बने महा ऋषि जब तुम, तुममें सुसुप्त जागृत योग हुआ।
लोकालोकालोकित करता अतुलनीय आलोक हुआ ॥
इसीलिए बस सादर आकर अमराकर नर-जगत सभी।
जोड़ करों को हुआ प्रणत तव पद में हूँ मुनि जगत अभी ॥१॥
तव तन आभा तप्त स्वर्ण-सी तन की चारों ओर सही।
परिमण्डल की रचना करती यह शोभा नहिं और कहीं ॥
वस्तु-तत्त्व को कहने आतुर स्याद्-पद वाली तव वाणी।
दोनों मुनिजन को हर्षाती जिनकी शरणा सुखदानी ॥२॥
मनमानी तज प्रतिवादी जन तव सम्मुख हो गतमानी।
वाद करे ना कुतर्क करते जब प्रभु पूरण हो ज्ञानी ॥
तथा आपके शुभ दर्शन से हरी भरी हो भी लसती।
खिली कमलिनी मृदुतम-सी यह धरा सुन्दरा भी हँसती ॥३॥
शान्त कान्ति से शोभ रहे हैं पूर्ण चन्द्रमा जिनवर हैं।
शिष्य-साधु चहुँ ओर घिरे हैं ग्रह-बन गणधर मुनिवर हैं॥
तीर्थ आपका ताप मिटाता अनुपम सुख का हेतु रहा।
दुखित भव्य भव-पार कर सके भव-सागर का सेतु रहा ॥४॥
शुक्ल-ध्यानमय तपश्चरण के दीप्त अनल से जला जला।
राख किया कटु पाप कर्म को तभी तुम्हें शिव किला मिला ॥
शल्य-रहित कृत-कृत्य बने हो मल्लिनाथ जिनपुंगव हो।
चरणों में दो शरण मुझे अब भव-भव पुनि ना संभव हो ॥५॥
(दोहा)
मोह मल्ल को मार कर मल्लिनाथ जिनदेव।
अक्षय बनकर पा लिए अक्षय सुख स्वयमेव ॥१॥
बाल ब्रह्मचारी विभो बाल समान विराग।
किसी वस्तु से राग ना तव पद से मम राग ॥२॥