देवाधिदेव जिनदेव बने हुए हैं, आत्मीय-ज्ञान-धन पाय तने हुए हैं।
सर्वस्व-त्याग पर का विधि को मिटाते, वन्दें उन्हें विनय से शिर को झुकाते ॥१॥
मैं वन्दना कर इन्हें, जिनदेव प्यारे, सच्चे अनन्त दृग बोध स्वयं सुधारें।
उत्कृष्ट योगिजन को रुचि से सुनाता, जो श्रेष्ठ रूप परमातम, का सुहाता ॥२॥
जो पूर्व, जान परमातम, योग ढोते, योगी सुयोग रत ही अविराम होते।
निर्वाण प्राप्त करते सुख कूप साता, निर्बाध शाश्वत अनन्त अनूप भाता ॥३॥
बाह्यात्म और परमातम अन्तरात्मा, आत्मा त्रिधा सब, तजो तुम बाह्य आत्मा।
है अन्तरातम उपाय उसे सुधारो, ध्याओ सदैव परमातम को निहारो ॥४॥
मैं हूँ शरीरमय ही बहिरात्म गाता, जो कर्म मुक्त परमातम देव साता।
चैतन्यधाम मुझसे तन है निराला, यों अन्तरात्म कहता समदृष्टि वाला ॥५॥
होते अनीन्द्रिय अनिंद्य अकाय प्यारे, शुद्धात्म मात्र, विधि-पंक-विमुक्त सारे।
शोभे सदा शिव शिवंकर सिद्ध स्थाई, माने गये परम-इष्ट-जिनेश, भाई! ॥६॥
वाक्काय से मनस से तज बाह्य-आत्मा, सौभाग्य है! तुम बनो शुचि अन्तरात्मा।
ध्यावो उसे परम-आतम जो सुहाया, प्राप्तव्य मात्र वह है, जिन ने बताया ॥७॥
वो मूढ़दृष्टि, मन-इन्द्रिय-दास मोही, 'आत्मा' स्वयं समझता निज देह को ही।
आत्मीय बोध-च्युत है फलतः भ्रमा है, बाह्यार्थ में, रच पचा पर में रमा है॥८॥
है अन्य का स्वतन सा तन देख सोही, सेवा सदैव करता उसकी विमोही।
वो वस्तुतः तन अचेतन ही रहा है, भूला उसे तदपि चेतन ही गहा है॥९॥
यों देह में स्वपर भान लिए दिखाते, आत्मा जिन्हें विदित है न यथार्थ पाते।
माता पिता सुत सुता निज बाँधवों में, हैं मोह और करते वनितादिकों में ॥१०॥
ना-ना कुबोध भर में रममान होता, मिथ्या-विभाव वश मानव मान ढोता।
संमोह के उदय से यह लोक में भी, माने अभीष्ट तन को परलोक में भी ॥११॥
आरम्भ से रहित निर्भय है विरागी, निर्द्वन्द्व, राग रखते तन में न त्यागी।
योगी नितान्त निज में रममान होता, हो मोक्ष-ओर फलतः गममान होता ॥१२॥
जो राग से सहित है, विधि बंध-पाता, होता विराग, विधि-मुक्त अनन्त ज्ञाता।
हैं मुक्ति की यह तथा विधि-बंध गाथा, संक्षेप से यह जिनागम यों बताता ॥१३॥
तल्लीन जो श्रमण स्वीय पदार्थ में है, साधू नितान्त समदृष्टि यथार्थ में हैं।
सम्यक्त्व मंडित हुआ निज में सुहाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को क्षण में मिटाता ॥१४॥
तल्लीन साधु परकीय पदार्थ में हो, मिथ्यात्व-दृष्टि वह क्यों न यथार्थ में हो।
मिथ्यात्व मंडित, नहीं निज धर्म पाता, है बार-बार फलतः वसु-कर्म पाता ॥१५॥
