प्रतीक्षित हूँ खड़ा ऊपर कर के माथ ॥२॥