व्यवहार चारित्र सूत्र
होते सुनिश्चय-नयाश्रित वे अनूप, चारित्र और तप निश्चय सौख्य कूप।
पै व्यावहार-नय-आश्रित ना स्वरूप, चारित्र और तप वे व्यवहार रूप ॥२६२॥
जो त्यागना अशुभ को शुभ को निभाना, मानो उसे हि व्यवहार चरित्र बाना।
ये गुप्तियाँ समितियाँ व्रत आदि सारे, जाते सदैव व्यवहारतया पुकारें ॥२६३॥
चारित्र के मुकुट से सिर ना सजोगे, आरूढ़ संयममयी रथ पै न होगे।
स्वाध्याय में रत रहो तुम तो भले ही, ना मुक्ति-मंजिल मिले, दुख ना टले ही ॥२६४॥
देता क्रिया रहित ज्ञान नहीं विराम, मार्गज्ञ हो यदि चलो न, मिले न धाम।
किंवा नहीं यदि चले अनुकूल वात, पाता न पोत तट को यह सत्य बात ॥२६५॥
चारित्र-शुन्य नर जीवन ही व्यथा है, तो आगमाध्ययन भी उसकी वृथा है।
अन्धा-कदापि कुछ भी जब ना लखेगा, जाज्वल्यमान कर दीपक क्या करेगा? ॥२६६॥
अत्यल्प भी बहुत है श्रुत ही उन्हीं का, जो संयमी, सतत ध्यान धरूं उन्हीं का।
सागार का बहुत भी श्रुत बोध'भारा', चारित्र को न जिसने उर में सुधारा ॥२६७॥
निश्चय चारित्र
आत्मार्थ आतम निजातम में समाता, सच्चा सुनिश्चय चरित्र वही कहाता।
है भव्य पावन पवित्र चरित्र पालो, पालो अपूर्व पद को, निज को दिपालो ॥२६८॥
शुद्धात्म को समझ के परमोपयोगी, है पाप-पुण्य तजता, धर योग योगी।
ओ निर्विकल्प-मय चारित है कहाता, मेरे समा निकट भव्यन को सुहाता ॥२६९॥
रागाभिभूत बन तू पर को लखेगा, भाई शुभाशुभ विभाव खरीद लेगा।
तो वीतराग मय चारित से गिरेगा, संसार बीच पर-चारित से फिरेगा ॥२७०॥
हो अन्तरंग बहिरंग निसंग नंगा, शुद्धात्म में विचरता जब साधु चंगा।
सम्यक्त्व बोधमय आतम देख पाता, आत्मीय चारित सुधारक है कहाता ॥२७१॥
आतापनादि तप से तन को तपाना, अध्यात्म से स्खलित हो व्रत को निभाना।
है मित्र! बाल तप संयम ओ कहाता, ऐसा जिनेश कहते, भव में घुमाता ॥२७२॥
लो! मास-मास उपवास करे रुची से, अत्यल्प भोजन करे, न डरे किसी से।
पै आत्मबोध बिन मूढ़ व्रती बनेगा, ना धर्म लाभ लवलेश उसे मिलेगा ॥२७३॥
चारित्र ही परम धर्म यथार्थ में है, साधू जिसे शममयी लख साधते हैं।
मोहादि से रहित आतम भाव प्यारा, माना गया समय में शम साम्य सारा ॥२७४॥
मध्यस्थ भाव समभाव, विराग भाव, चारित्र, धर्ममय भाव, विशुद्ध भाव।
आराधना स्वयम की पद सात सारे, हैं भिन्न-भिन्न, पर आशय एक धारे ॥२७५॥
शास्त्रज्ञ हो श्रमण हो समधी तपस्वी, हो वीतराग व्रत संयम में यशस्वी।
जो दुःख में व सुख में समता रखेगा, शुद्धोपयोग उस ही क्षण में लखेगा ॥२७६॥
शुद्धोपयोग दृग है वर बोध-भानु, निर्वाण सिद्ध शिव भी उसको हि जानूँ।
मानूं उसे श्रमणता मन में बिठा लूं, वन्दूं उसे नित, नमूं निज को जगा हूँ ॥२७७॥
शुद्धोपयोग-वश साधु सुसिद्ध होते, स्वात्मोत्थ-सातिशय शाश्वत सौख्य जोते।
जाती कही न जिसकी महिमा कभी भी, अन्यत्र छोड़ जिसको सुख ना कहीं भी ॥२७८॥
वे मोह राग रति रोष नहीं किसी से, धारें सुसाम्य सुख में दुख में रुची से।
होके बुभुक्षु न हि भिक्षु मुमुक्षु हो के, आते हुए सब शुभाशुभ कर्म रोके ॥२७९॥
समन्वय सूत्र
है वीतराग व्रत साध्य सदा सुहाता, होता सराग व्रत साधन, साध्यदाता।
तो पूर्व साधन, अनन्तर साध्य धारो, संपूर्ण बोध मिलता, शिव को पधारो ॥२८०॥
त्यों भीतरी कलुषता मिटती चलेगी, त्यों बाहरी विमलता बढ़ती बढ़ेगी।
देही प्रदोष मन में रखता जभी है, ओ! बाह्य दोष सहता, करता तभी है।
रे! पंक भीतर सरोवर में रहा है, जो बाह्य में जल कलंकित हो रहा है ॥२८१॥
मायाभिमान मद मोह विहीन होना, है भाव शुद्धि, जिससे शिव सिद्धि लो ना।
आलोक से सकल लोक अलोक देखा, यों वीर ने सदुपदेश दिया सुरेखा ॥२८२॥
जो पंच पाप तज, पावन पुण्य पाता, हो दूर भी अशुभ से शुभ को जुटाता।
रागादि भाव फिर भी यदि ना तजेगा, शुद्धात्म को न मुनि होकर भी भजेगा ॥२८३॥
तो आदि में अशुभ को, शुभ से मिटाओ, शुद्धोपयोग बल से, शुभ को हटाओ।
यों ही अनुक्रमण से कर कार्य योगी, ध्याओ निजात्म-जिनको,सुख शांति होगी॥२८४॥
चारित्र नष्ट जब हो दृग बोध घाते, जाते सुनिश्चय सही रह वे न पाते।
हो या न हो विलय पै दृग बोध का रे! जावे चरित्र, मत यों व्यवहार का रे ॥२८५॥
श्रद्धा पुरी सुरपुरी सम जो सजाओ, ताला वहाँ सुतप संवर का लगाओ।
पातालगामिनि क्षमामय खातिका हो, प्राकार गुप्तिमय हो नभ छू रहा हो ॥२८६॥
औ धैर्य से धनुष-त्यागमयी सुधारो, सद्ध्यान बाण बल से विधि को विदारो।
जेता बनो विधि रणांगन के मुनीश! होओ विमुक्त भव से जगदीश धीश ॥२८७॥