लेना निजाश्रय सुनिश्चित मोक्षदाता, होता पराश्रय दुरन्त अशांति-धाता।
शुद्धात्म में इसलिए रुचि हो तुम्हारी, देहादि में, अरुचि ही शिव सौख्यकारी ॥१६॥
जो भी सचेतन अचेतन मिश्र सारे, शुद्धात्म के धरम से अति भिन्न न्यारे।
ऐसा हमें सदुपदेश अहो! सुनाया, सन्मार्ग को निखिल-दर्शक ने दिखाया ॥१७॥
है वस्तुतः अतुल-निर्मल-शील वाला, दुष्टाष्ट-कर्म बिन ज्ञान-शरीर-धारा।
अत्यन्त शुद्ध निज आतम द्रव्य भाता, ऐसा जिनेश कहते, निज-द्रव्य-धाता ॥१८॥
संलग्न पूर्ण जिन के पथ में हुए हैं, औ पूर्णतः विमुख भी पर से हुए हैं।
सद्ध्यान, आत्म भर का करते सदा हैं, पाते विमोक्ष धरते व्रत सम्पदा हैं ॥१९॥
योगी जिनेश-मत के अनुसार ध्याता, शुद्धात्म-ध्यान मन में यदि धार पाता।
निर्वाण लाभ उसको मिलता यदा है, आश्चर्य क्या न मिलती सुरसम्पदा है? ॥२०॥
सौ कोश एक दिन में चलता मजे से, ले के स्वकीय शिर पे गुरु भार वैसे।
क्या अर्ध कोस उसको न निभा सकेगा? शंका नहीं, वह नितान्त निभा सकेगा ॥२१॥
दुर्जेय कोटि-भट है रण में खड़ा है, जीता न जाय भट कोटिन से अड़ा है।
क्या एक मल्ल भट जीत उसे सकेगा, कैसा असम्भव सुसम्भव हो सकेगा? ॥२२॥
घोरातिघोर तप से तन को तपाते, प्रायः सभी अमर हो मुनि स्वर्ग पाते।
सद्ध्यान से सुर बने यदि स्वर्ग जाते, आगे नितान्त शिव शाश्वत सौख्य पाते ॥२३॥
अग्न्यादि का यदि सुयोग्य सुयोग पाता, पाषाण हेम-मय, हेम बने सुहाता।
कालादि योग्य जब साधन-प्राप्त होता, आत्मा अवश्य परमातम आप्त होता ॥२४॥
अच्छा, व्रतादिक-तया, सुर-सौख्य पाना, स्वच्छन्दता अति बुरी, फिर श्वभ्र जाना।
अत्यन्त-अन्तर व्रताव्रत में रहा है, छाया-सुधूप-द्वय में जितना रहा है॥२५॥
चाहो भयंकर भवार्णव तैर जाना! चाहो यहाँ अब नहीं भव दुःख नाना।
ध्याओ उसे शुचि निजातम है सुहाता, जो शीघ्र कर्म-मय ईंधन को जलाता ॥२६॥
साधू कषाय-घट को झट फोड़ते हैं, संमोहराग मद गारव छोड़ते हैं।
वे त्याग लोक व्यवहार सदा सुहाते, हैं ध्येयभूत निज ध्यान अतः लगाते ॥२७॥
अज्ञान से विमुख हो दिन-रात जागें, मिथ्यात्व पाप सब पुण्य विभाव त्यागें।
सानन्द मौनव्रत गुप्ति तथा निभावें, योगी सुयोग-रत आतम को दिपावें ॥२८॥
जो भी मुझे दिख रहा जग रूप न्यारा, सो जानता न कुछ भी जड़-कूप सारा।
मैं तो अमूर्त नित ज्ञायक शीलवाला, कैसे करूँ कि, किससे कुछ बोल चाला ॥२९॥
वह कर्म के सतत आस्रव रोक पाते, है पूर्व संचित तभी विधि को खपाते।
योगी सुयोगरत हो, जिन यों बताते, योगी बनो तुम धरो दृढ़ योग तातें ॥३०॥
होता सुजागृत वही निज कार्य में है, सोता हुआ सतत लौकिक कार्य में है।
