ना तो मलयाचल चंदन औ चन्द्र चान्दनी शीतल है।
शीतल गंगा का भी जल नहिं मणिमय माला शीतल है ॥
हे मुनिवर! तव वचन-किरण में प्रशम भाव-मय नीर भरा।
शीतलतम है, बुधजन जिसका सेवन करते पीर हरा ॥१॥
विषय-सौख्य की चाह-दाह से क्लान्त किया था तप्त किया।
निज के मन को ज्ञान-नीर से शान्त किया तुम तृप्त किया।
वैद्य-राज ज्यों मंत्र-शक्ति से जहर शक्ति को हरता है।
जहर-दाह से मूर्छित निज के तन को सुशान्त करता है ॥२॥
जीवन की औ काम सौख्य की तृष्णा के जो नौकर हैं।
जड़-जन दिन-भर श्रम कर थक कर रात बिताते सोकर हैं॥
शुचितम निज आतम में तुम तो निशि-दिन निश्चल जाग रहे।
यही आर्य! अनिवार्य कार्य तव, प्रमाद रिपु-सम त्याग रहे ॥३॥
सुर-सुख की, सुत-धन की, धन की तृष्णा जिनके मन में है।
ऐसे ही कुछ जड़ जन, तापस, बन तप तपते वन में हैं।
किन्तु, जनन-मृति-जरा मिटाने, समधी बन यम धार लिया।
मन वच तन की क्रिया मिटा दी, तुमने भव-दधि पार किया ॥४॥
धवलित केवलज्ञान-ज्योति हो जन्म रहित दुख सर्व हरें।
आप कहाँ ये अन्य कहाँ जड़ अल्प ज्ञान ले गर्व करें।
शिव-सुख के अभिलाषी बुधजन अतः सदा तव गुण गाते।
शीतल प्रभु मुझ शीतल कर दो तुम्हें भजे मम मन तातें ॥५॥
(दोहा)
शीतल चन्दन है नहीं शीतल हिम ना नीर।
शीतल जिन! तव मत रहा, शीतल हरता पीर ॥१॥
सुचिर काल से मैं रहा, मोह-नींद में सुप्त।
मुझे जगा कर, कर कृपा, प्रभो करो परितृप्त ॥२॥