निक्षेप और नय, पूर्ण प्रमाण द्वारा, ना अर्थ को समझता यदि जो सुचारा।
तो सत्य तथ्य विपरीत प्रतीत होता, होता असत्य सब सत्य, उसे डुबोता ॥३२॥
निक्षेप है वह उपाय सुजानने का, होता वही नय निजाशय ज्ञानियों का।
तू ज्ञान को समझ सत्य प्रमाण भाई, यों युक्तिपूर्वक पदार्थ लखें, भलाई ॥३३॥
दो मूल में नय सुनिश्चय, व्यावहार, विस्तार शेष इनका करता प्रचार।
पर्याय-द्रव्य नय हैं मय दो नयों में, होते सहायक ‘सुनिश्चय' साधने में ॥३४॥
धारें अनंत गुण यद्यपि द्रव्य सारे, तो भी ‘सुनिश्चय' अखण्ड उन्हें निहारे।
पैखण्ड,खण्ड कर द्रव्य अखण्ड को भी, देखे कथंचित यहाँ व्यवहार' सो ही ॥३५॥
विज्ञान औ चरित-दर्शन विज्ञ के हैं, जाते कहे, सकल वे व्यवहार से हैं।
ज्ञानी परंतु वह ज्ञायक शुद्ध प्यारा, ऐसा नितान्त नय निश्चय ने निहारा ॥३६॥
है नित्य निश्चय निषेधक, मोक्ष दाता, होता निषिद्ध व्यवहार नहीं सुहाता।
लेते सुनिश्चय नयाश्रय संत योगी, निर्वाण प्राप्त करते, तज भोग भोगी ॥३७॥
बोलो न आंग्ल नर से यदि आंग्ल भाषा, कैसे उसे सदुपदेश मिले प्रकाशा?
सत्यार्थ को न व्यवहार बिना बताया, जाता सुबोध शिशु में गुरु से जगाया ॥३८॥
भूतार्थ शुद्ध नय है निज को दिखाता, भूतार्थ है न व्यवहार, हमें भुलाता।
भूतार्थ की शरण लेकर जीव होता, सम्यक्त्व भूषित वही मन मैल धोता ॥३९॥
जाने नहीं कि वह निश्चय चीज क्या है, है मानते सकल बाह्य क्रिया वृथा है।
वे मूढ़ नित्य रट निश्चय की लगाते, चारित्र नष्ट करते, भव को बढ़ाते ॥४०॥
शुद्धात्म में निरत हो जब संत त्यागी, जीवे विशुद्ध नय आश्रय ले विरागी।
शुद्धात्म से च्युत, सराग चरित्र वाले, भूले न लक्ष्य व्यवहार अभी संभाले ॥४१॥
हैं कौन से श्रमण के परिणाम कैसे, कोई पता नहिं बता सकता कि ऐसे।
तल्लीन हों यदि महाव्रत पालने में, वे वंद्य हैं नित नमूं व्यवहार से मैं ॥४२॥
वे ही मृषा नय करें पर की उपेक्षा, एकांत से स्वयम की रखते अपेक्षा।
सच्चे सदैव नय वे पर को निभा लें, बोलें परस्पर मिलें व गले लगा लें ॥४३॥
उत्सर्ग मार्ग निज में निज का विहारा, शास्त्रादि साधन रखो अपवाद न्यारा।
ज्ञानादि कार्य इनसे बनते सुचारा, धारो यथोचित इन्हें सुख हो अपारा ॥४४॥