गुणोदय
(२६ अक्टूबर, १९८०)
श्री गुणभद्राचार्य द्वारा विरचित 'आत्मानुशासन' नामक अध्यात्म काव्य का 'गुणोदय' पद्यानुवाद है। आचार्य गुणभद्र श्री जिनसेनाचार्य के सुशिप्य थे। इन्होंने ही अपने गुरु द्वारा प्रारब्ध महापुराण की रचना अपूर्ण रहने पर उसे पूर्ण किया था। आचार्य जिनसेन ने केवल ४२ सर्ग और ७ श्लोक ही लिखे थे, शेष भाग एवं उत्तरपुराण की रचना आचार्य गुणभद्र ने ही की। विद्वानों ने इनका समय शक संवत् की आठवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध माना है।
आचार्यश्री विद्यासागरजी महाराज गुणोदय की प्रस्तावना रूप ‘अमिताक्षर' में इसके सम्बन्ध में लिखते हैं- “यह कृति जो आधुनिक शब्द विन्यासों, विविध भावाभिव्यञ्जनाओं एवं छन्दबन्ध-मुक्त-उन्मुक्त लयधाराओं से आकृत है। व्यक्तित्व की सत्ता को नहीं छूती हुई, सहज स्वतंत्र महासत्ता से आलिंगित परम पदार्थ की प्ररूपिका है; परम शान्त अध्यात्मरस से आद्योपान्त आपूरित।''
आगे इसकी प्रेरणा, रचना-स्थल एवं उद्देश्य के सम्बन्ध में वे कहते हैं कि-"इस कृति के सामयिक सत्प्रेरक तीर्थंकर' पत्रिका के सम्पादक डॉ० नेमिचन्द जी हैं। फलस्वरूप जहाँ की हरित-भरित पर्वतीय प्रकृति ने मानो कोटिशः आत्माओं की प्रकृति को विषय-कषायों से पूर्णरूपेण बचाकर मुक्ति दी है, उस परम पावन मुक्तिप्रदा मुक्तागिरि पर भीतरी घटना का घटक, आत्मतत्त्व से भावों, भावों से शब्दों एवं शब्दों से भाषा को रूप मिलकर इसका सम्पादन हुआ है। धन्य! पूर्ण विश्वास है कि इसका सदुपयोग होगा, उपलब्ध उपयोग होगा।''
इसमें आत्मानुशासन के आद्योपान्त समस्त २६९ श्लोकों का पद्यानुवाद हुआ है। इसके अतिरिक्त मूल ग्रन्थ के पूर्व सात दोहों में मंगलाचरण है, जिसमें आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य गुणभद्र एवं गुरु आचार्य ज्ञानसागर के प्रति श्रद्धा-सुमन अर्पित किये गये हैं तथा अन्त में पद्यानुवाद का प्रयोजन बतलाया गया है-आत्मानुशासन के पद्यमयी अनुवाद में मेरा प्रयोजन केवल यही है कि मेरा मोह और प्रमाद नष्ट हो जाये।
श्री दिगम्बर जैन सिद्धक्षेत्र मुक्तागिरि (म० प्र०) पर वर्षावास किया और परम आत्मानन्द प्राप्त किया। वहीं पर इस वर्षाकाल में वी० नि० सं० २५०६ के कार्तिक मास की कृष्णा तृतीया, रविवार, २६ अक्टूबर, १९८० के दिन इस ग्रन्थ को समाप्त किया, जो संसार के भोगों से मुक्ति का कारण है।
आत्मानुशासन में आत्मा को अनुशासित करने के लिए उपाय बतलाये गये हैं-अनुशासक-वक्ता कैसा हो?, श्रोता भी कैसा हो?, पाप-पुण्य के फल, सम्यग्दर्शन का स्वरूप एवं भेद, धर्म की महत्ता, मृगया-पिशुनतादि पाप कर्मों की अनुपादेयता, पुण्य कर्मों की उपादेयता, विषयान्धता की सदोषता, परिग्रह, त्याग तृष्णा निग्रह, न्यायपूर्वक धनोपार्जन, रागद्वेष से हानि, आभ्यन्तर शान्ति, विषयभोगों की अस्थिरता, तृष्णा की प्रबलता, स्त्री-पुत्र-धनादि दुःखकर हैं, संसार में सभी दु:खी हैं, सुखी तो तपस्वी हैं, जन्म-मरण के ताप, दैव, मनुष्य पर्याय-अवस्थाएँ, मिथ्यात्व, यम-दमादि, तपश्चरण, वैराग्य, मुक्तिपथ और मोक्षादि विषयों पर बड़े विस्तार से प्रकाश डाला गया है और इस प्रकार संसार के अज्ञजनों को अनुशासन का पाठ पढ़ाया गया है।