जो जागता सतत लौकिक कार्य में है, सोता वही सतत आत्मिक कार्य में है ॥३१॥
योगी सदैव इस भाँति विचारता है, सारा असार व्यवहार विसारता है।
जो भी जिनोक्त परमात्मपना उसी में, होता विलीन रत, भूल न औ किसी में ॥३२॥
ये पंच पाप तज पंच-महाव्रतों को, पालो सदा समिति पंच त्रिगुप्तियों को।
ज्ञानादि रत्नत्रय में मन को लगाओ, स्वाध्याय ध्यानमय जीवन ही बिताओ ॥३३॥
आराधना वह रही निज के गुणों की, आराधना कर रहा दृग-आदिकों की।
माना गया विमल केवल ज्ञान दाता, आराधना-मय-विधान मुझे सुहाता ॥३४॥
है शुद्ध, सिद्ध निज आतम विश्वदर्शी, सर्वज्ञ है, पर नहीं पर द्रव्य स्पर्शी।
जानो उसे सदन केवल ज्ञान का है, ऐसा कहें जिन, निधान प्रमाण का है॥३५॥
योगी जिनेश-मत के अनुसार भाता, ज्ञानादि रत्न-त्रय सो उरधार पाता।
शुद्धात्म-ध्यान सर में डुबकी लगाता, निर्धान्त शीघ्र मन के मल को मिटाता ॥३६॥
जो जानता स्वपर को वह ज्ञान भाता, जो देखता सहज दर्शन नाम पाता।
जो पाप पुण्य पर को जड़ से मिटाता, सिद्धान्त में विमल चारित वो कहाता ॥३७॥
सम्यक्त्व, तत्त्व भर में रुचि नाम पाता, तत्त्वार्थ का ग्रहण ज्ञान सही कहाता।
चारित्र शुद्ध, पर का-परिहार साता, ऐसा जिनेश मत है हमको बताता ॥३८॥
वो शुद्ध, शुद्ध यदि दर्शन धारता है, निर्वाण प्राप्त करता मन मारता है।
अन्धा बना रहित दर्शन से विचारा, पाता अभीष्ट फल को नहिं मोक्ष प्यारा ॥३९॥
धर्मोपदेश जिनका सुख का पिटारा, है जन्म मृत्यु हरता यह विश्व सारा।
स्वीकारता हृदय से इसको सुहाता, सम्यक्त्व सो श्रमण श्रावक धार पाता ॥४०॥
क्या भेद चेतन अचेतन में रहा है, योगी उसे समझ जीवन में रहा है।
सद्-ज्ञान है नियम से उसका, बताया, सत्यार्थ को निखिल-दर्शक ने दिखाया ॥४१॥
योगी सुरत्नत्रय लक्षण जान लेता, सो पुण्य पाप झट छोड़ नितान्त देता।
है निर्विकल्पमय चारित धार लेता, ऐसा कहें जिन सुनो विधि मार जेता ॥४२॥
हो संयमी स्वबल को न कभी छुपाते, रत्नत्रयी बन तपे तप साधु तातें।
शुद्धात्म-ध्यान धरते रुचि से सुचारा, पाते पुनः परम है पद पूर्ण प्यारा ॥४३॥
मायादि शल्य त्रय त्याग त्रिरत्न पाले, धारें त्रियोग त्रय योग सदा सँभाले।
औ राग-दोष द्वय को जड़ से मिटाते, योगी तभी नियम से परमात्म ध्याते ॥४४॥
माया व क्रोध भय को मन में न लाना, हो लोभ से रहित-जीवन ही चलाना।
है शोभता विमल भाव-स्वभाव द्वारा, पाता अनन्त गुण उत्तम विश्व सारा ॥४५॥
शुद्धात्म-भाव-च्युत हैं विषयी कषायी, हैं रौद्र-भाव धरते भव दुःखदाई।
पाते न सिद्धि सुख हैं विधि से कसे हैं, वे क्योंकि हा! न जिन-लिंगन से लसे हैं ॥४६॥
