( वसंततिलका छन्द)
जो जानते अपर को अपरात्म रूप, औ आत्म को सतत वे सब आत्मरूप।
स्वामी! अमेय अविनश्वर बोधधाम, हो बार-बार उन सिद्धन को प्रणाम ॥१॥
सम्माननीय जिनकी वह भारती है, अत्यन्त तीर्थ-कर संपति शोभती है।
धाता महेश शिव सौगत नामधारी, वंदें उन्हें जिनप जो जग आर्त-हारी ॥२॥
शास्त्रानुसार निज बोध-बलानुसार,एकाग्र चित्तकर युक्ति मतानुसार।
शुद्धात्म-तत्त्व उनको कहता यहाँ मैं, जो चाहते सहज सौख्य प्रभो सदा है ॥३॥
आत्मा यही त्रिविध है सब देहियों में, आदेय है परम आतम पे सबों में।
तो अन्तरात्म शिवदायक है उपेय, धिक्कार हाय! बहिरातम निंद्य हेय ॥४॥
मेरा शरीर, धन औ सुत राजधानी, ऐसा सदैव कहता बहिरात्म प्राणी।
रागादि से रहित हा वह अन्तरात्मा, है वंद्य, पूज्य, परमातम, निर्मलात्मा ॥५॥
जो बुद्ध, शुद्ध जिनके न शरीर साथ, अत्यन्त इष्ट जिन ईश्वर विश्वनाथ।
है सिद्ध, अव्यय तथा वसु-कर्म रिक्त, है पूजनीय परमातम पूर्ण व्यक्त ॥६॥
जो है यहाँ सतत इन्द्रिय-भोगलीन, निर्भीत नित्य बहिरात्म स्वबोध हीन।
है देह को इसलिए वह आत्म मान, संसार में दुख सदा सहता महान ॥७॥
धिक्कार मानव-तन-स्थित आत्म को ही, हैं मानते मनुज रूप सदा विमोही।
तिर्यञ्च देह अरु देव शरीर पाते, तिर्यञ्च, देव क्रमशः निज को जनाते ॥८॥
लेते जहाँ नरक में जब जन्म भी है, तो मानते स्वयम को तब नारकी है।
आत्मा प्रभो! परम निश्चय से न ऐसा, विज्ञान पूर्ण, निजगम्य अहो! हमेशा ॥९॥
जो पुद्गलात्मक तथा पर देह को ही, स्वामी! निजीय तन सादृश जान मोही।
है मानता भ्रमित हो यह अन्य आत्मा' प्रायः अतः दुरित ही करता दुरात्मा ॥१०॥
जो आत्मबोध परिशून्य सदा रहा है, संपत्ति से मुदित तोषित हो रहा है।
मेरी खरी मृगदृगी ललना यहाँ है, ऐसा विचार उसका भ्रम-पूर्ण हा! है॥११॥
मिथ्यात्व-जन्य उसकी इस भावना से, अज्ञान तीव्र बढ़ता, सुख हो कहाँ से ?
