दोष रहित, शुभ वचन सुधारो श्रेयन् ! जिन! अघ गला दिया।
हित पथ दर्शित कर हित पथ पर हितैषियों को चला दिया।
एक अकेले विलसित हो तुम त्रिभुवन में ज्यों उदित हुआ।
मेघ-रहित इस विशाल नभ में रवि लसता, जग मुदित हुआ ॥१॥
अस्तिपना जो नास्तिपनामय प्रमाण का वह विषय बना।
अस्ति-नास्तिपन में इक होता गौण एक तो प्रमुख बना ॥
प्रमुख बना या जिसको उसके नियमन का नय हेतु रहा।
दृष्टान्तन का रहा समर्थक जिन दर्शन का केतु रहा ॥२॥
प्रासंगिक जो मुख्य कहाता तव मत कहता पुण्य मही।
प्रासंगिक जो नहीं रहा सो गौण भले पर शून्य नहीं ॥
मित्र कथंचित् शत्रु मित्र हो किसी अपेक्षा अनुभय हो।
सगुण गुणी में अस्तिनास्ति वश वस्तु कार्य में सक्रिय हो ॥३॥
समुचित है दृष्टान्त जभी से लोक सिद्ध वह मिल जाता।
वादी-प्रतिवादी का झगड़ा स्वयं शीघ्र तब मिट जाता ॥
मतैकान्त का पोषक तव मत में मिलता दृष्टान्त नहीं।
साध्य-हेतु दृष्टान्तन में मत चूंकि श्रेष्ठ नैकान्त सही ॥४॥
स्याद्-वादमय रामबाण से रग-रग जिसको छेद दिया।
एकान्ती मत का मस्तक प्रभु पूर्ण रूप से भेद दिया ॥
लाभ लिया कैवल्य विभव का मोह-शत्रु का नाश किया।
अतः बने अरहन्त तभी मम मन तुम पद में वास किया ॥५॥
(दोहा)
अनेकान्त की कान्ति से हटा तिमिर एकान्त।
नितान्त हर्षित कर दिया क्लान्त विश्व को शान्त ॥१॥
निःश्रेयस सुख-धाम हो हे जिनवर श्रेयांस।
तव थुति अविरल मैं करूँ जब लौं घट में श्वाँस ॥२॥