वैराग्य से विमल केवल-बोध पाया, ‘सन्मार्ग’ ‘मार्गफल' को जिन ने बताया।
‘सम्यक्त्वमार्ग' जिसका फल मोक्ष न्यारा, है जैनशासन यही सुख दे अपारा॥१९२॥
चारित्र बोध दृग है शिवपंथ प्यारा, ले लो अभी तुम सभी इसका सहारा।
तीनों सराग जब लौं कुछ बंध नाता, ये वीतराग बनते, शिव पास आता ॥१९३॥
धर्मानुराग सुख दे दुख मेट देता, ज्ञानी प्रमादवश यों यदि मान लेता।
अध्यात्म से पतित हो पुनि पुण्य पाता, होता विलीन पर में, निज को भुलाता ॥१९४॥
भाई अभव्य व्रत क्यों न सदा निभा लें, ले लें भले ही तप, संयम गीत गा लें।
औ गुप्तियाँ समितियाँ कुल शील पा लें, पाते न बोध दृग ना बनते उजाले ॥१९५॥
जानो न निश्चय तथा व्यवहार धर्म, बाँधो सभी तुम शुभाशुभ अष्ट कर्म।
सारी क्रिया वितथ हो कुछ भी करो रे! जन्मो,मरो,भ्रमित हो भव में फिरो रे ॥१९६॥
सद्धर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति।
चाहे अभव्य फिर भी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥१९७॥
है पाप जो अशुभ भाव वही तुम्हारा, है पुण्य सौम्य शुभ भाव सभी विकारा।
है निर्विकार निजभाव नितांत प्यारा, हो कर्म नष्ट जिससे सुख शांतिधारा ॥१९८॥
जो पुण्य का चयन ही करता रहा है, संसार को बस अवश्य बढ़ा रहा है।
हो पुण्य से सुगति पै भव ना मिटेगा, हो पुण्य भी गलित तो शिव जो मिलेगा ॥१९९॥
मोही कहे कि शुभ भाव सुशील प्यारा, खोटा बुरा अशुभ भाव कुशील खारा।
संसार के जलधि में जब जो गिराता, कैसे सुशील शुभ भाव, मुझे न भाता ॥२००॥
दो बेड़ियाँ, कनक की इक लोह की है, ज्यों एक सी पुरुष को कस बाँधती है।
हाँ! कर्म भी अशुभ या शुभ क्यों न होवें, त्यों बाँधते नियम से जड़ जीव को वे ॥२०१॥
दोनों शुभाशुभ कुशील, कुशील त्यागो, संसर्ग राग इनका तज नित्य जागो।
संसर्ग राग इनका यदि जो रखेगा, स्वाधीनता विनशती दुख ही सहेगा ॥२०२॥
अच्छा व्रतादिक तया सुर सौख्य पाना, स्वच्छन्दता अति बुरी फिर श्वभ्र जाना।
अत्यंत अंतर व्रताव्रत में रहा है, छाया-सुधूप द्वय में जितना रहा है ॥२०३॥
चक्री बनो सुकृत से, सुर सम्पदायें, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासतायें।
पै पुण्य से परम पावन प्राण प्यारा, सम्यक्त्व हा! न मिलता सुख का पिटारा ॥२०४॥
देवायुपूर्ण दिवि में कर देव आते, वे दैव से अवनि पै नर योनि पाते।
भोगोपभोग गह जीवन हैं बिताते, यों पुण्य का फल हमें गुरु हैं बताते ॥२०५॥
वे भोग भोग कर भी नहिं फूलते हैं, मक्खी समा विषय में नहिं झूलते हैं।
संस्कार हैं विगत के जिससे सदीव, आत्मानुचिंतन सुधी करते अतीव ॥२०६॥
पाना मनुष्य भव को जिनदेशना को, श्रद्धा समेत सुनना तप साधना को।
वे जान दुर्लभ इन्हें बुधलोक सारे, काटे कुकर्म मुनि हो शिव को पधारे ॥२०७॥