सत् शास्त्र को सुन, हिताहित बोध पाओ, आदेय हेय समझो, सुख चूँकि चाहो।
आदेय को झट भजो, तज हेय भाई! इत्थं न हो कुगति से पुनि हो सगाई ॥२४५॥
आदेश, ज्ञान प्रभु का शिव पंथ पंथी, पाके स्व में विचरते, तज सर्वग्रंथि।
सम्यक्त्व योग तप संयम ध्यान धारे, काटें कुकर्म, निज जीवन को सुधारें ॥२४६॥
ज्यों ज्यों श्रुताम्बुनिधि में डुबकी लगाता, त्यों त्यों व्रती नव नवीन प्रमोद पाता।
वैराग्य भाव बढ़ता श्रुतभावना हो, श्रद्धान हो दृढ़, नहीं फिर वासना हो ॥२४७॥
सूची भले ही कर से गिर भी गई हो, खोती कभी न यदि डोर लगी हुई हो।
देही ससूत्र यदि हो श्रुत बोध वाला, होता विनष्ट भव में न, रहे खुशाला ॥२४८॥
भाई भले तुम बनो बुध मुख्य नेता, वक्ता कवी विविध-वाड्मय वेद वेत्ता।
आराधना यदि नहीं दृग की करोगे, तो बार-बार तन धार दुखी बनोगे ॥२४९॥
तू राग को तनिक भी तन में रखेगा, शुद्धात्म को फिर कदापि नहीं लखेगा।
होगा विशारद जिनागम में भले ही, आत्मा त्वदीय दुख से भव में रुले ही ॥२५०॥
आत्मा न आतम अनातम को लखेगा, सम्यक्त्वपात्र किस भाँति अहो बनेगा।
आचार्य देव कहते बन वीतरागी, क्यों व्यर्थ दुःख सहता, तज राग रागी ॥२५१॥
तत्त्वावबोधि सहसा जिससे जगेगा, चांचल्यचित्त जिससे वश में रहेगा।
आत्मा विशुद्ध जिससे शशि सा बनेगा, होगा वही ‘विमलज्ञान' स्व-सौख्य देगा ॥२५२॥
माहात्म्य ज्ञान गुण का यह मात्र सारा, रागी विराग बनता तज राग खारा।
मैत्री सदैव जग से रखता सुचारा, शुद्धात्म में विचरता, सुख का अपारा ॥२५३॥
आत्मा अनंत, निज शून्य उपाधियों से, अत्यन्त भिन्न पर से, विधि बंधनों से।
ऐसा निरंतर निजातम देखते हैं, वे ही समग्र जिनशासन जानते हैं ॥२५४॥
हूँ काय से विकल, केवल केवली हूँ, मैं एक हूँ विमल ज्ञायक हूँ बली हूँ।
जो जानता स्वयं को इस भाँति स्वामी, निर्धान्त हो वह जिनागम पारगामी ॥२५५॥
साधू समाधिरत हो निज को विशुद्ध, जाने, बने सहज शुद्ध अबद्ध बुद्ध।
रागी स्व को समझ राग-मयी विचारा, होता न मुक्त भव से ,दुख हो अपारा ॥२५६॥
जो जानते मुनि निजातम को यदा हैं, वे जानते नियम से पर को तदा हैं।
है जानना स्वपर को इक साथ होता, ऐसा जिनागम रहा, दुख सर्व खोता ॥२५७॥
जो एक को सहज से मुनि जानते हैं, वे सर्व को समझते जब जागते हैं।
यों ईश का सदुपदेश सुनो हमेशा, संक्लेश द्वेष तज शीघ्र बनो महेशा ॥२५८॥
सद्बोधि रूप सर में डुबकी लगा ले, संतप्ता तू स्नपित हो सुख तृप्ति पा ले।
तो अंत में बल अनंत ज्वलंत पाके, विश्राम ले, अमित काल स्वधाम जाके ॥२५९॥
अर्हन्त स्वीय गृह को द्रुत जा रहे हैं, वे शुद्ध-द्रव्य गुण पर्यय पा रहे हैं।
जो जानता यति उन्हें निज जानता है, संमोह कर्म उसका झट भागता है ॥२६०॥
ज्यों वित्त बाँट स्वजनों नहिं दूसरों में, भोगी सुभोग करता दिन रात्रियों में।
पा नित्य-ज्ञान निधि,नित्य नितांत ज्ञानी, त्यों हो सुखी,न रमता पर में अमानी ॥२६१॥