निर्ग्रन्थ रूप जिन-लिंग वही सुहाया, उत्कृष्ट मोक्ष-सुख है, जिन-देव गाया।
सो स्वप्न में तक जिन्हें रुचता नहीं है, रोते फिरें अबुध वे भव में यहीं हैं ॥४७॥
सद्-ध्यान में उतरता परमातमा है, होता प्रलोभ मलदायक खातमा है।
योगी नवीन विधि आस्रव रोधता है, प्यारी जिनेन्द्र प्रभु की यह बोधता है॥४८॥
सम्यक्त्व संग दृढ़ चारित पालता है, वैराग्य से नियम से मन मारता है।
योगी निजात्म भर का शुचि ध्यान ध्याता, पाता अतः परम है पद को सुहाता ॥४९॥
चारित्र ही धरम निश्चय से सुहाता, सो धर्म भी सहज साम्य स्वभाव धाता।
है राग रोष रति से वह अन्य होता, जीवात्म का हि परिणाम अनन्य होता ॥५०॥
वो स्वच्छ ही स्फटिक आप स्वभाव से हो, भाई! वही विकृत अन्य प्रभाव से हो।
जीवात्म भी विमल आप स्वभाव से हो, रागादि से मलिन-मैल-विभाव से हो ॥५१॥
साधर्मि-साधु जन, में अनुराग ढोता, सद्भक्त देव गुरु का, अनगार होता,
सम्यक्त्व-ध्यान रत हो वह मात्र योगी, माना गया समय में सुन शास्त्र भोगी ॥५२॥
मोही अनेक भव में जितना खपाता, उग्राति उग्रतप से विधि को मिटाता।
ज्ञानी त्रिगुप्ति बल से उतना खपाता, अन्तर्मुहूर्त भर में, यह ‘साधु-गाथा' ॥५३॥
जो पुण्य के उदय में निज को भुलाता, होता विमुग्ध पर में शुभ वस्तु पाता।
है अज्ञ ही इसलिए वह साधु होता, ज्ञानी विराग उससे विपरीत होता ॥५४॥
भोगानुराग अघ आस्रव हेतु जैसा, मोक्षानुराग शुभ आस्रव हेतु वैसा।
है मोक्ष चाह रखता बस अज्ञ होता, शुद्धात्म से इसलिए अनभिज्ञ, होता ॥५५॥
पा कर्म जन्य कुछ इन्द्रिय ज्ञान को है, ना मानता सहज केवलज्ञान को है।
अज्ञान-धाम फलतः वह है कहाता, धिक्कार दोष जिन-शासन में लगाता ॥५६॥
जो मूढ़ ज्ञान बिन-चारित ढो रहा है, सम्यक्त्व से रहित तापस हो रहा है।
संवेग आदि गुण में रुचि भी न लाता, वो मात्र नग्नपन क्या सुख को दिलाता? ॥५७॥
माने सचेतन अचेतन को वही है, है अज्ञ ही चतुर विज्ञ अहो नहीं है।
भाई! सचेतन सचेतन को बताता, ज्ञानी वही नियम से जग में कहाता ॥५८॥
विज्ञान के बिन नहीं तप कार्यकारी, विज्ञान भी तप बिना नहिं कार्यकारी।
भाई! अतः तप तपो तुम ज्ञान द्वारा, निर्वाण प्राप्त करलो सुख खान प्यारा ॥५९॥
निर्वाण का नियम से जब पात्र होते, निर्भ्रान्त तीर्थकर वे चहुँ ज्ञान ढोते।
भाई! तथापि तपते तप भी रुची से, यों जान, ज्ञान समवेत तपो इसी से ॥६०॥
लो मात्र नग्न मुनि है तज वस्त्र सारा, है भाव-लिंग बिन बाहर लिंग धारा।
निर्भ्रांत भ्रष्ट निज चारित से रहा है, धिक्कार! मोक्ष पथ नाशक सो रहा है॥६१॥
जो तत्त्व-बोध सुखपूर्वक हाथ आता, आते हि दुःख झट से वह भाग जाता।