तो देह को ‘निज' सदा वह मानता है, औ आत्म को वह कदापि न जानता है ॥१२॥
मिथ्यात्व भाव वश हो वह मूढ़ जीव, है आत्मबुद्धि रखता तन में सदीव।
माता, पिता, सुत, सुता, वनिता व भ्राता, ये हैं यहाँ मम' सभी इस भाँति गाता ॥१३॥
आभूषणादिक जड़ात्मक नश्यमान, मोही इन्हें स्वयम के सुख हेतुमान।
उत्कृष्ट स्वीय मणि को वह व्यर्थ खोता, लो! काँच में रम रहा, दुख बीज बोता ॥१४॥
संसार का प्रथम कारण देह-नेह, है रुद्ध हाय! जिससे यह बोध गेह।
व्यापार-त्याग द्रुत इन्द्रिय-ग्राम का रे, हो आत्म में रत अतः यदि लोग सारे ॥१५॥
मैंने स्वभाव तज के निज भोग लीन, संसार में दुख सहा, वृष-बोध हीन।
मैं ‘आत्म' हूँ न पहले इस भाँति जाना, पै सर्वथा विषय को सुख-हेतु माना ॥१६॥
जो अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, होता नितान्त उसका वह योग चंगा।
उत्कृष्ट आतम प्रकाशक योग-दीप, धारो इसे, शिव लसे, फलतः समीप ॥१७॥
जो भी मुझे नयन गोचर हो रहा है, ना जानता वह कभी जड़ तो रहा है।
जो जानता वह न इन्द्रियगम्य आत्मा,बोले तदा किसलिए किस संग आत्मा ॥१८॥
मैं योग्य शिष्य दल को नित हूँ पढ़ाता, या ज्ञान को सुगुरु से सहसा बढ़ाता।
उन्मत्त-सी यह यहाँ मम मात्र चेष्टा, मैं निर्विकल्प मम निश्चय से न चेष्टा ॥१९॥
चैतन्य को पर कभी तजता नहीं है, अग्राह्य को ग्रहण भी करता नहीं है।
जो जानता निखिल को निज ज्ञान से ही, विज्ञान पूर्ण वह चेतन जीव'मैं' ही' ॥२०॥
स्वामी! सुदूर स्थित नीरस वृक्ष में ओ; जैसा सदा पुरुष का अनुमान जो हो।
मिथ्यात्व के उदय से जड़ देह को ही 'आत्मा' पुरा भ्रमित हो समझा प्रमोही ॥२१॥
पश्चात् उसे निकट जा लख शुष्क ठूठ, ज्यों त्यागता वह उसे द्रुत मान झूठ।
त्यों छोड़ता वितथ मान तनादिकों को, निस्सार हेय पर जो दुखकारकों को ॥२२॥
ना मैं नपुंसक नहीं नर दीन स्त्री न, दो भी न एक न अनेक तथा न तीन।
मैं हूँ निजात्म बल से जब स्वात्म ध्याता, इत्थं तदा न मुझमें कुछ भेद नाता! ॥२३॥
शुद्धात्म-ध्यान बिन खेद! अनादि सोया, पाके उसे जग गया, बहु दुःख खोया।
आनन्द जो मिल गया, निजगम्य रम्य, स्वामी! अतीन्द्रिय अपूर्णन शब्द-गम्य ॥२४॥
देखें यदा परम हृद्य निजात्म को मैं, रागादि भाव दुखदा द्रुत नष्ट होते।
होती भयानक तदा न सुतेज आग, प्यारी नहीं कुसुम की लगती पराग ॥२५॥
ब्रह्माण्ड ही जब मुझे नहिं जानता है, क्या शत्रु-मित्र वह हो सकता तदा है।
या जानता यदि मुझे लखता तथा है, तो भी न मित्र रिपु हो सकता अहा! है॥२६॥
शीघ्रातिशीघ्र बहिरात्म-पना विसार, औ अंतरात्म-पन को रुचि संग धार।
संकल्प, जल्प व विकल्प-विहीन भी हो, पश्चात् सुपूज्य परमेश्वर रूप पाओ ॥२७॥
साधू सदैव वह तो निज आत्म ध्याता, सोऽहं, विशुद्ध जिन हूँ रट यों लगाता।
