जल वर्षाते घने बादले, काले-काले डोल रहे।
झंझा चलती बिजली तड़की घुमड़-घुमड़ कर बोल रहे ॥
पूर्व वैर-वश कमठ देव हो इस विध तुमको कष्ट दिया।
किन्तु ध्यान में अविचल प्रभु हो घाति कर्म को नष्ट किया ॥१॥
द्युति-मय बिजली-सम पीला निज फण का मण्डप बना लिया।
नाग इन्द्र तव कष्ट मिटाने तुम पर समुचित तना दिया।
दृश्य मनोहर तब वह ऐसा विस्मय-कारी एक बना।
संध्या में पर्वत को ढकता समेत-बिजली मेघ घना ॥२॥
आत्म ध्यान-मय कर में खरतर खड्ग आपने धार लिया।
मोहरूप निज दुर्जय रिपु को पल-भर में बस मार दिया।
अचिन्त्य-अद्भुत आर्हत् पद को फलतः पाया अघहारी।
तीन लोक में पूजनीय जो अतिशयकारी अतिभारी ॥३॥
मनमाने कुछ तापस ऐसे तप करते थे वनवासी।
पाप-रहित तुम को लख, इच्छुक तुम-सम बनने अविनाशी ॥
हम सब का श्रम विफल रहा यो समझ सभी वे विकल हुए।
शम-यम-दममय सदुपदेश सुन तव चरणन में सफल हुए ॥४॥
समीचीन विद्या-तप के प्रभु रहे प्रणेता वरदानी।
उग्र-वंशमय विशाल नभ के दिव्य सूर्य, पूरण ज्ञानी ॥
कुपथ निराकृत कर भ्रमितों को पथिक सुपथ के बना दिये।
पार्श्वनाथ मम पास वास बस, करो, देर अब बिना किये ॥५॥
(दोहा)
खास दास की आस बस श्वाँस-श्वाँस पर वास।
पाश्र्व करो मत दास को उदासता का दास ॥१॥
ना तो सुर-सुख चाहता शिव-सुख की ना चाह।
तव थुति-सरवर में सदा होवे मम अवगाह ॥२॥