वे कायक्लेश-समवेत अतः सुयोगी, तत्त्वानुचिन्तन करें, तज भोग भोगी ॥६२॥
निद्रा तथा अशन आसन जीत लेना, भाई! जिनेन्द्र-मत में रुचि नित्य लेना।
पाके प्रसाद गुरु का उपदेश द्वारा, शुद्धात्म ध्यान करना मन से सुचारा ॥६३॥
चारित्रवान निज आतम ही रहा है, सम्यक्त्व बोध गुण-मंडित भी रहा है।
ध्यातव्य सो सतत है मन से सुचारा, पाके प्रसाद गुरु का उपदेश द्वारा ॥६४॥
श्रद्धा समेत निज आतम जान पाना, सद्भावना स्वयम की अविराम भाना।
पंचाक्ष के विषय से मन को छुड़ाना, दुर्लभ्य पूर्ण क्रमशः सब ये सुजाना! ॥६५॥
जो वासना विषय की जबलौं रखेगा, शुद्धात्म को न नर वो तब लौं लखेगा।
योगी जभी विषय से अति दूर होता, शुद्धात्म को निरखता सुन मूढ़! श्रोता ॥६६॥
कोई सुजान कर आतम को तथापि, सद्भाव से स्खलित हो मतिमंद पापी।
हैं झूलते विषय में अति फूलते हैं, वे मूढ़ चार गति में चिर घूमते हैं॥६७॥
शुद्धात्म जान जिन भाव समेत सारे, योगी विरक्त विषयादिक को विसारें।
मूलोत्तरादि गुण ले तपते सुहाते, वे छोड़ चार गतियाँ निजधाम जाते ॥६८॥
तू राग को तनिक भी तन में रखेगा, मोहाभिभूत बन के पर को लखेगा।
होगा स्व से स्खलित हो विपरीत जाता, मूढात्म हा ! न फलतः भव जीत पाता ॥६९॥
सम्यक्त्व शुद्ध धर शोभित हो रहा है, उत्साह से सुदृढ़ चारित हो रहा है।
शुद्धात्म ध्यानरत निर्विषयी विरागी, निर्वाण प्राप्त करते तज राग-रागी ॥७०॥
जो मोह राग पर में करना कराना, संसार कारण रहा गुरु का बताना।
योगी अतः नित करे निज भावनाएँ, वाक्काय से मनस से तज वासनाएँ ॥७१॥
निन्दा मिले स्तुति मिले न विभाव होना, बन्धू रहो रिपु रहो समभाव होना।
जो साम्य ही विपद में सुख सम्पदा में, माना गया चरित है धरता सदा मैं ॥७२॥
चारित्र मोह विधि से सहसा घिरे हैं, स्वच्छन्द हैं समिति संयम से निरे हैं।
वैराग्य हीन, जड़ यों बकते यहाँ हैं, सद्ध्यान योग्य यह काल नहीं अहा है! ॥७३॥
सम्यक्त्व ज्ञान बिन जीवन जी रहे हैं, भोगोपभोग रस सादर पी रहे हैं।
जो ध्यान योग्य यह काल नहीं बताते, वे ही अभव्य, नहिं, मोक्ष कदापि जाते ॥७४॥
पाले न पंच व्रत पालन की न इच्छा, धारे न गुप्ति समिती धरते न दीक्षा।
चारित्र बोध बिन यों जड़ ही पुकारे, है ध्यान योग्य यह काल नहीं विचारे ॥७५॥
लो धर्म ध्यानरत, भारत देश में भी, साधू मिले दुखद पंचम काल में भी।
ऐसे निजात्म रत साधु जिन्हें न माने, वे अज्ञ मूढ़ कहलाय, सुनो सयाने ॥७६॥
ज्ञानादि रत्नत्रय से शुचि हो सुहाते, लो आज भी मुनि निजातम ध्यान ध्याते।
लौकांतिका सुरप या फलरूप होते, आ स्वर्ग से मुनि बने शिव को सँजोते ॥७७॥