होता निवास निज में इस धारणा से, क्यों रोष-तोष तब हो, दुख हो कहाँ से ? ॥२८॥
नादान, दीन, मतिहीन, स्वबोध-हीन, विश्वास धार जड़ में सुखमान लीन।
है मान्यता यह अतः वह दुःख धाम, तो आत्म-ध्यान घर है, सुख का ललाम ॥२९॥
निश्चिन्त हो निडर, निश्चल अन्तरात्मा, व्यापार रोक करणावलिका महात्मा।
जो भी जभी निरखता अरु जानता है, शुद्धात्म तत्त्व उसको वह भासता है॥३०॥
जो मैं वही परम आतम है महात्मा, ऐसा विचार करता वह अन्तरात्मा।
मैं ही उपास्य मम हूँ स्तुति अन्य की क्यों? मैं साहुकार जब हूँ फिर याचना क्यों? ॥३१॥
मैंने सभी विषय को विष मान त्यागा, मेरा जिनेश जिस कारण भाग्य जागा।
आनन्द-धाम मुझको अधुना मिला है, विज्ञान-नीरज अतः उर में खिला है॥३२॥
दुर्गन्ध-रक्त-मल-पूरित-देह को जो, है मानता न यति भिन्न निजात्म से ओ।
निर्भीक यद्यपि करे तप भी करारी, तो भी उसे न वरती वह मुक्ति-नारी ॥३३॥
जो जानता तन तथा निज आत्म-भिन्न, होता नहीं वह कभी यति खेद-खिन्न।
शीतातिशीत हिम से डरता नहीं है, संतप्त चूलगिरि पे तपता वही है ॥३४॥
योगीन्द्र का मन सरोवर है निहाल, ना हैं जहाँ कलुष राग तरंग जाल।
स्वामी! वही निरखता निज आत्मतत्त्व, रागी नहीं वह कभी लखता स्वतत्त्व ॥३५॥
संक्षोभ-हीन मन आतम का स्वभाव, संमोह-मान-मय-मानस है विभाव।
सारे अत: मलिन मानस को धुलाओ, आदर्श सादृश विशुद्ध उसे सजाओ ॥३६॥
मिथ्यात्व-मान ममतादिक कारणों में, होता सुलीन मन है विषयादिकों में।
सिद्धान्त के मनन से मन हाथ आता, विज्ञान के उदय से पर में न जाता ॥३७॥
उद्विग्न क्षोभमय जो नित हो रहा है, मानापमान उसके मन में बसा है।
सद्धर्म-लीन जब जो मुनि वीतराग, क्यों द्रोह मोह उनमें फिर रोष राग? ॥३८॥
अज्ञान का प्रबल कारण पा जिनेश, हो जाय तो यदि यदा रति राग द्वेष।
भावे उसी समय स्वीय विशुद्ध तत्त्व, तो राग-द्वेष मिटते, मिटता ममत्व ॥३९॥
सम्बन्ध स्वीय तन से यदि प्रेम का हो, योगी सुदूर उससे सहसा अहा! हो।
ज्ञान रूप तन में निज को लगावें, तो देह-प्रेम नशता, तब मोक्ष पावें ॥४०॥
अज्ञान-जन्य-दुख नाश स्वबोध से हो, पीड़ा अतीव वह क्यों न अनादि से हो।
विज्ञान के विषय में यदि आलसी है, पाता न मोक्ष, उसका तप! ना सही है ॥४१॥
लक्ष्मी मिले, मिलन हो, मम हो विवाह, मूढ़ात्म को विषय की दिन-रैन चाह।
ज्ञानी, वशी, विमल मानस, आत्मवादी, मूढ़ात्म सादृश नहीं, पर अप्रमादी ॥४२॥
जो आत्म-भक्ति च्युत होकर भोगलीन, त्यों कर्म जान फँसता रसलीन मीन।
जो स्नान आत्म सर में करता तपस्वी, निर्मुक्त कर्म-रज से वह हो यशस्वी ॥४३॥
स्त्री नपुंसक औ नर लिंग को ही, 'आत्मा' सदैव इस भाँति कहे प्रमोही।
