शुचिमय तन-चेतन लक्ष्मी से मंडित निज में निवस रहे।
लाल-लाल कल पलाश छवि से अहो पद्मप्रभ! विलस रहे ॥
लोकबन्धु हो भविक-कमल ये तुम दर्शन से खिलते हैं।
जिस विध सर में सरोज दल वे दिनकर को लख खुलते हैं ॥१॥
अक्षय सुख-मय लक्ष्मी वर के दिव्य भारती पाय लसे।
पूर्णमुक्ति से पूर्ण प्रभो! तुम त्रयोदशी गुण माँय बसे ॥
देव-रचित था समवसरण तव उसमें नहिं, अनुरक्त हुए।
दिव्य देशना त्याग अन्त में सर्वज्ञान युत मुक्त हुए ॥२॥
नयन मनोहर किरणावली छवि आप देह से उछल रही।
बाल भानु की युति सम भाती धरती छूने मचल रही ॥
नर सुर से जो भरी सभा को ललित लाल अति करा रही।
पद्म राग-मय पर्वत जिस विध स्वीय-पार्श्व को विभामयी ॥३॥
सहस्र दल वाले कमलों के मध्य आप चलने वाले।
चरण-कमल से नभ-तल को प्रभु पुलकित अति करने वाले ॥
मत्त मदन का मद-मर्दन कर निर्मद जीवन बना लिया।
विश्व-शान्ति के लिए विश्व में विचरण इच्छा बिना किया ॥४॥
तुममें हे! ऋषिवर गुण-गण का लहराता वह सिन्धु महा।
इन्द्र विज्ञ तव स्तुति करके भी पी न सका वह बिन्दु अहा!!
अज्ञ, सफल क्या? मैं हो सकता स्तुति करने जो उद्यत हूँ।
बाध्य मुझे तव भक्ति कराती तुम पद में तब अवनत हूँ ॥५॥
(दोहा)
शुभ्र सरल तुम, बाल तव कुटिल कृष्ण-तम नाग।
तव चिति चित्रित ज्ञेय से किन्तु न उसमें दाग ॥१॥
विराग पद्मप्रभु आपके दोनों पाद-सराग।
रागी मम मन जा वहीं पीता तभी पराग ॥२॥