हो पाप पंक मल से मन को बिगारा, हा! साधु ने यदपि है जिन लिंग धारा।
पै पाप मात्र करता दिन-रैन पापी, पाता न मोक्ष पथ को तजता तथापि ॥७८॥
जो पंचधा वसन को रखते सदा हैं, हैं मूढ़ याचक, रखें धन सम्पदा हैं।
हा! पाप कार्य भर में रस ले रहे हैं, सन्मार्ग को बस जलांजलि दे रहे हैं ॥७९॥
सारे परीषह सहें अनिवार्य भाते, हैं हेय मान तजते अघ कार्य तातें।
निर्ग्रन्थ हैं विगत मोह कषाय जेता, वे मोक्षमार्ग भजते दृग के समेता ॥८०॥
हा! तीन लोक भर में कुछ है न मेरा, होगा, न था, न अब है, बस मैं अकेला।
योगी निरन्तर अहो इस भाँति गाता, जाता स्वधाम ध्रुव शाश्वत शान्ति साता ॥८१॥
जो भक्त देव गुरु के मन से बने हैं, निर्वेग रूप रस में सहसा सने हैं।
शुद्धात्म ध्यानरत निश्चल भी रहे हैं, वे ही विमोक्ष पथ से चल भी रहे हैं ॥८२॥
आत्मार्थ, आतम निजातम में समाता, सच्चा सुनिश्चित चरित्र वही कहाता।
हे भव्य! पावन पवित्र चरित्र पालो, पालो अपूर्व पद को, निज को दिपालो ॥८३॥
आकार से पुरुष आतम शैल योगी, सम्यक्त्व ज्ञानमय है विमलोपयोगी।
योगी सदैव करता निज ध्यान प्यारा, निर्द्वन्द्व आप बनता हर पाप सारा ॥ ८४॥
धर्मोपदेश इस भाँति हमें सुनाया, श्रामण्य क्या श्रमण का जिन ने बताया।
सागार-धर्म सुनलो भव को मिटाता, उत्कृष्ट कारण रहा, शिव का सुहाता ॥८५॥
सम्यक्त्व का प्रथम श्रावक! लो सहारा, जो है अकम्प, गिरि सा शुचि शांत धारा।
सम्यक्त्व पे हि तुम ध्यान अहो जमा लो, हो दुःख का क्षय यही कि प्रयोजना हो ॥८६॥
सम्यक्त्व ध्यान करता यदि है सुचारा, भाई सुनो वह रहा समदृष्टि वाला।
सम्यक्त्व से सहित जो लसता सुहाता, दुष्टाष्ट कर्म दल को वह ही मिटाता ॥८७॥
जो भी हुए विगत में शिव सिद्ध प्यारे, होंगे भविष्य भर में कटिबद्ध सारे।
ज्यादा कहाँ तक कहें महिमा निराली, सम्यक्त्व ही वह रही, सुखदा शिवाली ॥८८॥
है धन्य शूर नर श्रेष्ठ कृतार्थ सारे, वे ही प्रकाण्ड बुध पंडित पूज्य प्यारे।
लो स्वप्न में तक कलंकित न किया है, सम्यक्त्व को विमल धारण ही किया है॥८९॥
निर्ग्रन्थ मोक्षपथ हो गुरु ग्रन्थ त्यागी, वे देव अष्टदश दोष बिना विरागी।
हिंसा बिना धरम हो सबको सुहाता, श्रद्धान होय इनमें ‘दृग' नाम पाता ॥९०॥
जो सर्व संग बिन संयत हो रहा हो, है जातरूप शिशु सा मुनि हो रहा हो।
सग्रन्थ लिंग मुनि का नहिं ध्यान देना, सम्यक्त्व प्राप्त करना पहचान लेना ॥९१॥
जो देव शास्त्र गुरु कुत्सित शीलवाले, हिंसादि में निरत निर्दय शीलवाले,
मिथ्यात्व मंडित इन्हें नमते विचारे, लज्जाभिभूत भय गारव भाव धारे॥९२॥
भोगार्थ-राज भय से बन साधु मोही, है पूजता यदि कुदेव कुसाधु को ही।
मिथ्यात्व धारक सुनिश्चित ही रहा है, सम्यक्त्व का न वह धारक ही रहा है॥९३॥
निर्दिष्ट धर्म जिनसे सुख पूर्ण प्याला, सो धर्म श्रावक करे समदृष्टि-वाला।
मिथ्यात्व धारक रहा वह भूल जाता, सद्धर्म से सतत जो प्रतिकूल जाता ॥९४॥
मिथ्यात्व धारक यहाँ सुख को न पाता, भाई! अनेक कटु दुस्सह दुःख पाता।
है बार-बार मृति-जन्म-जरा गहाता, संसार में सुचिर जीवन है बिताता ॥९५॥
मिथ्यात्व कौन समदर्शन कौन जानो, क्या दोष क्या गुण रहें इनके पिछानो।
धारो उसे अब तुम्हें रुचता सुहाता, क्या लाभ है अधिक वाचन है न साता ॥९६॥
लो बाह्य संग तज नग्न भले बने हैं, मिथ्यात्व रूप मल में फिर भी सने हैं।
क्या लाभ हो तप तपे स्थित मौन से क्या? जाने न साम्य निज का निज गौण से क्या? ॥९७॥
है दोष मूल गुण में मुनि हो लगाता, पै बाह्य उत्तर गुणादिक को निभाता।
पाता न सिद्धि सुख को बिन संग का है, होता विराधक निरा जिन लिंग का है॥९८॥
मासोपवास करले कर क्या करेगा, आतापनादि तप ले तप क्या करेगा।
तू बाह्य कर्म कर केवल क्या करेगा, जाता विलोम निज से सुख क्या मिलेगा? ॥
पालो अनेक विधि चारित को बढ़ाओ, भाई! भले सकल शास्त्र पढ़ो, पढ़ाओ।
वे सर्व बाल श्रुत चारित ही कहाते, शुद्धात्म से यदि अरे विपरीत जाते ॥१००॥
साधू सदा विमुख अन्य पदार्थ से है, वैराग्य लीन निज लीन यथार्थ से है।
आत्मीय शुद्ध सुख में अनुरक्त होते, भोगादि से बहुत दूर विरक्त होते ॥१०१॥
मूलोत्तरादि गुण से तन को सजाया, स्वाध्याय ध्यान भर में मन को लगाया।
आदेय हेय जिनको सब ज्ञान होते, साधू गहे स्वपद वे जिन आप्त होते ॥१०२॥
आत्मा निजी नमन योग्य नमस्कृतों से, आत्मा निजी परम स्तुत्य सुसंस्तुतों से।
ध्यातव्य भी बस वही सब ध्यानियों से, देहस्थ को निरख लो तुम ज्ञानियों से ॥१०३॥
अर्हन्त सिद्ध शिव ये परमेष्ठि प्यारे, आचार्य वर्य उवझाय सुसाधु सारे।
ये आत्म से निरख लो दिखते सुचारा, आत्मा अतः शरण हो मम हो सहारा ॥१०४॥
सम्यक्त्व ज्ञान तप चारित सत्य प्यारे, चारों निजात्म गुण हैं गुरु यों पुकारे।
देखें इन्हें स्वयम में दिखते सुचारा, आत्मा अतः शरण हो मम हो सहारा ॥१०५॥
यों मोक्ष के प्रथम पाहुड को बताया, धर्मोपदेश, जिन ने हमको सुनाया।
जो भी पढ़े सुन इसे अविराम भावें, श्रद्धा समेत स्थिर शाश्वत धाम पावें ॥१०६॥
(दोहा)
रत्नत्रय से द्विविध है, निश्चय औ व्यवहार।
प्रथम साध्य साधक द्वितिय रत्नत्रय उर धार॥
नग्न दिगम्बर बिन बने, रत्नत्रय नहिं होय।
रत्नत्रय के बिन कभी, निज सुख मोक्ष न होय ॥