पै आत्म अव्यय, अवर्य, अखण्डपिण्ड, ऐसा कहे सुबुध, ना जिनमें घमण्ड ॥४४॥
शुद्धात्म को सुबुध यद्यपि जानता है, ध्याता उसे अलस को तज देखता है।
मिथ्यात्व का उदय पै यदि हाय! होता, सद्ध्यान शीघ्र नशता, वह भ्रष्ट होता ॥४५॥
काया अचेतन-निकेतन दृश्यमान, दुर्गन्ध-धाम पर है क्षण नश्यमान।
तो रोष-तोष किसमें मम हो महात्मा!, मध्यस्थ हूँ इसलिए जब चेतनात्मा ॥४६॥
मूढ़ात्म केवल पटादिक छोड़ता है, ज्ञानी कषाय घट को झट तोड़ता है।
सर्वज्ञ तो न तजता गहता किसी को, तो लाख बार मम वन्दन हो उसी को ॥४७॥
शुद्धात्म के शयन पे मन को सुलाओ, औ काय से वचन से निज को छुड़ाओ।
रे! सर्व बाह्य व्यवहार तथा भुलाओ, अध्यात्म रूप सर में निज को डुबाओ ॥४८॥
जो आत्म-बोध परिशून्य शरीरधारी, भाता उसे स्वतन ही कल सौख्यकारी।
जो स्वीय बोध पय को नित पी रहा हो, संसार क्षार जल में रुचि क्यों उसे हो? ॥४९॥
शुद्धात्म ध्यान तज अन्तर आत्म सारे, ना अन्य भाव मन में चिरकाल धारें।
या अन्य भाव यदि हैं करते प्रवीण, वाक्काय से कुछ करें मन से कभी न ॥५०॥
जो भी मुझे सकल-इन्द्रिय गम्य हैं रे, निर्धात भिन्न मुझसे पर है, न मेरे।
देखें समोद जब मैं निज में, तभी यों, है ज्योति दीख पड़ती, मम है वही जो' ॥५१॥
प्रारम्भ में कुछ दुखी निज ध्यान से हो, प्रायः सुखानुभव बाहर में उसे हो।
अभ्यस्त तापस कहै निजमें हि तोष, संसार सागर असार विपत्ति कोष ॥५२॥
निर्ग्रन्थ होकर करो निज आत्म-गीत, पूछो तथा निजकथा गुरु से विनीत।
चाहो उसे सतत हो उसमें विलीन, अज्ञान नाश जिससे तुम हो प्रवीण ॥५३॥
वाक्काय में निरखता निज को हि अज्ञ, तो देह का वचन का वह है न विज्ञ।
ज्ञानी कहे मम नहीं यह देह भार, होता अतः वह सुशीघ्र भवाब्धि पार ॥५४॥
संभोग में सुख नहीं कहते मुमुक्षु, मोक्षार्थ योग धरते सब संत भिक्षु।
अज्ञान भाव वश हो वह सर्व काल, संभोग में निरत हो बहिरात्म बाल ॥५५॥
अज्ञान रूप तम में चिरमूढ़ सोये, भोगे कुयोनिगत-दुःख अतीव रोये।
ऐसी दशा च उनकी दयनीय क्यों है? वे आत्म बोध तज के परलीन क्यों है? ॥५६॥
योगी सदा तप तपे निज में रहेंगे, सद्ध्यान ध्या परिषहादिक भी सहेंगे।
‘मेरा शरीर' इस भाँति नहीं कहेंगे, कोई प्रबन्ध परसंग नहीं रखेंगे ॥५७॥
मोही नहीं समझते निज शक्ति को भी, ओ जानते न मम उत्तम बोध से भी।
तो क्यों अहो! अबुध को उपदेश मेरा, होगा नहीं उदित सूर्य नहीं सबेरा ॥५८॥
सद्बोध शिष्य-दल को जब मैं दिलाऊँ, स्वामी! निजानुभव मैं तब हा! न पाऊँ।
ना शब्दगम्य, निजगम्य, अमूर्त हूँ मैं, कैसे?किसे! कब उसे! दिखला सकूँ मैं ॥५९॥
संतुष्ट बाह्य धन में कुपथाभिरूढ़, उत्कृष्ट स्वीय-धन-विस्मृति से ‘‘प्रमूढ़''।
चारित्र धार तपते तजते कुभोग, पाते प्रमोद निज में ‘मुनि' सन्त लोग ॥६०॥
