पर से बोधित नहीं हुए पर, स्वयं स्वयं ही बोधित हो।
समकित-संपति ज्ञान नेत्र पा जग में जग-हित शोभित हो ॥
विमोह-तम को हरते तुम प्रभु निज-गुण-गण से विलसित हो।
जिस विध शशि तम हरता शुचितम किरणावलिले विकसित हो ॥१॥
जीवन इच्छुक प्रजाजनों को जीवन जीना सिखा दिया।
असि, मषि, कृषि आदिक कर्मों को प्रजापाल हो दिखा दिया ॥
तत्त्व-ज्ञान से भरित हुए फिर बुध-जन में तुम प्रमुख हुए।
सुर-पति को भी अलभ्य सुख पा विषय-सौख्य से विमुख हुए ॥२॥
सागर तक फैली धरती को मन-वच-तन से त्याग दिया।
सुनन्द-नन्दा वनिता तजकर आतम में अनुराग किया।
आतम-जेता मुमुक्षु बनकर परीषहों को सहन किया।
इक्ष्वाकू-कुल-आदिम प्रभुवर अविचल मुनिपन वहन किया ॥३॥
समाधि-मय अति प्रखर अनल को निज उर में जब जनम दिया।
दोष-मूल अघ-घाति कर्म को निर्दय बनकर भसम किया ॥
शिव-सुख-वांछक भविजन को फिर परम तत्त्व का बोध दिया।
परम-ब्रह्म-मय अमृत पान कर तुमने निज घर शोध लिया ॥४॥
विश्व-विज्ञ हो विश्व-सुलोचन बुध-जन से नित वंदित हो।
पूरण-विद्या-मय तन धारक बने निरंजन नंदित हो ॥
जीते छुट-पुट वादी-शासन अनेकान्त के शासक हो।
नाभि-नन्द हे! वृषभ जिनेश्वर मम-मन-मल के नाशक हो ॥५॥
आदिम तीर्थंकर प्रभो आदिनाथ मुनिनाथ!
आधि व्याधि अघ मद मिटे तुम पद में मम माथ ॥१॥
शरण, चरण हैं आपके तारण तरण जहाज।
भव-दधि-तट तक ले चलो! करुणाकर जिनराज ॥२॥