किसी पुरुष के अल्प गुणों का बढ़ा-चढ़ा कर यश गाना।
जग में बुधजन कविजन कहते स्तुति का वह है बस बाना॥
पूज्य बने हो ईश बने हो अगणित गुण के धाम बने।
ऐसी स्थिति में आप कहो फिर कैसे स्तुति का काम बने ॥१॥
यदपि मुनीश्वर की स्तुति करना रवि को दीपक दिखलाना।
तदपि भक्ति-वश मचल रहा मन कुछ कहने को अनजाना ॥
तथा अल्प भी जो तव यश का भविक यहाँ गुण-गान करें।
शुचितम बनता, क्यों ना हम फिर तव थुति-रस का पान करें ॥२॥
चौदह मनियाँ निधियाँ नव भी चक्री तुम थे तुम्हें मिली।
हाथी घोड़े कोटि, नारियाँ कुछ कम लाखों तुम्हें वरी ॥
मुमुक्षुपन की किन्तु किरण जो तुममें जगमग जभी जगी।
सार्वभौम पदवी भी तुमको जीरण तृण सम सभी लगी ॥३॥
सविनय द्वय नयनों से तव मुख छवि को जब अनिमेष लखा।
किन्तु तृप्त वह हुआ नहीं पर लख-लख कर अमरेश थका ॥
सहस्र लोचन खोल लिये फिर निजी ऋद्धि से काम लिया।
चकित हुआ तब अंग-अंग का प्रभु दर्शन अभिराम किया ॥४॥
मोहरूप रिपु-भूप, पाप-का-बाप, ताप का कारक है।
कषाय-मय सेना का चालक, चेतन निधि का हारक है॥
समकित-चारित-भेदज्ञानमय कर में खर तर-वार लिया।
किया वार निज मोह-शत्रु पर धीर आपने, मार दिया ॥५॥
तीन लोक को अपने बल पर जीत विजेता बना हुआ।
काम समझ यों लोक-ईश मैं व्यर्थ गर्व से तना हुआ ॥
धीर वीर जिन किन्तु आप पर प्रभाव उसका नहीं पड़ा।
लज्जित होकर शिशु-सा आकर तव चरणों में तभी पड़ा ॥६॥
इस भव में भी पर भव में भी दुस्सह दुख की है जननी।
तृष्णा रूपी नदी भयंकर यह नरकों की वैतरणी ॥
इसका पाना पार कठिन है कई तैरते हार गये।
वीतराग-मय ज्ञान-नाव में बैठ किन्तु प्रभु पार गये ॥७॥
सदा काल से काल जगत को रुला रहा था सता रहा।
जन्म-रोग को मित्र बनाकर जीवन अपना बिता रहा ॥
महाकाल विकराल किन्तु प्रभु काल आपने विकल किया।
कुटिल चाल को छोड़ काल ने सरल चाल में बदल दिया ॥८॥
शस्त्रों, वस्त्रों, पुत्र, कलत्रों, आभरणों से रहित रहा।
विराग विद्या दया दमन से पूर्ण रूप से सहित रहा ॥
इस विध जो तव रूप मनोहर मौन रूप से बोल रहा।
धीर! रहित हो सकल दोष से तव जीवन अनमोल रहा ॥९॥
तव तन की अति प्रखर ज्योतिमा फैल रही चहुँ ओर सही।
फलतः बाहर सघन तिमिर सब भगा, हुआ हो भोर कहीं ॥
इसी तरह निज शुद्धातम की परम विभा से नाश किया।
मोह-मयी अतिघनी निशा का, निज-घर शिव में वास किया ॥१०॥
सकल विश्व का जानन-हारा तुममें केवलज्ञान हुआ।
समवसरण आदिक अनुपम तन अतिशय आविर्मान हुआ।
पुण्य-पाकमय इस अतिशय को भविकजनों ने निरखा हो।
तव पद में नत क्यों ना होवे दोष गुणन को परखा हो ॥११॥
जिसकी भाषा, उस भाषा में उसको समझाती वाणी।
अमृतमयी है जिनवाणी है ज्ञानी कहते कल्याणी ॥
समवसरण में फैल सभी के कर्ण तृप्त भी है करती।
सुधा जगत में जिस विध, जन-जन को सुख दे सब दुख हरती ॥१२॥
अनेकान्त तव दृष्टि रही है सत्य तथ्य बुध-मीत रही।
तथ्य-हीन एकान्त दृष्टि है औरों की विपरीत रही ॥
एकान्ती का जो कुछ कहना असत्य भी है उचित नहीं।
और रहा निज मत का घातक इसीलिए वह मुदित नहीं ॥१३॥
पर मत की कमियों को लखने नेत्र खोलकर जाग रहे।
निज-कमियाँ लख भी नहिं लखते जैसे सोते नाग रहे ॥
निज-मत थापित पर-मत बाधित करने में भी निर्बल हैं।
तापस वे नहिं समझ सकेंगे तव मत जो अति निर्मल हैं ॥१४॥
एकान्ती जन दोष-बीज ही सदा निरन्तर बोते हैं।
निज मत घातक दोष मिटाने सक्षम नहिं वे होते हैं।
अनेकान्त तव मत से चिढ़ते आत्महनक हैं बने हुए।
अवक्तव्य ही “तत्त्व सर्वथा'' जड़ जन कहते तने हुए ॥१५॥
अवक्तव्य वक्तव्य नित्य या अनित्य ही यह वस्तु रही।
सदसत् या है एक रही या अनेक अथवा वस्तु रही ॥
कहें सर्वथा यों नय करते वस्तु तत्त्व को दूषित हैं।
पोषित करते, किन्तु आपके स्याद् पद से नय भूषित हैं ॥१६॥
प्रमाण द्वारा ज्ञात विषय की सदा अपेक्षा रखता है।
किन्तु ‘‘सर्वथा नियम' रखे बिन वस्तु-भाव को चखता है॥
ऐसा स्याद् पद परमत का नहिं तव मत का शृंगार रहा।
अतः सर्वथा पद ही परमत निजमत को संहार रहा ॥१७॥
प्रमाण नय साधन से साधित अनेकान्त-मय तव मत में।
अनेकान्त भी अनेकान्त हैं जिसका सेवक अवनत मैं ॥
पूर्ण वस्तु को विषय बनाते प्रमाण-वश नैकान्त बने।
वस्तु-धर्म हो एक विवक्षित, नय-वश तब एकान्त तने ॥१८॥
निराबाध औ निरुपम शासन के शासक गुण-धारक हो।
सुखद-योग-गुण-पालन का पथ दिखलाते अघ-मारक हो ॥
इन्द्रिय-विजयी धर्म तीर्थ के हे अर जिन तुम नायक हो।
तुम बिन, भविजन हितपथ दर्शक, अन्य कौन? सुखदायक हो ॥१९॥
आगम का भी अल्प ज्ञान है पूर्ण ज्ञान वह मिला नहीं।
मंद बुद्धि मम, विशद नहीं है भक्ति-भाव भर मिला यहीं ॥
मानस आगम-बल से फिर भी जो कुछ तव गुणगान किया।
पाप-शमन का हेतु बनेगा वरद! यही अनुमान लिया ॥२०॥
(दोहा)
नाम-मात्र भी नहिं रखो, नाम-काम से काम।
ललाम आतम में करो, विराम आठों याम ॥१॥
नाम धरो अर नाम तव, अतः स्मरूँ अविराम।
अनाम बन शिव-धाम में, काम बनू कृत-काम ॥२॥