ना! जानता वह कभी सुख-दुःख को है, स्वामी! अचेतन-निकेतन देह जो है।
मिथ्यात्वभाव वश हो तनकी सुसेव, मोही नितान्त करता फिर भी सदैव ॥६१॥
देहादि में निरत हैं जबलौं हि जीव, निर्भीत दुःख सहता तबलौं अतीव।
शुद्धात्म ध्यान तुझको जब हो खुशी है, तेरे तदा निकट ही शिव-कामिनी है ॥६२॥
ज्यों वस्त्र को पहन मार्दव स्पर्श शस्य, हैं मानते न निज को ‘बलवान् मनुष्य'।
ना मानते सुबुध त्यों निज देह देख, सन्तुष्ट पुष्ट निज को बलवान् सुरेख ॥६३॥
होता यदा वसन है यदि जीर्ण-शीर्ण, कोई तदा समझते निज को न क्षीण।
काया जरा समय में यदि कांति हीन, ज्ञानी तदा समझते निज को न क्षीण ॥६४॥
है मूल्यवान पट भी यदि नष्ट होता, संसार में अबुध भी न कदापि रोता।
देहावसान यदि हो मम तो खुशी है, मेरा नहीं मरण यों कहते वशी हैं ॥६५॥
हैं पंक से मलिन यद्यपि शुक्ल वस्त्र, पै मानते मनुज तो निज को पवित्र।
तो देह में रुधिर पीव पड़े सड़े भी, योगी स्वलीन फिर भी, तपते खड़े ही ॥६६॥
जो आत्म-चिन्तन सदा करता नितान्त, निस्पन्द ही जग उसे दिखता प्रशान्त।
होता वही 'जिन' अतः गतक्लांत विज्ञ, मोही सदा दुख सहे बहिरात्म अज्ञ॥६७॥
जो राग-रोष करता गहता शरीर, तो बार-बार मरता सह, दुःख पीर।
प्रत्येक काल जिस कारण कर्म ढोता, तो जानता न निज को भव बीच रोता ॥६८॥
प्रत्येक काल जड़ पुद्गल वर्गणाएँ, जाती, प्रवेश करती तन में परायें।
तो पूर्वसा इसलिए तन दीखता है, मोही निजीय कहता उसको वृथा है॥६९॥
काला न मैं ललित , लाल नहीं अनूप, रोगी न पुष्ट अति हृष्ट नहीं कुरूप।
पै नित्य, सत्य अरु मैं वर बोध-धाम, मेरा अतः विनय से मुझको प्रणाम ॥७०॥
जो ग्रन्थ त्याग, उर में शिव की अपेक्षा, मोक्षार्थ मात्र रखता, सबकी उपेक्षा।
होता विवाह उसका शिवनारि-संग, तो मोक्ष चाह यदि है बन तू निसंग ॥७१॥
संसर्ग पा अनल का नवनीत जैसा, नोकर्म पा पिघलता बुध ठीक वैसा।
योगी रहे इसलिए उनसे सुदूर, एकान्त में विपिन में निज में जरूर ॥७२॥
मैं जा रहूँ नगर में, वन में कभी न, ऐसा विचार करता, बहिरात्म दीन।
ज्ञानी न ईदृश विचार स्वचित्त लाता, निश्चिन्त हो सतत किन्तु निजात्म ध्याता ॥७३॥
निस्सार पार्थिव तनादिक काऽनुराग, है बीज अन्य तन का द्रुत भव्य! जाग।
तो बीज मोक्ष द्रुम का निज भावना है, भावो उसे यदि तुम्हें शिव कामना है॥७४॥
आत्मा हि कारण सदा भव का रहा है, जाता वही नियम से शिव को तथा है।
है आत्म का गुरु अतः स्वयमेव आत्मा, कोई न अन्य इस भाँति कहे महात्मा ॥७५॥
होता यदा जड़ तनादिक का वियोग, भारी विलाप करते बहिरात्म लोग।
मैं तो मरा मरण!! हाय! महा समीप, ऐसे कहे न जिनके उर-बोध-दीप ॥७६॥
प्राचीन वस्त्र तज वस्त्र नवीन लेते, स्वामी! यथा मनुज मात्र न खिन्न होते।
