चिर से जीवित तुम उर में था मोह-भूत जो पाप-मयी।
अमित-दोष का कोष रहा था जिसका तन परिताप-मयी ॥
उसे जीत कर बने विजेता आत्म तत्त्व के रसिक हुए।
अतः नाम तव अनन्त सार्थक, तव सेवक हम भविक हुए ॥१॥
समाधि-मय गुणकारी औषध, का तुमने अनुपान किया।
दुर्निवार संतापक दाहक काम रोग का प्राण लिया ॥
रिपु-सम दु:खद कषाय-दल का और पूर्णतः नाश किया।
पूर्णज्ञान पा परमज्योति से त्रिभुवन को परकाश दिया ॥२॥
भरी लबालब श्रम के जल से भय-मय लहरें उपजाती।
विषय-वासना सरिता तुममें चिर से बहती थी आती ॥
उसे सुखा दी अपरिग्रहमय तरुण अरुण की किरणों से।
मुक्ति-वधू वह हुई प्रभावित इसीलिए तव चरणों से ॥३॥
भक्त बना तव निरत भक्ति में भुक्ति-मुक्ति-सुख वह पाता।
तुम से जो चिढ़ता वह निश्चित प्रत्यय-सम मिट दुख पाता ॥
फिर भी निन्दक वंदक तुमको सम हैं समता-धाम बने।
तव परिणति प्रभु विचित्र कितनी निज रस में अविराम सने ॥४॥
तुम ऐसे हो तुम वैसे हो मम-लघु धी का कुछ कहना।
केवल प्रलाप-भर है मुनिवर! भक्ति - भाव में बस बहना ॥
तव महिमा का पार नहीं पर अल्प मात्र भी तारण है।
अमृत-सिन्धु का स्पर्श तुल्य बस शान्ति सौख्य का कारण है ॥५॥
(दोहा)
अनन्त गुण पा कर दिया, अनन्त भव का अन्त।
अनन्त सार्थक नाम तव, अनन्त जिन जयवन्त ॥१॥
अनन्त सुख पाने सदा, भव से हो भयवन्त।
अन्तिम क्षण तक मैं तुम्हें, स्मरूं स्मरें सब सन्त ॥२॥