जो भी लखा सहज से अरहंत गाया, सत् शास्त्र बाद गणनायक ने रचाया।
सूत्रार्थ को समझने पढ़ शास्त्र सारे, साधे अतः श्रमण है परमार्थ प्यारे ॥१॥
सत् सूत्र में कथित आर्ष परम्परा से, जो भी मिला द्विविध सूत्र अभी जरा से।
जो जान मान उसको मुनि भव्य होता, आरूढ़ मोक्ष पथ पे शिव सौख्य जोता ॥२॥
साधू विराग यदि है जिन-शास्त्र ज्ञाता, संसार का विलय है करता सुहाता।
सूची न नष्ट यदि डोर लगी हुई हो, खोती नितान्त, यदि डोर नहीं लगी हो ॥३॥
साधू ससूत्र यदि है भव में भले हो, होता न नष्ट भव में भव ही टले वो।
हो जीव यद्यपि अमूर्त सुसूत्र द्वारा, आत्मानुभूति कर काटत कर्म सारा ॥४॥
सूत्रार्थ है वह जिसे जिन ने बताया, जीवादि तत्त्व सब अर्थ हमें दिखाया।
प्राप्तव्य त्याज्य इनमें फिर कौन होते, जो जानते नियम से समदृष्टि होते ॥५॥
जो व्यावहार परमार्थतया द्विधा है, सर्वज्ञ से कथित सूत्र सुनो! सुधा है।
योगी उसे समझते शिव सौख्य पाते, वे पाप पंकपन पूरण हैं मिटाते ॥६॥
विश्वास शास्त्र पर भी नहिं धार पाते, होते सवस्त्र पद भ्रष्ट कुधी कहाते।
माने तथापि निज को मुनि, ध्यान देवो, आहार भूल उनको कर में न देवो ॥७॥
सत् सूत्र पा हरिहरादिक से प्रतापी, जा स्वर्ग कोटि भव में रुलते तथापि।
स्थाई नहीं सहज सिद्धि विशुद्धि पाते, संसार के पथिक हो दुख वृद्धि पाते ॥८॥
निर्भीक सिंह सम यद्यपि हैं तपस्वी, आतापनादि तपते गुरु हों यशस्वी।
स्वच्छन्द हो विचरते यदि, पाप पाते, मिथ्यात्व धार कर वे भवताप पाते ॥९॥
होना दिगम्बर व अम्बर त्याग देना, आहार होकर खड़े कर पात्र लेना।
है मोक्षमार्ग यह शेष कुमार्ग सारे, ऐसा जिनेश मत है बुध मात्र धारें ॥१०॥
संयुक्त साधु नियमों यम संयमों से, उन्मुक्त बाधक परिग्रह संगमों से।
हो वन्द्य वो नर सुरासुर लोक में हैं, ऐसा कहें जिनप, नाथ त्रिलोक के हैं ॥११॥
बाईस दुस्सह परीषह-यातनायें, पूरा लगा बल सहें बल ना छिपायें।
हैं कर्म नष्ट करने रत नग्न देही, वे वन्द्यनीय मुनि, वन्दन हो उन्हें ही ॥१२॥
सम्यक्त्व बोध युत हैं जिनलिंगधारी, जो शेष देश-व्रत पालक वस्त्रधारी।
‘इच्छामि' मात्र करने बस पात्र वे हैं, ऐसा नितान्त कहते जिन-शास्त्र ये हैं ॥१३॥
वे क्षुल्लकादि गृहकर्म अवश्य त्यागे, इच्छा सुकार पद को समझे सुजागे।
शास्त्रानुसार प्रतिमाधर शुद्धदृष्टी, पाते सुरेश पद भी शिवसिद्धि सृष्टि ॥१४॥
इच्छादिकार करना निज-चाह होना, इच्छा जिन्हें न निज की गुम-राह होना।
वे धर्म की सब क्रिया करते भले ही, संसार दु:ख न टले भव में रुले ही ॥१५॥
तू काय से वचन से मन से रुची से, श्रद्धान आत्म पर तो कर रे इसी से।
तू जान आत्म भर को निज यत्न द्वारा, पा मोक्ष लाभ फलतः ध्रुव रत्न प्यारा ॥१६॥
दाता-प्रदत्त कर में स्थित हो दिवा में, आहार ले, न बहू बार नहीं निशा में।
बालाग्र के अणु बराबर भी अपापी, साधू परिग्रह नहीं रखता कदापी ॥१७॥
है जातरूप शिशु सा मुनि धार भाता, अत्यल्प भी नहिं परिग्रह भार पाता।
लेता परिग्रह मनो बहु या जरा सा, क्यों ना करे फिर तुरन्त निगोदवासा ॥१८॥
जो मानते यदि परिग्रह ग्राह्य साधू, वे वन्दनीय नहिं हैं कहलाय स्वादू।
होता घृणास्पद ससंग अगार होता, निस्संग ही जिन कहें अनगार होता ॥१९॥
जो पाँच पाप तज पंच महाव्रती हैं, निर्ग्रन्थ मोक्ष-पथ पे चलते यती हैं।
निर्दोष पालन करें त्रय गुप्तियाँ हैं, वे वन्दनीय, कहती जिन-सूक्तियाँ है॥२०॥
जो भोजनार्थ भ्रमते मन मौन पालें, किंवा सुवाक् समिति से कर-पात्र धारें।
सिद्धान्त में कथित वो गृह-त्यागियों का, दूजा सुलिंग परमोत्तम श्रावकों का ॥२१॥
आहार बैठ, कर में इक बार पा ले, आर्या सवस्त्र वह भी इक वस्त्र धारे।
स्त्री का तृतीय वर लिंग यही कहाता, चौथा न लिंग मिलता जिन-शास्त्र गाता ॥२२॥
सदृष्टि तीर्थकर हो घर में भले ही, जो वस्त्र-धारक जिन्हें शिव ना मिले ही।
निर्ग्रन्थ मोक्ष-पथ ही अवशिष्ट सारे, संसार-पंथ तजते समदृष्टि वाले ॥२३॥
हों बाहु मूल तल में स्तननाभि में भी, हों सूक्ष्म जीव महिला-जन-योनि में भी।
वे सर्व वस्त्र तज दीक्षित होय कैसी, आर्या सवस्त्र रहती, रहती-हितैषी ॥२४॥
सम्यक्त्व मंडित सही शुचि दर्पणा है, स्त्री योग्य संयम लिए तज दर्पणा है।
घोरातिघोर यदि चारित पालती है, तो आर्यिका तब न पापवती, सती है ॥२५॥
जो मास-मास प्रति मासिक दोष ढोती, शंका बनी हि रहती मन तोष खोती।
होती निसर्ग शिथिला मति से मलीना, होती स्त्रियाँ सब अत: निज ध्यानहीना ॥२६॥
अन्नादि खूब मिलते पर अल्प पायें, इच्छा मिटी कि मुनि के दुख भाग जाये।
होता अपार जल यद्यपि है नदी पे, धोने स्ववस्त्र जल अल्प गहे सुधी पै ॥२७॥
(दोहा)
सूत्र सूचना, सुन, सुना रहा न पर में स्वाद।
सूत्र-ज्ञान कर, कर स्वयं तप, न कभी परमाद ॥
जिनवर का यह सूत्र है, सुपथ प्रकाशक दीप।
धारन कर, कर में दिखे, सुख कर मोक्ष समीप ॥