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मेरे गुरुवर... आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
  • (८) राग परिहार सूत्र

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    हैं कर्म के विषम बीज सराग रोष, संमोह से करम हो बहु दोष कोष।

    तो कर्म से जनन मृत्यु तथा जरा हो, ये दु:ख मूल इनकी कब निर्जरा हो? ॥७१॥

     

    हो क्रूर, शूर, मशहूर, जरूर वैरी, हानी तथापि उससे उतनी न तेरी।

    ये राग-रोष तुझको जितनी व्यथा दें, कोई न दे, अब इन्हें दुख दे मिटा दे ॥७२॥

     

    संसार सागर असार अपार खारा, संसारि को सुख यहाँ न मिला लगारा।

    प्राप्तव्य है परम पावन मोक्ष प्यारा, ना जन्म मृत्यु जिसमें सुख का न पारा ॥७३॥

     

    चाहो सुनिश्चय भवोदधि पार जाना, चाहो नहीं यदि यहाँ अब दुःख पाना।

    धोखा न दो स्वयम को टल जाय मौका, बैठो सुशीघ्र तप-संयम रूप नौका ॥७४॥

     

    सम्यक्त्व रूप गुण को सहसा मिटाते, चारित्र रूप पथ से बुध को डिगाते।

    ये पाप ताप भय हैं रति राग रोष, हो जा सुदूर इन से, मिल जाय तोष ॥७५॥

     

    भोगाभिलाष वश ही बस भोगियों को, होना असह्य दुख है सुर मानवों को।

    ना साधु मानसिक कायिक दुःख पाते, वे वीतराग बन जीवन हैं बिताते ॥७६॥

     

    वैराग्य भाव जगता जिस भाव से है, ओ कार्य आर्य करते, अविलंब से हैं।

    जो हैं विरक्त तन से भव पार जाते, आसक्त भोग तन में भव को बढ़ाते ॥७७॥

     

    हैं राग रोष दुख, पै न पदार्थ सारे, वे बार-बार मन में बुध यों विचारे।

    तृष्णा अत: विषय की पड़ मंद जाती, जाती विमोह ममता, समता सुहाती ॥७८॥

     

    मैं शुद्ध चेतन, अचेतन से निराला, ऐसा सदैव कहता सम दृष्टिवाला।

    रे! देह नेह करना अति दुःख पाना, छोड़ो उसे तुम यही गुरु का बताना ॥७९॥

     

    मोक्षार्थ ही, दमन हो सब इन्द्रियों का, वैराग्य से शमन क्रोध कषायियों का।

    हो कर्म आगमन-द्वार नितांत बंद, शुद्धात्म को नमन हो नहिं कर्म बंध ॥८०॥

     

    ज्यों शोभता जलज जो जल से निराला, त्यों वीतराग मुनि भी तन से खुशाला।

    होता विरक्त भव में रहता यहीं है, रंगीन में न रचता पचता नहीं है ॥८१॥

    Edited by संयम स्वर्ण महोत्सव


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