क्षमा-सखी युत दया-वधू में सतत निरत हो नन्दन हो।
गुण-गण से अति परिवर्धित हो इसीलिए अभिनन्दन हो ॥
‘लक्ष्य' बना कर समाधि भर का समाधि पाने यमी बने।
बाहर-भीतर नग्न बने प्रभु ग्रन्थ तजे सब दमी बने ॥१॥
निरे अचेतन तन-मन-धन हैं वचन बंधु-जन-तनुज रहें।
हम इनके, ये रहें हमारे इस विध जग के मनुज कहें ॥
मोह-भूत के वशीभूत हो अस्थिर को स्थिर समझे हैं।
तत्त्व-ज्ञान प्रभु उन्हें बताया उलझे जन-जन सुलझे हैं ॥२॥
अशन-पान कर, क्षुधा तृषा से जनित दु:ख के वारण से।
तन तनधारक नहिं ध्रुव बनते, क्षणिक विषय सुख पानन से ॥
इसीलिए ये विषय सुखादिक किसी तरह नहिं गुणकारी ।
इसविध इस जग को समझाया प्रभो आप गुणगणधारी ॥३॥
यदपि दास बन विषयों का शठ लोलुपता से पूर रहा।
तदपि नृपादिक भय से परवश दुराचार से दूर रहा ॥
इस-पर-भव में ‘दुखद' विषय है इस विध जो जन यदि जाने।
किस विध विषयन में फिर रमते यही कहा प्रभु, बुध माने ॥४॥
विषयों की यह विषय-वासना ताप बढ़ाती क्षण-क्षण है।
तृष्णा फलतः द्विगुणित, जिस सुख से, तोषित ना जड़ जन हैं॥
सदुपदेश यों देते जिससे निहित-लोक-हित तुम मत में।
अतः शरण हो सुधी-जनों के मुनि-गण के सब अभिमत में ॥५॥
(दोहा)
विषयों को विष लख तजू बन कर विषयातीत।
विषय बना ऋषि ईश को गाऊँ उनका गीत ॥१॥
गुण धारे पर मद नहीं मृदुतम हो नवनीत।
अभिनन्दन जिन! नित नमूं मुनि बन मैं भवभीत ॥२॥