वीतराग-मय धर्मतीर्थ को किया प्रसारित त्रिभुवन में।
धर्म नाम तव सार्थक कहते गणधर गुरु जो मुनिगण में ॥
सघन कर्म के वन को तपमय तेज अनल से जला दिया।
शंकर बन कर सुखकर शिव-सुख पाकर जग को जगा दिया ॥१॥
भद्र भव्य सुर-नरपति गण नत तुम पद में अति मोहित हैं।
मुनिगण-नायक गणधर से प्रभु आप घिरे हैं शोभित हैं॥
जैसा नभ में पूर्ण कला ले शान्त चन्द्रमा निखरा हो।
जिसके चारों ओर विहसता तारक-दल भी बिखरा हो ॥२॥
छत्रादिक से सजा हुआ जिस समवसरण में निवस रहे।
विरत किन्तु निज तन से भी हो निरीह सब से विलस रहे ॥
नर, सुर, किन्नर भव्य-जनों को शिव-पथ दर्शित करा रहे।
प्रति-फल की कुछ वांछा नहिं पर हमको हर्षित करा रहे ॥३॥
तन की मन की और वचन की चेष्टाएँ तव होती हैं।
किन्तु बिना इच्छा के केवल सहज भाव से होती हैं।
थोथी यद्वा-तद्वा भी नहिं सही ज्ञान से सहित सभी।
धीर! नीर-निधि-समतव परिणति, अचिंत्य लख बुध चकित सभी ॥४॥
मानवता से ऊपर उठ कर ऊपर उन्नत चढ़े हुए।
सुर, सुर-पालक देवों में भी पूज्य हुए हो बड़े हुए ॥
इसीलिए देवाधिदेव हो परम इष्ट जिन! नाथ हुए।
हम पर करुणा कर दो शिव-सुख, तुम पद में नत-माथ हुए ॥५॥
(दोहा)
दया धर्म वर धर्म है, अदया-भाव अधर्म।
अधर्म तज प्रभु धर्म ने, समझाया पुनि धर्म ॥१॥
धर्मनाथ को नित नमू, सधे शीघ्र शिव-शर्म।
धर्म-मर्म को लख सकें, मिटे मलिन मम कर्म ॥२॥