योगी तथा न डरता यदि काय जाता, मेरा नहीं मरण है इस भाँति गाता ॥७७॥
जो भी यहाँ विषय भोग करें करावें, शुद्धात्म ध्यान च्युत होकर कष्ट पावें।
जो मौन सर्व व्यवहारिक कार्य में हैं, वे ही स्वदर्शन करें, निज में रमे हैं ॥७८॥
तो देख बाह्य धन वैभव और अंग, ओ! आत्म को निरख के निज अन्तरंग।
निस्सार जान जड़ को पर औ अमेध्य, छोड़े उसे बुध सुशीघ्र बने अवद्य॥७९॥
जो जोग धार, वन जीवन है बिताता, प्रारम्भ में जग उसे ‘मद' सा दिखाता।
पश्चात् वही निरस-ठूठ समा दिखाता, अभ्यास से मुनि यहाँ निज वित्त पाता ॥८०॥
तत्त्वोपदेश पर को दिन-रैन देता, सद्बोध और सुनता जिन शास्त्र वेत्ता।
पै देह भिन्न मम-जीव सदैव भिन्न, ऐसा न बोध यदि हो शिव मात्र स्वप्न ॥८१॥
शुद्धात्म ध्यान सर में निज को डुबाओ, दुर्गन्ध देह सर को सहसा भुलाओ।
तो देह धारण पुनः जिससे न होवे, पावे विशुद्ध पद औ वसु कर्म खोवे ॥८२॥
निर्धान्त अत्र व्रत से वह पुण्य होता, अत्यन्त क्लांत! व्रतहीन कुपाप ढोता।
दोनों विलीन जब हो तब मोक्ष भिक्षु, छोड़े व्रतेतर समा व्रत को मुमुक्षु ॥८३॥
संसार कारण व्रतेतर आद्य छोड़, वैराग्य पा विषय से निज को सुमोड़।
छोड़े महाव्रत तदा मुनि मौनधारी, होती स्वहस्तगत है जब मोक्ष नारी ॥८४॥
संकल्प, जल्प व विचित्र विकल्प वृन्द, है दुःख मूल, जिससे वसु कर्म बन्ध।
होता यदा जड़तया उसका विनाश, आत्मा तदा स्वपद-दिव्य गहे प्रकाश ॥८५॥
जो अव्रती वह सुशीघ्र बने व्रती ही, सज्ज्ञान में परम लीन रहे व्रती भी।
संपन्न ध्यान क्रमशः स्वयमेव होगा, विज्ञान-पूर्ण मुनि यों भव-मुक्त होगा ॥८६॥
चारित्र बाहर तनाश्रित दीखता है, तो जीव का ‘भव' यही तन तो रहा है।
जो मात्र बाह्य तप में रहता सुलीन, होता न मुक्त निज-निर्मल-भाव-हीन ॥८७॥
ये शैव वैष्णव तथा बहु जातियाँ हैं, सारी यहाँ जड़ तनाश्रित पंक्तियाँ हैं।
जो मूढ़ जाति-मद है रखता सदैव, कैसा उसे शिव मिले अयि! वीर देव! ॥८८॥
मैं हूँ दिगंबर अतः शिवमार्गगामी, कोई नहीं मम समा बुध अग्रगामी।
इत्थं प्रमत्त मुनि हो मद धारता है, पाता न मोक्ष पद को वह भूलता है॥८९॥
ज्ञानी सुयोग धरते तपते शिवार्थ, जो दूर हैं विषय से निज साधनार्थ।
तो भोग लीन रहता दिन-रैन मोही, है त्याग का वह सदा अनिवार्य द्रोही ॥९०॥
निर्भ्रांत देह जड़ ही नित जानता है, मोहाभिभूत नर ईदृश मानता है।
पंगु प्रदर्शित यथा पथ-रूढ़ अन्ध, ना दीखता पथिक को वह हाय! अन्ध ॥९१॥
जो अन्ध-खंज युग अन्तर जानते हैं, ज्यों अन्ध को नयनवान न मानते हैं।
विज्ञान पूर्ण निज को मुनि मानते जो, आत्मानुरूप तन को नहिं जानते त्यों ॥९२॥
उन्मत्त सुप्त जन की वह जो क्रिया हो, मोही उसे भ्रम कहे यह अज्ञता ओ!
