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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (१८) सम्यग्दर्शन सूत्र

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    व्यवहार सम्यक्त्व और निश्चय सम्यक्त्व

     

    सम्यक्त्व, रत्नत्रय में वर मुख्य नामी, है मूल मोक्ष तरु का, तज काम कामी।

    है एक निश्चय तथा व्यवहार दूजा, होते द्वि भेद, उनकी कर नित्य पूजा ॥२१९॥

     

    तत्त्वार्थ में रुचि भली भव सिन्धु सेतु, सम्यक्त्व मान उसको व्यवहार से तू।

    सम्यक्त्व निश्चयतया निज आतमा ही, ऐसा जिनेश कहते शिव-राह राही ॥२२०॥

     

    कोई न भेद, दृग में, मुनि मौन में है, माने इन्हें सुबुध ‘एक' यथार्थ में है।

    होता अवश्य जब निश्चय का सुहेतु, सम्यक्त्व मान व्यवहार, सदा उसे तू ॥२२१॥

     

    योगी बनो अचल मेरु बनो तपस्वी, वर्षों भले तप करो, बन के तपस्वी।

    सम्यक्त्व के बिन नहीं तुम बोधि पाओ, संसार में भटकते दुख ही उठाओ ॥२२२॥

     

    वे भ्रष्ट हैं पतित, दर्शन भ्रष्ट जो हैं, निर्वाण प्राप्त करते न निजात्म को हैं।

    चारित्र भ्रष्ट पुनि चारित ले सिजेंगे, पै भ्रष्ट दर्शन तया नहिं वे सिजेंगे ॥२२३॥

     

    जो भी सुधा दृगमयी रुचि संग पीता, निर्वाण पा अमर हो, चिरकाल जीता।

    मिथ्यात्व रूप मद पान अरे! करेगा, होगा सुखी न, भव में भ्रमता फिरेगा ॥२२४॥

     

    अत्यन्त श्रेष्ठ दृग ही जग में सदा से, माना गया जड़मयी सब सम्पदा से।

    तो मूल्यवान, मणि से कब काँच होता? स्वादिष्ट इष्ट, घृत से कब छांछ होता ॥२२५॥

     

    होंगे हुए परम आतम हो रहे हैं, तल्लीन आत्म सुख में नित ओ रहे हैं।

    सम्यक्त्व का सुफल केवल ओ रहा है, मिथ्यात्व से दुखित हो जग रो रहा है ॥२२६॥

     

    ज्यों शोभता कमलिनि दृगमंजु पत्र, हो नीर में न सड़ता रहता पवित्र।

    त्यों लिप्त हो विषय से न, मुमुक्षु प्यारे, होते कषाय मल से अति दूर न्यारे॥२२७॥

     

    धारें विराग दृग जो जिन धर्म पाके, होते उन्हें विषय, कारण निर्जरा के।

    भोगोपभोग करते सब इन्द्रियों से, साधू सुधी न बँधते विधि-बंधनों से ॥२२८॥

     

    वे भोग भोग कर भी बुध हो न भोगी, भोगे बिना जड़ कुधी बन जाय भोगी।

    इच्छा बिना यदि करें कुछ कार्य त्यागी, कर्त्ता कथं फिर बने?उनका विरागी ॥२२९॥

     

    ये काम भोग न तुम्हें समता दिलाते, भाई! विकार तुम में न कभी जगाते।

    चाहो इन्हें यदि डरो इनसे जभी से, पाओ अतीव दुख को सहसा तभी से ॥२३०॥

     

    सम्यग्दर्शन अंग

     

    ये अष्ट अंग दृग के, विनिशंकिता है, नि:कांक्षिता विमल निर्विचिकित्सिता है।

    चौथा अमूढ़पन है उपगूहना को, धारो स्थितीकरण वत्सल भावना को ॥२३१॥

     

    नि:शंक हो निडर हो सम-दृष्टि वाले, सातों प्रकार भय छोड़ स्वगीत गा लें।

    नि:शंकिता अभयता इक साथ होती, है भीति ही स्वयम हो भयभीत रोती ॥२३२॥

     

    कांक्षा कभी न रखता जड़ पर्ययों में, धर्मों-पदार्थ दल के विधि के फलों में।

    होता वही मुनि निकांक्षित अंगधारी, वंदूँ उन्हें बन सकें द्रुत निर्विकारी ॥२३३॥

     

    सम्मान पूजन न वंदन जो न चाहे, ओ क्या कभी श्रमण हो निज ख्याति चाहे?

    हो संयमी यति व्रती निज आत्म खोजी, हो भिक्षु तापस वही उसको नमो जी ॥२३४॥

     

    हे योगियो! यदि भवोदधि पार जाना, चाहो अलौकिक अपार स्वसौख्य पाना।

    क्यों ख्याति-लाभनिज पूजन चाहते हो? क्या मोक्ष धाम उनसे तुम मानते हो ॥२३५॥

     

    कोई घृणास्पद नहीं जग में पदार्थ, सारे सदा परिणमे निज में यथार्थ।

    ज्ञानी न ग्लानि करते फलतः किसी से, धारे तृतीय दृग अंग तभी खुशी से ॥२३६॥

     

    ना मुग्ध मूढ़ मुनि हो जग वस्तुओं में, हो लीन आप अपने-अपने गुणों में।

    वे ही महान समदृष्टि अमूढदृष्टि, नासाग्र-दृष्टि रख नाशत कर्म-सृष्टि ॥२३७॥

     

    चारित्र बोध दुग से निज को सजाओ, धारो क्षमा तप तपो विधि को खपाओ।

    माया-विमोह-ममता तज मार मारो, हो वर्धमान, गतमान, प्रमाण धारो ॥२३८॥

     

    शास्त्रार्थ गौण न करो, न उसे छुपाओ, विज्ञान का मद घमंड नहीं दिखाओ।

    भाई किसी सुबुध की न हँसी उड़ाओ, आशीष दो न पर को,पर को भुलाओ ॥२३९॥

     

    ज्यों ही विकार लहरें मन में उठे तो, तत्काल योग त्रय से उनको समेटो।

    औचित्य अश्व जब भी पथ भूलता हो, ले लो लगाम कर में अनुकूलता हो ॥२४०॥

     

    हे! भव्य गौतम! भवोदधि तैर पाया, क्यों व्यर्थ ही रुक गया तट पास आया।

    ले ले छलांग झट से अब तो धरा पै, आलस्य छोड़ वरना दुख ही वहाँ पै ॥२४१॥

     

    श्रद्धा समेत चलते बुध धार्मिकों की, सेवा सुभक्ति करते उनके गुणों की।

    मिश्री मिले वचन जो नित बोलते हैं, वात्सल्य अंग धरते, दृग खोलते हैं ॥२४२॥

     

    योगी सुयोगरत हो गिरि हो अकम्पा, धारो सदैव उर जीव दयाऽनुकम्पा।

    धर्मोपदेश नित दो तज वासना को, ऐसा करो कि जिन धर्म प्रभावना हो ॥२४३॥

     

    वादी सुतापस निमित्त सुशास्त्र ज्ञाता, श्री सिद्धिमान, वृष के उपदेश दाता।

    विद्या-विशारद, कवीश विशेषवक्ता, होता प्रचार इनसे वृष की महत्ता ॥२४४॥


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