सिद्धादि पंच परमेष्ठि यतीश्वरों से, जो हैं नमस्कृत नरों असुरों सुरों से।
श्रद्धा समेत उनको शिर मैं नवाता, हूँ भाव प्राभृत सुनो! तुम को सुनाता ॥१॥
है भाव लिंग वर मुख्य मुझे सुहाता, है द्रव्य लिंग न यथार्थ जिनेश गाता।
है भाव ही नियम से गुण-दोष हेतु, होता भवोदधि वही भव-सिन्धु-सेतु ॥२॥
ये भाव शुद्ध-तम हो, जब लक्ष्य होता, तो बाह्य संग तजना अनिवार्य होता।
जो भीतरी कलुषता यदि ना हटाता, है बाह्य त्याग मुनि का वह व्यर्थ जाता ॥३॥
वे कोटि-कोटि शत कोटि भवान्तरों में, साधू तपे तप भले निशि-वासरों में।
नीचे भुजा कर खड़े सब वस्त्र त्यागे, ना, शुद्ध भाव बिन केवलज्ञान जागे ॥४॥
जो अच्छ स्वच्छ परिणाम बना न पाते, पै बाहरी सब परिग्रह को हटाते।
वे भाव शून्य करनी करते कराते, हा! बाह्य त्याग उनको किस काम आते? ॥५॥
रे! भाव लिंग बिन बाहर लिंग से क्या? वैरी मिटे, असि बिना असिकोष से क्या?
है भाव, मोक्ष-पुर का पथ जान पंथी, ऐसा जिनेश कहते तज पूर्ण ग्रंथी ॥६॥
रे! बार-बार घर बाहर लिंग छोड़ा, निर्ग्रन्थ-रूप धर भी मन ना मरोड़ा।
तूने सदा पुरुष हे! दुख बीज बोया, हो! भाव हीन चिर से भव बीच रोया ॥७॥
हो नारकी नरक भीषण योनियों में, तिर्यञ्च में असुर मानव योनियों में।
तूने सही सुचिर दुस्सह वेदनायें, भा, भावना अब निजी-जिन देशनायें ॥८॥
दुस्सह्य दारुण भयंकर दु:ख भोगा, पा सातवें नरक में नित शोक रोगा।
तेरा हुआ अहित ही हित ना हितैषी, वैसी सदा गति मिले मति होय जैसी ॥९॥
उत्पाटनों खनन ताड़न छेदनों से, औ बंधनों ज्वलन गालन भेदनों से।
तिर्यञ्च हो कुगति में चिरकाल पीड़ा, तूने निरंतर सही बिन ज्ञान हीरा ॥१०॥
आकस्मिकी सहज दो दुख ये गिनाये, दो और मानसिक कायिक वेदना ये।
तूने मनुष्य भव में दुख भार पाया, बीता वृथा अमित काल, न पार पाया ॥११॥
इन्द्रादि के विभव को लख सूखता था, देवी मरी विरह हेतु दुखी हुआ था।
दुर्भावना सहित हो कब तू सुखी था, हो देव, देव गति में फिर भी दुखी था ॥१२॥
कंदर्प दर्पमय पंच कुभावनायें, भाई, रखीं विषय की उर-वासनायें।
हो बार-बार बस केवल द्रव्य लिंगी, तू नीच-देव बनता अयि, भव्य अंगी ॥१३॥
पार्श्वस्थ भाव, बहु बार विभाव भाया, तूने मिला अमित काल वृथा बिताया।
अज्ञान के वश दुराशय बीज बोया, पा दुःखरूप फल ही, फलरूप रोया ॥१४॥
जो वैभवों वर गुणों सुख सिद्धियों को, हैं श्रेष्ठ देव धरते सुर ऋद्धियों को।
हो नीच देव दिवि में निज में बड़ों को, तू देख मानसिक दुःख सहे अनेकों ॥१५॥
दुर्भाव धार मन में मदमत्त नामी, चारों प्रकार विकथा करता सकामी।
तू निन्द्य देव बनके बहुबार भोगा, है कष्ट, दुष्ट मति से फिर और होगा ॥१६॥
बीभत्स है, अशुचि है, मल का पिटारा, दुर्गन्ध-धाम जननी-जनु गर्भ सारा।
ले जन्म हे मुनि! वहाँ बहु बार रोया, नीचे किए सिर टंगा बहुकाल खोया ॥१७॥
यों काल तो भव-भवों बहुमूल्य बीता, जो भिन्न-भिन्न जननी स्तन दूध पीता।
जानो महाशय! कभी वह दूध सारा, लाखों गुना अधिक सागर से अपारा ॥१८॥
वे भिन्न-भिन्न भव में तव मात रोती, तू था मरा जब, तभी नहिं रात सोती।
रोते हुए नयन से जल जो बहाया, लाखों गुना अधिक सागर से कहाया ॥१९॥
जो हड्डियाँ झड़ गई नख बाल छूटे, तेरे कटे भव-भवों नस नाल टूटे।
कोई सुसंग्रह मनो उनको करेगा, तो साधु, मेरु गिरि से गुरु ही लसेगा ॥२०॥
भू व्योम में अनिल में, जल में वनों में, नद्यादि में अनल में, थल में द्रुमों में।
तूने व्यतीत चिरकाल किया वृथा है, हो कर्म के वश, सही जग में व्यथा है ॥२१॥
तृष्णा लगी तृषित पीड़ित तू विचारा, त्रैलोक्य का सलिल पीकर पूर्ण डारा।
तृष्णा मिटी न फिर भी उर की इसी से, शुद्धात्म चिंतन जरा करले रुची से ॥२२॥
है बार-बार, इक बार नहीं मरा है, तू काय को अमित बार तजा धरा है।
हे धीर! साधु भवसागर में अनन्ता, संत्यक्त काय गिनते गिनते न अन्ता ॥२३॥
भोगा गया सकल पुद्गल भोग खारा, पूरा भरा कि जिससे त्रयलोक सारा।
भाई तथापि नहिं तृप्ति हुई अभी भी, भोगो पुनः तुम भले सुख ना कभी भी ॥२४॥
संक्लेश वेदन वशात् भय सप्त द्वारा, औ रक्त स्राव विष भक्षण शस्त्र द्वारा।
आहार-श्वास - अवरोधन से तुरन्ता, हो आयु का क्षय कहें अरहन्त सन्ता ॥२५॥
हा! अग्नि से तुम जले जल मध्य डूबे, शीतातिशीत-हिम से बिन वस्त्र जूझे।
उत्तुंग वृक्ष गिरि पे चढ़ते गिरे थे, टूटे तभी कर पगों भय से घिरे थे ॥२६॥
जाने बिना रस विधी विष सेवने से, अन्याय कार्य कर- क्रूर अनार्य जैसे।
तिर्यञ्च हो मनुज हो अपमुत्यु पाई, हैं आपने दुख सहे बहुबार भाई ॥२७॥
भाई निगोद गति में तुम जो गिरे थे, अन्तर्मुहर्त भर में दुख में परे थे।
हा! साठ औ छह सहस्र व तीन सौ औ, छत्तीस बार मरते कुछ आज सोचो ॥२८॥
अन्तर्मुहूर्त भर में विकलेन्द्रि सारे, अस्सी व साठ द्वय बीस भवों सुधारे।
चौबीस क्षुद्र भव औ धरते विचारे, पंचेन्द्रि जीव तक भी गुरु यों पुकारे ॥२९॥
ज्ञानादि रत्नत्रय के बिन ही मरे हो, जो बार-बार भव कानन में फिरे हो।
ऐसे जिनेश कहते अब जाग जाओ, सानन्द रत्नत्रय धार विराग पाओ ॥३०॥
आत्मा निजात्मरत ही सम-दृष्टि-वाला, जो जानता स्वयम को वह बोध शाला।
है आत्म में विचरता नित है सुहाता, चारित्र पंथ स्वयमेव वही कहाता ॥३१॥
वैसे अनेक भव में मरता रहा है, पै मृत्यु के समय में डरता रहा है।
ले ले अतः मरण उत्तम का सहारा, तो बार-बार मरना मर जाय सारा ॥३२॥
तू द्रव्यलिंग भर बाहर मात्र धारा, हा! मृत्यु को श्रमण होकर भी न मारा।
ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, तूने जहाँ मरण जन्म नहीं गहा हो ॥३३॥
तू बाह्य मात्र अब लौ जिनलिंग धारा, धारा न भावमय लिंग कभी सुचारा।
पीड़ा सही जनन मृत्यु तथा जरा से, पाया अनन्त भव में सुख ना जरा से ॥३४॥
प्रत्येक आयु परिणाम सुनामकों को, औ पुद्गलों क्षिति-तलों समयादिकों को।
तूने गहा पुनि तजा बहुबार भाई, पीड़ा अनन्त भवसागर में उठाई ॥३५॥
लो तीन सौ फिर तियालिस राजु सारा, है लोक का विदित क्षेत्र जिनेन्द्र द्वारा।
वे छोड़, मेरु तल के वसु देश न्यारे, सारे भ्रमे तुम यहाँ मर जन्म धारे ॥३६॥
तेरा शरीर प्रति, अंगुल भाग में ही, धारे छियानव कुरोग सराग देही।
हे मित्र! शेष तन में कितने पता दे, दुस्सह्य रोग गिनती गिनके बता दे ॥३७॥
हो कर्म के वश अतीत भवों-भवों से, तूने सहे सकल रोग युगों-युगों से।
रागी रहा फिर अनागत में सहेगा, क्या क्या कहें बहुत है भव में भ्रमेगा ॥३८॥
हैं पित्त मूत्र कफ मांस जहाँ भरे हैं; हैं आँत गात नस जाल जिसे घिरे हैं।
माँ के रहा उदर में नव मास भाई, नीचे किये शिर टंगा चिर पीर पाई ॥३९॥
माँ बाप के रजस वीर्य घुला मिला था, संकीर्ण गर्भ जिसमें न डुला हिला था।
खाया हुआ जननि ने वह अन्न खाया, उच्छिष्ट भोज करता महिनों बिताया ॥४०॥
नादान था शिशु रहा शिशु काल में था, तू खेलता नित निजी मल लार में था।
सोता वहीं मल तजा मल खूब खाता, आपाद कण्ठ मल में तब डूब जाता ॥४१॥
ये मांस मेद मद रक्त जहाँ भरे हैं, हैं पित्त पीव नस नाल सड़े निरे हैं।
दुर्गन्ध पूर्ण घट है यह काय तेरा, ऐसा विचार नहिं तो टल जाय वेला ॥४२॥
संमोह-मुक्त, मुनि मुक्त वही कहाता, ना, मुक्त-मात्र हितु बाँधव से सुहाता।
भाई तजो इसलिए उस वासना को, भावो भजो नित निजीय उपासना को ॥४३॥
निर्ग्रन्थ हैं स्वतन से ममता नहीं है, मानी रहा स्वयम में रमता नहीं है।
आतापनादि तप बाहुबली किया है, मासों, तथापि शिवलाभ कहाँ लिया है? ॥४४॥
निर्ग्रन्थ था मुनि बना मधु पिंग नामा, पूरा निरीह तन से तज संग कामा।
भावी निदान फिर भी उससे घिरा था, श्रामण्य से इसलिए वह तो गिरा था ॥४५॥
वैसे वसिष्ठ मुनि भी बहु दु:ख पाया, भावी निदान मन से मन को लिपाया।
ऐसा न लोक भर में थल ही रहा हो, मोही यहाँ भटकता न फिरा जहाँ हो ॥४६॥
चौरासि लाख दुखदायक योनियों में, ऐसा न थान अवशेष रहा भवों में।
तूने जहाँ भ्रमण वास नहीं किया हो, हो भाव शून्य मुनि, मात्र मुधा जिया हो ॥४७॥
तू द्रव्य लिंग भर से न कहाय लिंगी, शुद्धात्म भाववश ही कहलाय लिंगी।
तू भाव लिंग धर केवल द्रव्य में क्या? पी नीर, मात्र-जल भाजन डोर से क्या? ॥४८॥
धिक्कार बाहु मुनि ने क्षण में मिटाया, क्रोधाग्नि से नगर दंडक को जलाया।
था बाह्यलिंग जिनलिंग लिया तथापि, जाके गिरा नरक रौरव में कुपापी ॥४९॥
द्वीपायनादि मुनि भी इस भाँति क्रोधी- हो, द्वारिका नगर दग्ध किया अबोधी।
सम्यक्त्व बोध व्रत से च्युत, द्रव्य लिंगी, संसार को दृढ़ किया, सुन भव्य! अंगी ॥५०॥
वर्षों रही युवतियाँ जिन से घिरी थी, तो भी यतीश मति को किसने हरी थी?
थे भाव से श्रमण, मोक्ष गये विरागी, वे धीर थे शिव कुमार मुनीश त्यागी ॥५१॥
थे द्वादशांग श्रुत चौदह पूर्व ज्ञाता, वे भव्यसेन मुनि हो उपदेश दाता।
पै भीतरी श्रमणता उनमें नहीं थी, थी नग्नता न उर ऊपर में रही थी ॥५२॥
ये भिन्न-भिन्न तुष मास सदा सुहाते, ऐसा विशुद्ध मन से रट थे लगाते।
पाई अत: कि शिवभूति मुनीश भाई, आत्मानुभूति शिवभूति, विभूति स्थाई ॥५३॥
जो भाव नग्न वह नग्न यथार्थ होता, पै मात्र नग्न मुनि तो अयथार्थ थोथा।
हो नग्न पूर्ण तन भी मन भी निहाला, तो कर्म शीघ्र, कटते समझो सुचारा ॥५४॥
वो भाव की विमलता यदि है न प्यारी, निर्ग्रन्थरूप वह मात्र न कार्यकारी।
यों जान मान मन आतम में लगा ले, शुद्धात्म का गुन गुनाकर गीत गाले ॥५५॥
काषायिकी परिणती जिसने घटायी, औ निन्द्य जान तन की ममता, मिटायी।
शुद्धात्म में निरत है तज संग-संगी, है पूज्य साधु वह पावन भाव लिंगी ॥५६॥
बोले विशुद्ध मुनि यों निज तत्त्व पाऊँ, त्यागें ममत्व परतत्त्व समत्व ध्याऊँ।
आधार मात्र मम निर्मम आतमा है, छोड़ें अशेष सब चूंकि अनातमा है॥५७॥
विज्ञान में चरण में दृग संवरों में, औ प्रत्यख्यान-गुण में लसता गुरो! मैं।
शुद्धात्म की परम पावन भावना का, है पाक मोक्ष सुख है दुख वासना का ॥५८॥
पूरा भरा दृग विबोध-मयी-सुधा से, मैं एक शाश्वत सुधाकर हूँ सदा से।
संयोग जन्य सब शेष विभाव मेरे, रागादि भाव जितने मुझसे निरे रे! ॥५९॥
हे भव्य! चार गति से निज को छुड़ाना, है चाहना यदि सुशाश्वत सौख्य पाना।
तो शुद्ध भाव कर स्वीय स्वभाव भाना, तू शीघ्र छोड़ परकीय विभाव नाना ॥६०॥
जो जानता सहज जीव यथार्थ में हैं, होता विलीन निज जीव पदार्थ में है।
पाता विमोक्ष द्रुत से कर निर्जरा को, सो नाशता जनन मृत्यु तथा जरा को ॥६१॥
है जीव चेतन निकेतन है निराला, ऐसा जिनेश कहते वह ज्ञान-शाला।
ज्ञातव्य जीव, इस लक्षण धर्म द्वारा, शीघ्रातिशीघ्र मिटता वसु-कर्म-भारा ॥६२॥
जीवत्व का वह अभाव न सर्वथा है, सिद्धत्व में, विमल जीवपना रहा है।
पाता विमोक्ष द्रुत से कर निर्जरा ओ! सो नाशता जनन मृत्यु तथा जरा को ॥६३॥
आत्मा सचेतन अरूप अगन्ध प्यारा, अव्यक्त है अरस और अशब्द न्यारा।
आता नहीं पकड़ में अनुमान द्वारा, संस्थान से रहित है सुख का पिटारा ॥६४॥
सद्ज्ञान पंच विध है उसको अराधो, निर्वेग भाव धर के यह कार्य साधो।
अज्ञानरूप तम निश्चित भाग जाता, हो स्वर्ग-मोक्ष सुख केवल जाग जाता ॥६५॥
क्या शास्त्र के पठन-पाठन से मिलेगा, संवेग भाव बिन कर्म नहीं टलेगा।
श्रामण्य श्रावकपना शिव-ज्ञान हेतु, वैराग्य भाव जब हो, यह जान रे! तू ॥६६॥
ये नारकी पशु तथा कुछ आदिवासी, होते दिगम्बर नितान्त सुखाभिलाषी।
पै चित्त में कुटिल कालुष भाव धारे, हैं भीतरी श्रमणता न धरें विचारे ॥६७॥
जो मात्र नग्न बन जीवन है बिताता, संसार में भटकता भव दुःख पाता।
पाता न बोधि वह केवल नग्न साधु, वो साम्य का यदि बना न कदापि स्वादू ॥६८॥
प्रायः प्रदोष पर के पर को बताते, माया व हास्य मद मत्सर धार पाते।
वे पात्र हैं अयश के अघ के घड़े हैं, जो नग्न हैं श्रमण मात्र बढ़े चढ़े हैं ॥६९॥
वैराग्य भाव जल से मन पूर्ण धोलो, निर्ग्रन्थ लिंग धरने सब वस्त्र खोलो।
होता अवश्य उर में जिसके विकारा, लेता वही पर परिग्रह का सहारा ॥७०॥
है दोष-कोष वृष रूप-सुधा न पीते, है इक्षु पुष्प सम सार विहीन जीते।
जो नग्न हो श्रमण हो नट नाचते हैं, वे निर्गुणी विफल हो नहिं लाजते हैं ॥७१॥
हैं रंग संग रखता पर में रमा है, है नग्न किन्तु, न विराग, निरा भ्रमा है।
पाता नहीं सहज बोधि समाधि प्यारा, यों कुन्द-कुन्द जिन-आगम ने पुकारा ॥७२॥
वैराग्य से हृदय नग्न बने सलोना, मिथ्यात्व आदि मल कर्दम पूर्व धोना।
निर्ग्रन्थ रूप फिर सादर धार लो ना, सो ही जिनेन्द्र मत के अनुसार होना ॥७३॥
सद्भाव को श्रमण हो नहिं धार पाता, दुष्टाष्ट कर्म मल को मन पे लिपाता।
तिर्यञ्च हो भटकता अघ धाम रागी, सद्भाव, स्वर्ग-शिव-धाम सुनो विरागी ॥७४॥
चक्री बनो अमर हो सुरसम्पदाएँ, लक्ष्मी मिले अमित दिव्य विलासताएँ।
सद्भाव से परम पावन प्राण प्यारे, ज्ञानादि रत्न मिलते सुख के पिटारे ॥७५॥
होता त्रिधा वह शुभाशुभ शुद्ध न्यारा, है आत्म भाव जिन-शासन ने पुकारा।
जो धर्म-ध्यान-मय है शुभ है कहाता, दुर्ध्यान सो अशुभ है न मुझे सुहाता ॥७६॥
आत्मा निजी विमल आतम लीन होता, सो शुद्ध भाव, विधि-कालुष पूर्ण धोता।
जो श्रेष्ठ इष्ट इनमें चुन भव्य प्राणी, ऐसा जिनेश कहते मुनि-सेव्य-ज्ञानी ॥७७॥
सत् साधु ने दुखद मान गला दिया है, स्वीकार साम्य, सब मोह जला दिया है।
आलोक-धाम जगसार जिसे मिलेगा? बोले प्रभो! यह नियोग नहीं टलेगा ॥७८॥
पंचाक्ष के विषय को तज वासनाएँ, जो भा रहे श्रमण षोडश भावनाएँ।
वे शीघ्र तीर्थकर नामक कर्म बाँधे, औचित्य कार्य करते सुख क्यों न साधे ॥७९॥
सारे तपो सुतप द्वादश पर्वतों से, पालो त्रयोदश क्रिया मन-वाक्-तनों से।
हे! साधु ज्ञानमय अंकुश से विदारो, उन्मत्त चित्त गज के मद को उतारो ॥८०॥
वैराग्य भाव मन में बहु बार भाना, पश्चात् विशुद्ध जिन-लिंग अहो निभाना।
खाना यथाविधि, धरा पर रात सोना, ढोना द्विसंयम बिना पर गात होना ॥८१॥
हीरा अमूल्य मणि है मणि जातियों में, विख्यात चन्दन रहा द्रुम ख्यातियों में।
त्यों जैनधर्म बहु धर्म प्रणालियों में, है श्रेष्ठ भावि-भव-नाशक, हो उरों में ॥८२॥
संमोह क्षोभ बिन शोभित हो रहा है, सो धर्म, आत्म परिणाम अहो रहा है।
औ दान पूजन तथा व्रत पालना ये, है पुण्य, जैन मत में शुभ भावनाएँ ॥८३॥
सधर्म धार उसकी करते प्रतीति, श्रद्धान गाढ़ रखते रुचि और प्रीति।
चाहे तथापि जड़धी भव भोग पाना, ना चाहते धरम से विधि को खपाना ॥८४॥
जो सर्व दोष तज के निज में रमा है, नीराग आतम निजातम में समा है।
संसार में तरण-तारण धर्म नौका, ‘सो ही’ ‘जिनागम' कहे जग में अनोखा ॥८५॥
पै पुण्य का चयन ही करता कराता, श्रद्धान आत्म पर चूँकि नहीं जमाता।
पाता न सिद्धि शिव है प्रतिकूल जाता, संसार में भटकता यति भूल जाता ॥८६॥
श्रद्धा निजात्म पर पूर्ण करो इसी से, वाक्काय से विनय से मन से रुची से।
हो ध्यान ज्ञान अनुचिन्तन भी उसी का, हो मोक्ष, शीघ्र, फिर पार नहीं खुशी का ॥८७॥
हो भाव से मलिन तन्दुल मच्छ पापी, जा सातवें नरक में गिरता तथापि।
हो जा अतः निरत स्वीय गवेषणा में, श्रद्धा समेत रुचि से जिनदेशना में ॥८८॥
आतापनादि तपना गिरि कन्दरों में, औ बाह्य संग तजना रहना वनों में।
स्वाध्याय ध्यान करना पर से कराना, ये व्यर्थ हैं श्रमण के बिन साम्य बाना ॥८९॥
जीतो निजी सकल इन्द्रिय फौज वैरी, बाँधो अकम्प मन मर्कट चूंकि स्वैरी।
निर्ग्रन्थ हो मत करो जनरंजना ना! पे आत्म रंजन करो न प्रपंच नाना ॥९०॥
मिथ्यात्व को समझ हेय विसारना है, औ नो कषाय नव को सब त्यागना है।
सत् शास्त्र चैत्य गुरु भक्ति सँभारना है, आज्ञा जिनेश मत की नित पालना है ॥९१॥
सन्मार्ग तीर्थ करने पहले बताया, सत् शास्त्र बाद गण-नायक ने रचाया।
ऐसा अतुल्य शुचि है श्रुत ज्ञान प्यारा, तू नित्य भक्ति उसकी कर भाव द्वारा ॥९२॥
सत् शास्त्र का सलिल सादर साधु पीते, हो प्यास त्रास उर दाह-विहीन जीते।
चूड़ामणी जगत के स्वपराव-भासी, वे सिद्ध शुद्ध बनते शिवधाम-वासी ॥९३॥
तू झेल काय पर, त्याग प्रमाद सारा, बाईस दुस्सह परीषह कष्ट भारा।
शास्त्रानुसार वह भी बन अप्रमादी, हो ध्यान! संयम नहीं बिगड़े समाधि ॥९४॥
निर्ग्रन्थ साधु उपसर्ग परीषहों से, भाई कदापि चिगते नहिं पर्वतों से।
हो दीर्घ काल तक भी जल में तथापि, पाषाण है कठिन क्या गलता कदापि ॥९५॥
भा पंच विंशति सुपावन-भावनाएँ, भा सर्वदा सुखद द्वादश भावनाएँ।
रे! भाव शून्य करनी किस काम आती, ना मात्र वो नगनता सुख है दिलाती ॥९६॥
तूने तजा यदपि संग तथापि, क्या है? तत्त्वार्थ, औ नवपदार्थ यथार्थ क्या है?
क्या-क्या स्वरूप कब जीव-समास धारें, तू जान! चौदह निरे गुणथान सारे ॥९७॥
अब्रह्म है दश विधा उसको हटाना, है ब्रह्मचर्य नवधा जिसको निभाना।
आदी हुआ मिथुन के दुख से घिरा है, संसार के सघन कानन में फिरा है॥९८॥
वैराग्य भाव जिसके मन में लसे हैं, आराधना वरण भी करती उसे है।
वैराग्य से स्खलित है मुनि कष्ट पाता, संसार को सघन और तभी बनाता ॥९९॥
है भाव से श्रमण है जग नाम पाता, कल्याण पंच करता शिव धाम जाता।
पै बाह्य में श्रमण केवल ना सुहाता, होता कुदेव-पशु मानव दुःख पाता ॥१००॥
जिह्वेन्द्रि का वश हुआ निज को भुलाया, छ्यालीस दोषयुत भोजन को उड़ाया।
तूने अतः विधिवशात् बहुदुःख पाया, तिर्यञ्च हो विगत में कब सौख्य पाया ॥१०१॥
खा, पी लिया सचित भोजन पेय पानी, हो लोलुपी सरस का मति मंद मानी।
तीव्रातितीव्र फलतः दुख ही उठाया, तू सोच आत्म चिरकाल वृथा बिताया ॥१०२॥
बीजादि पत्र फल-फूल समूल खाया, खाके सचित्त फिर भी मद ही दिखाया।
हा! हा! अनन्त भव में भ्रमता फिरा है, कीड़ा बना विषय में रमता निरा है ॥१०३॥
है पाँचधा विनय सो, त्रययोग द्वारा, पालो उसे विनय जीवन हो तुम्हारा।
कैसा गहे अविनयी भव कूल पाता, है भूलता धरम को प्रतिकूल जाता ॥१०४॥
श्रद्धा समेत जिन-भक्ति विलीन प्यारे, आचार्य आदि दश ये बुध सेव्य सारे।
भाई यथाबल यथाविधि साधु सेवा, सद् भक्ति राग वश होकर तू सदैवा ॥१०५॥
जो भी प्रदोष व्रत में त्रय योग द्वारा, मानो लगा जब हुआ उपयोग खारा।
धिक्कारते स्वयम को गुरु पास बोलो, मायाभिमान तज के, उर भाव खोलो ॥१०६॥
वे दुर्जनी कटुक, कर्ण कठोर गाली, देते, सदैव सहते शम-साम्यशाली।
वैराग्य से श्रमण शोभित हो रहे हैं, जो काटने विधि प्रलोभित हो रहे हैं॥१०७॥
साधू क्षमा रमणि में रमते रमाते, संपूर्ण पाप पल में फलतः मिटाते।
विद्याधरों नरवरों, असुरों सुरों के, होते नितान्त स्तुति-पात्र मुनीश्वरों के ॥१०८॥
धारो क्षमा गुण क्षमा जग जन्तुओं से, माँगो, करो, विनय से मन वाक् तनों से।
क्रोधाग्नि से चिर तपा उर है तुम्हारा, सींचो क्षमा सलिल से फिर शान्तिधारा ॥१०९॥
सम्यक्त्व शुद्ध अविकार अहो सुधारो, दीक्षा गही समय को स्मृति से निहारो।
निस्सार सार तम क्या समझो सयाने, हीरे समा विमल केवलज्ञान पाने ॥११०॥
नग्नत्व आदि जड़ बाहर लिंग धारो, हो के परन्तु भवभीत स्व को निहारो।
हो भाव लिंग बिन द्रव्य न कार्यकारी, वैराग्य से मति करो अनिवार्य प्यारी ॥१११॥
आहार संग भय मैथुन चार संज्ञा, होके विलीन इनमें तज आत्म प्रज्ञा।
संसार के सघन कानन में भ्रमे हो, खोये युगों युग युगों पर में रमे हो ॥११२॥
मैदान में शयन आसन भी लगाना, आतापनादि तपना तरुमूल पाना।
मूलोत्तरादि गुण को रुचि से निभाना, पै ख्याति लाभ यश को मन में न लाना ॥११३॥
है आद्य कार्य निज तत्त्व अहो पिछानो, औ आस्रवादिक अशेष सुतत्त्व जानो।
शुद्धात्म में तुम रमो ध्रुव नित्य प्यारा, धर्मार्थ काम मिटते, त्रय योग द्वारा ॥११४॥
तू तत्त्व-भाव-जल से नहिं सिंचता है, औचित्य को न जब लौ यदि चिंतता है।
होते नहीं जनन-मृत्यु-जरा जहाँ पे, हे मित्र! जा न सकता शिव में वहाँ पे ॥११५॥
ये जीव के, समझ तू परिणाम सारे, हो पापरूप कुछ हो कुछ पुण्य प्यारे।
हो बंध मोक्ष निज के परिणाम द्वारा, ऐसा जिनेश मत है अभिराम प्यारा ॥११६॥
मिथ्या असंयम कषाय कुयोग लेश्या, जो भी इन्हें धर रहा कर संक्लेश्या।
बाँधे वही अशुभ कर्म नितान्त मोही, जो है जिनेश मत से अति दूर द्रोही ॥११७॥
सम्यक्त्व संयम यमादिक धारते हैं, वे पुण्य बंध करते, मन मारते हैं।
संक्षेप से विविध है विधि-बंध गाथा, ऐसा जिनेश मत सुन्दर गीत गाता ॥११८॥
मैं ज्ञान आवरण आदिक अष्ट कर्मों, से हूँ बँधा सुचिर से तज आत्म धर्मों।
चैतन्य आदिक अनन्त निजी गुणों को, देखें सही, अब जला विधि के गणों को ॥११९॥
सारे अठारह सहस्र सुशील होते, चौरासिलाख गुण उत्तर पूर्ण होते।
भावो इन्हें सतत ये शुचि भावना है, क्या व्यर्थ के कथन से? कुछ लाभ ना है॥१२०॥
रे! आर्त-रौद्रमय ध्यान अवश्य छोड़ो, पै धर्म से शुकल से मन मात्र जोड़ो।
दुर्ध्यान तो सुचिर से कर ही रहे हो, जो बार-बार भव में मर ही रहे हो ॥१२१॥
वे भाव से श्रमण, ध्यान-कुठार द्वारा, काटें सुशीघ्र भववृक्ष समूल सारा।
जो मात्र नग्न मुनि इन्द्रिय दास होते, संसार-वृक्ष-जड़ में जल और देते ॥१२२॥
ज्यों दीप, गर्भ-घर में बुझता नहीं है, उद्दीप्त हो जबकि वायु चली नहीं है।
त्यों ध्यान दीपक अकम्प सही जलेगा, औचित्य! रागमय वात नहीं चलेगा ॥१२३॥
सर्वोत्तमा शरण मंगल चार प्यारे, पूजें जिन्हें खग खगेन्द्र सुरेन्द्र सारे।
आराधना सुगुण नायक हैं गुरो को, ध्याओ सदा विनय से परमेष्ठियों को ॥१२४॥
विज्ञान का विमल शीतल नीर पीते, सद्भाव से भरित भव्य सुधीर जीते।
वे आधि व्याधि मृति जन्म जरादिकों से, होते विमुक्त, शिव हो लसते गुणों से ॥१२५॥
है पूर्णतः जल गया यदि बीज बोओ, औचित्य! अंकुरित भूतल में न हो वो।
लो कर्म-बीज इकबार अहो जलेगा, भाई! भवांकुर पुनः उग ना सकेगा ॥१२६॥
जो भाव से श्रमण है शिवधाम जाता, हो मात्र बाह्य मुनि ना सुख त्राण पाता।
यों जान मान गुण दोष सही सुचारा, भावात्मिका श्रमणता भज विश्व-सारा ॥१२७॥
तीर्थंकरों गणधरों हलधारियों के, उत्कृष्ट अभ्युदय हैं दिविवासियों के।
जो भाव से श्रमण हैं, अनिवार्य पाते, संक्षेप से, सुन जरा जिन आर्य गाते ॥१२८॥
वे धन्य धन्य तम है, तज संग संगी, सम्यक्त्व-बोध-व्रत से शुचि भावलिंगी।
है साधु निष्कपट भी त्रययोग द्वारा, वन्दूं उन्हें विमल हो उपयोग प्यारा ॥१२९॥
वे ऋद्धि-सिद्धि, खगदेव भले दिखाले, आ पास किंपुरुष किन्नर गीत गाले।
सम्यक्त्व से सहित श्रावक भी ऋषी से, हो मुग्ध लब्ध न प्रभावित हो किसी से ॥१३०॥
हैं मोक्ष को सजल लोचन सिंचते हैं, हैं जानते मनस से नित चिंतते हैं।
ऐसे मुनीश मन-मोहित क्या करेगा? स्वर्गीय स्वल्प सुख वो फिर क्या करेगा? ॥१३१॥
रोगाग्नि, देह घर ना जब लौं जलाती, दुर्वार मारक जरा जबलौं न आती।
पंचेन्द्रियाँ शिथिल हों जबलौं नहीं हैं, रे ! आत्म का हित करो सुघड़ी यही है ॥१३२॥
तू विश्व जीव पर धार दया सुधारा, सारे अनायतन त्याग त्रियोग द्वारा।
तेरा उपास्य बन जाय ‘महान सत्ता', जो सर्व जीव गतचेतन ज्ञानवत्ता ॥१३३॥
संभोग सौख्य सबने उस स्थावरों को, खाये अनन्त तुमने जग जंतुओं को।
ऐसा अतीत भर में चिरकाल बीता, संसार में भटकता नहिं काल जीता ॥१३४॥
चौरासि लाख इन कुत्सित योनियों में, तू जन्म ले मर मिटा कि भवों-भवों में।
क्या ज्ञात है कि दुख कारण क्या रहा है, हे मित्र! ‘प्राणिवध' कारण ही रहा है॥१३५॥
सद्भाव से अभयदान चराचरों को, देवो, सदा शुचि बना मनवाक्तनों को।
‘कल्याण पंच' फलरूप परम्परा से, पावो मुनीश! मुकती, मृति से जरा से ॥१३६॥
हैं वाद सर्व किरिया शत और अस्सी, बत्तीस वाद विनयी अक्रिया चवस्सी।
अज्ञानवाद सडसष्ट अहो! पुकारे, ये वाद, तीन शत औ त्रय साठ सारे ॥१३७॥
सद्धर्म का श्रवण भी करता तथापि, छोड़े अभव्य न अभव्यपना कदापि।
मिश्री मिला यदपि पावन दूध पीता, पै सर्प दर्प विष से रहता न रीता ॥१३८॥
लेता सदोष मत का जड़धी सहारा, मिथ्यात्व से ढक गया उर नेत्र सारा।
सिद्धान्त में बस अभव्य रहा वही है, श्री जैन धर्म जिसको रुचता नहीं है ॥१३९॥
सेवा कुसाधुजन की करता मुधा है, सो ही कुधर्म मत में रत सर्वदा है।
है तापसी कुतप ही तपता वृथा है, हो पात्र हा! कुगति का सहता व्यथा है॥१४०॥
मिथ्यात्व से भ्रमित दुर्जन संग पाया, भाई तुझे कुनय आगम ने ठगाया।
संसार में फिर रहा चिर काल से तू, हे धीर! सोच चलना निज चाल ले तू ॥१४१॥
पाखंडिवाद त्रय सौ त्रय साठ खारे, उन्मार्ग हैं तुम इन्हें तज दो विसारो।
सौभाग्य! जैन पथ पे निज को चलाओ, रे! वाक् विलास बस से?मन से भुलाओ ॥१४२॥
सम्यक्त्व के बिन मुनी शव ही कहाता, है मात्र नग्न चलता फिरता दिखाता।
मोही त्रिलोक भर में वह निंद्य होता, आत्मा उड़ा, शव कहाँ कब वन्द्य होता ॥१४३॥
जैसा शशी उजल तारक के गणों में, जैसा मृगेन्द्र बलवान रहा मृगों में।
सम्यक्त्व भी परम श्रेष्ठ सभी गुणों में, माना गया कि मुनि श्रावक के व्रतों में ॥१४४॥
धारा फणा मणि विशेष सुलाल ऐसा, होता सुशोभित फणाधर राज जैसा।
वैसा सुशोभित सदा जिन-भक्त होता, सन्मार्ग में विमल दर्शन युक्त होता ॥१४५॥
तारा समूह नभ में जब जन्म पाता, वो पूर्ण चन्द्र जिस भाँति हमें सुहाता।
निर्ग्रन्थ लिंग उस भाँति लसे सुचारा, सम्यक्त्व-शुद्ध तप ले व्रत युक्त प्यारा ॥१४६॥
मिथ्यात्व दोष, गुण दर्शन को विचारो, भाई! सुरत्न, समदर्शन को सुधारो।
सोपान आदिम शिवालय का रहा है, औ सारभूत गुण रत्न यही अहा है॥१४७॥
कर्ता, अमूर्त, निज देह प्रमाण वाला, भोक्ता, अनादि अविनश्वर जीव प्यारा।
विज्ञान दर्शनमयी उपयोग प्याला, ऐसा कहें जिन करें जग में उजाला ॥१४८॥
मोहादि घाति विधि के दल को मिटाते, वे भव्य साधु जिन लिंग धरें सुहाते।
वैराग्य से लस रहे दूग पूर्ण खोले, तू खास दास उनका अयि चित्त होले ॥१४९॥
ज्यों चार घाति अघ-कर्म विनाशते हैं, त्यों लोक पूरण अलोक प्रकाशते हैं।
दृक्-ज्ञान-सौख्य-बल ये प्रकटे गुणों से, होते सुशोभित अनन्त चतुष्टयों से ॥१५०॥
लो कर्म मुक्त बनता जब आतमा है, होता सुनिश्चित वही परमातमा है।
ज्ञानी वही शिव चतुर्मुख ब्रह्म भी है, सर्वज्ञ विष्णु परमेष्ठि निजात्म ही है॥१५१॥
हो घाति कर्म दल से, जब मुक्त स्वामी, प्यारे, अठारह सदोष-विमुक्त नामी।
त्रैलोक्य दीप तुम ही अति दिव्य देही! दो बोधि उत्तम बनँ फलतः विदेही ॥१५२॥
सद्भाव से भ्रमर हो निशिवासरों में, होता विलीन जिन के पद पंकजों में।
आमूल-जन्म लतिका झट काटता है, वैराग्य शस्त्र बल से शिव साधता है॥१५३॥
ज्यों शोभता कमलिनी दृग मंजु पत्र, हो नीर में, न सड़ता रहता पवित्र।
त्यों लिप्त हो विषय से न मुमुक्षु प्यारे, होते कषाय मल से अति दूर न्यारे॥१५४॥
नाना कला गुण विशारद हो निहाला, मानें उसे मुनि, सुसंयम शील-वाला।
पै दोष-कोष बस केवल नग्न साधू, साधू रहा न वह श्रावक भी न! स्वादू ॥१५५॥
तीखी क्षमा दममयी असि हाथ धारे, वे धीर, नीर-निधि से मुनि वीर प्यारे।
दुर्जेय उद्धत कषाय-बली, भटों को, हैं जीतते सुचिर कालिन संकटों को ॥१५६॥
पंचाक्ष के विषय के मकराकरों में, थे डूबते पतित भव्य भवों-भवों में।
विज्ञान दर्शनमयी कर का सहारा, दे, धन्य ईश उस पार जिन्हें उतारा ॥१५७॥
उत्तुंग मोह तरु से लिपटी चढ़ी है, मायामयी विषम बेल घनी बढ़ी है।
फूले खिले विषय फूल जहाँ जिसे वे, काटें विरोध असि से मुनि हा! न सेवें ॥१५८॥
कारुण्य से यदपि पूर्ण भरे निरे हैं, संमोह मान मद गौरव से परे हैं।
चारित्र खड्ग कर लेकर, काटते हैं, सम्पूर्ण-पापमय स्तंभ न हाँफते हैं ॥१५९॥
ज्यों पूर्ण पौर्णिम शशी नभ में सुहाता, तारा समूह जिसको जब घेर पाता।
त्यों श्री जिनेश मत के नभ में दिखाते, धारे सुमाल गुण की मुनि चन्द्र भाते ॥१६०॥
होते जिनेन्द्र अमरेन्द्र नरेन्द्र चक्री, हो राम तीर्थकर केशव अर्ध चक्री,
वे ऋद्धि-सिद्धि गहते मुनि, संग त्यागी, होते गणेश ऋषि तारण हैं विरागी ॥१६१॥
अत्युज्वला अतुल निर्मल है निहाला, उत्कृष्ट सिद्धि सुख है शिव शील-वाला।
वार्धक्य भी मरण भी जिसमें न भाते, साधू विराग जिसको अविलम्ब पाते ॥१६२॥
नीराग हैं नित निरंजन हैं निराले, हैं सिद्ध शुद्ध जग पूजित, पूज्य सारे।
दे, वे मुझे विमल भाव, कषाय धोऊँ, सम्यक्त्व-बोध-व्रत में रत नित्य होऊं ॥१६३॥
ये धर्म अर्थ पुनि काम विमोक्ष चारों, हैं भाव पे निहित यों तुम तो विचारो।
मंत्रादि सिद्धि सब भी बस!! भाव से हो, कोई प्रयोजन नहीं बकवाद से हो ॥१६४॥
सर्वज्ञ ने प्रथम तो सब जान पाया, सद् ‘भाव-प्राभृत' पुनः हमको सुनाया।
जो भी पढ़ें यदि सुनें अविराम भावें, औचित्य, नित्य स्थिर शाश्वत धाम पावें ॥१६५॥
दोहा
निजी भाव ही दुःख हैं, निजी भाव सुख कूप।
भव-भव भ्रमते भाव से, भूल रहे निज रूप ॥
दुख से बचना चाहते, तजो परिग्रह भाव।
नग्न हुए बिन शिव नहीं, बिना निजातम भाव ॥