पै रोष-तोषमय तामस-भाव को ही, हैं मानते 'भ्रम' अहो! गुरु जो अलोभी ॥९३॥
सिद्धांत हस्तगत यद्यपि है जिसे वो, सद्ध्यान हीन यदि हो शिव ना उसे हो।
शुद्धात्म का अनुभवी यदि नींद लेता, तो भी अपार सुख पा, भव पार होता ॥९४॥
स्वामी! जहाँ मनुज बुद्धि लगी रही है, होती नितांत उसकी रुचि भी वहीं है।
होती यदा रुचि जहाँ अयि भव्य! मित्र, होता सुलीन मन है वह नित्य तत्र ॥९५॥
स्वामी! जहाँ मनुज बुद्धि लगी नहीं है, होती वहाँ रुचि कभी उसकी नहीं है।
होती तथा रुचि नहीं सहसा जहाँ है, होता सुलीन मन ना वह भी वहाँ है॥९६॥
छद्मस्थ भव्य जिसको नहिं भोग भाता, सिद्धात्म भक्ति करके वह मुक्ति जाता।
बत्ती यथा अलग होकर दीप से भी, होती अहो द्युतिमयी उस संग से ही ॥९७॥
जो आत्म ध्यान करता दिन-रैन त्यागी, होता वही परम आतम वीतरागी।
संघर्ष से विपिन में स्वयमेव वृक्ष, होता यथा अनल है अयि भव्य दक्ष! ॥९८॥
देखो! विशुद्ध पद को निज में सही यों, ध्याओ उसे वचन-गोचर भी नहीं जो।
पाओ अतः परम पावन मोक्ष-धाम, आना नहीं इधर लौट वहीं विराम ॥९९॥
रे आत्म तत्त्व यदि भौतिक ही यहाँ हो, तो मोक्ष यत्न बिन ही सहसा अहा! हो।
ऐसा न हो, तब सदा तप से सुमुक्ति, योगी दुखी न, जब जागरती स्वशक्ति ॥१००॥
होता यथा मरण यद्यपि स्वप्न में है, तो भी न नाश निज का परमार्थ से है।
स्वामी! तथा मरण हो जब आयु अन्त, पै देह ही बदलता, नित मैं अनन्त ॥१०१॥
जो कायक्लेश बिन अर्जित आत्म ज्ञान, शीतादि कष्ट जब हो द्रुत नश्यमान।
कायानुसार सब ही नित काय क्लेश, योगी सहे सतत वे धर नग्न भेष ॥१०२॥
विद्वेष राग करता यह ज्योंहि जीव, त्यों ही चले पवन भी तन में अतीव।
औ वायु से सकल अङ्ग उपांग सारे, होते स्वकार्य रत नौकर से विचारे ॥१०३॥
निस्सार दैहिक विवर्त्त समूह को भी, 'आत्मा' कहे अबुध लोक सदा प्रमोही।
स्वामी! वशी सुबुध तो पर को विसार, होते सुशीघ्र दुख पूर्ण-भवाब्धिपार ॥१०४॥
जो भी समाधि स्तुति को पढ़ आत्म, वेद, ‘मैं औ शरीर' इनमें कुछ भी न भेद।
ऐसा विचार तजते बन अन्तरात्मा, पाते निजीय सुख को, बनते महात्मा ॥१०५॥
आचार्य पूज्यपाद स्तुति
थे पूज्यपाद, वृषपाल, वशी, वरिष्ठ, थे आपके न रिपु, मित्र, अनिष्ट, इष्ट।
मैं पूज्यपाद यति को प्रणमूँ त्रिसंध्या, ‘विद्यादिसागर' बनूं, तज दें अविद्या ॥
Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव