ऋद्धि-सिद्धि के धारक, ऋषि हो, प्राप्त किया है निज धन को।
शुक्ल-ध्यानमय तेज अनल से जला दिया विधि-ईंधन को ॥
खिले-खुले तव नील कमल-सम, युगल-सुलोचन विकसित हैं।
सकल ज्ञान से सकल निरखते भगवन् जग में विलसित हैं ॥१॥
विनय-दमादिक पाप-रहित-पथ के दर्शक तीर्थंकर हो ।
लोक-तिलक हरिवंश मुकुट हो, संकट के प्रलयंकर हो ॥
हुए शील के अपार सागर, भवसागर से पार हुए।
अजरामर हो अरिष्ट नेमी जिनवर! जग में सार हुए ॥२॥
झिलमिल-झिलमिल मणियों से जो जड़ित मुकुट को चढ़ा रहे।
तव चरणों में अवनत सुरपति और मंजुता बढ़ा रहे ॥
कोमल-कोमल लाल-लाल तव युगल पाद-तल विमल लसे।
तालाबों में खुले-खिले-ज्यों लाल दलों से कमल लसे ॥३॥
शरद-काल के पूर्ण चन्द्र की शुभ्र चाँदनी-सी लसती।
पूज्य-पाद की नखावली ये जिनमें जा मम मति बसती ॥
थुति करते नित तव पद में नत प्रभु दर्शन की आस लगी।
बुध-ऋषि, जिनको निज आतम सुख की चिर से अतिप्यास लगी ॥४॥
तेज-भानु-सा चक्र-रत्न से जिनके कंधे शोभित हैं।
घिरे हुए हैं स्वजन बंधुओं से जो पर में मोहित हैं॥
सघन-मेघ सम-नील वर्ण का जिन का तन जगनामी है।
भ्रात चचेरे कृष्ण-राज तव तीन खण्ड के स्वामी हैं ॥५॥
स्वजन-भक्ति से मुदित रहे हैं जन-जन के जो सुखकर हैं।
धर्म-रसिक हैं विनय-रसिक हैं इस विध चक्री हलधर हैं ॥
भक्ति-भाव से प्रेरित होकर नेमिनाथ! तव चरणन में।
दोनों आकर बार-बार नत होते हर्षित तन-मन में ॥६॥
सौराष्टन में, वृषभ-कंध-सम उन्नत पर्वत अमर रहे।
खेचर महिलाओं से सेवित जिसके शोभित शिखर रहें ।
बादल-दल से जिसके तट भी सदा घिरे ही रहते हैं।
जहाँ इन्द्र ने तव गुण लक्षण लिखे, जिन्हें बुध कहते हैं ॥७॥
तव गुण लक्षण धारण करता अतः तीर्थ वह महा बना।
ऊर्जयन्त फिर ख्यात हुआ है। पुराण कहते महामना ॥
सुचिर काल से आज अभी भी जिसका वन्दन करते हैं।
ऋषि-गण भी अति प्रसन्न होते सफल स्वजीवन करते हैं ॥८॥
बाहर से भी भीतर से भी ना तो साधक बाधक हो।
इन्द्रिय गण हो यद्यपि तुममें तदपि मात्र प्रभु ज्ञायक हो ॥
एक साथ जिननाथ, हाथ की रेखा सम सब त्रिभुवन को।
जान रहे हो देख रहे हो विगत-अनागत कण-कण को ॥९॥
इसीलिए यति मुनिगण से प्रभु-पद युग-पूजित सुखदाता।
अद्भुत से अद्भुत तम आगम-संगत चारित तव साता ॥
इस विध तव अतिशय का चिन्तन करके मन में मुदित हुआ।
जिन-पद में अति निरत हुआ हूँ आज भाग्य शुभ उदित हुआ ॥१०॥
(दोहा)
नील गगन में अधर हो शोभित निज में लीन।
नील कमल आसीन हो नीलम से अति नील ॥१॥
शील-झील में तैरते नेमि जिनेश सलील।
शील डोर मुझ बाँध दो डोर करो मत ढील ॥२॥