अपर चन्द्र हो अनुपम जग में जगमग जगमग दमक रहे।
चन्द्र-प्रभा सम नयन-मनोहर गौर वर्ण से चमक रहे ॥
जीते निज के कषाय-बंधन बने तभी प्रभु जिनवर हो।
चन्द्रप्रभो! मम नमन तुम्हें हो सुरपति नमते ऋषिवर हो ॥१॥
परम ध्यानमय दीपक उर में जला आत्म को जगा दिया।
मोह-तिमिर को मानस-तल से पूर्ण रूप से भगा दिया।
हे प्रभु! तव तन की श्रीछवि से बाह्य सघनतम दूर भगा।
दिनकर को लख, तम ज्यों भगता पूरब में द्युति पूर उगा ॥२॥
पूरे भीगे कपोल जिनके मद से गज-गण मद-धारे।
सिंह-गर्जना सुनते, डरते, बनते ज्यों निर्मद सारे ॥
निजमत स्थिति से पूर्ण मत्त हो प्रतिवादी त्यों अभिमानी।
स्याद्वाद तव सिंहनाद सुन बनते वे पानी-पानी ॥३॥
तपः साधना अद्भुत करके हित-उपदेशक आप्त हुए।
परम इष्ट पद को तुम प्रभुवर त्रिभुवन में जब प्राप्त हुए ॥
अनन्त सुख के धाम बने हो विश्व-विज्ञ अविनश्वर हो।
जग-दुख-नाशक शासक के ही शासक तारक ईश्वर हो ॥४॥
भगवन् तुम शशि, भव्य कुमुद ये खिलते हैं दृग खोल रहे ॥
राग-रोषमय मेघ तुम्हारे चेतन में नहिं डोल रहे ॥
स्याद्वादमय विशद वचन की मणिमय माला पहने हो।
परमपूत हो, पावन कर दो, मम मन वश में रहने दो ॥५॥
(दोहा)
चन्द्र कलंकित किन्तु हो चन्द्रप्रभु अकलंक ।
वह तो शंकित केतु से शंकर तुम नि:शंक ॥१॥
रंक बना हूँ मम अतः मेटो मन का पंक।
जाप जपूँ जिन-नाम का बैठ सदा पर्यंक ॥२॥