चाँदी की चूरणी छिड़की
चाँदनी की रात है
चिदानन्द गंध से
घम घम गंधित
सौम्य सुगंधित
उपवन की बात है
जिसमें
सहज सुखासीन
निज में लीन
यथाजात
जिसकी गात है
सुगन्ध निधि
निशिगंधा
अन्य दुर्लभा
अपनी सुरभि से
वातावरण के कण कण को
सुवासित सुरभित करती
निवेदन करती
आज विलम्ब हुआ
अपराध क्षम्य हो!...
ओ री नासा...!
नैवेद्य प्रस्तुत है
पारिजात स्तुत है
स्वीकृत हो...!
अनुगृहीत करो
उत्तर के रूप में
बोध भरित
सम्बोधन
मौन भावों से
कुछ भाव
अभिव्यंजित हुए
माना तू गंधवती है किन्तु
इस ज्ञान कली में भी
सुगंधि फूटी है
फूली महक रही है
कि
तू केवल ज्ञेया भोग्या
‘गंधवती’ है
‘गंधमती’ नहीं
मैं स्वयं गंधमती
तू बोध विहीना
क्षणिका
नहीं जानती
सुखमय जीवन जीना
पुरुष के साथ ऐक्य होकर
सुरभिका
दुरभिका...
...सृजन कहाँ होता है
स्रोत किस निगूढ़ में है
इसका स्रजक / जनक
कौन है वह...?
मौन कार्यरत है
वही ज्ञातव्य है
यही प्राप्तव्य है
इसलिए
मौन वेषिका
बन गवेषिका
अनिमेषिका
अज्ञात पुरुष की गवेषणा को
सफलता की पूरी आशा ही
नहीं
अपितु पूर्ण विश्वस्त हो
हुई हूँ उद्यमशीला मैं
इसी बीच...!
दाहिनी ओर से
लचक चाल की
मदन मोहिनी
रति-सी
मृदुल मालती
मुख खोल
कुछ बोल बोलती
अधर डोलती
कि
नामानुसार काम
कर रही है आज!...
इच्छा वांछा तृष्णा
आशा की छाया तक
नहीं तेरी नासा की अनी पर
विराग की साक्षात् प्रतिमा-सी
ओ नासा...!
मतकर मुझे
निराश / उदास
तनिक सा... पल भर...
कपाट खोल
मृदु बोल बोल
परम पुरुष महादेव को
तृप्त परितृप्त करूँ
यह दुर्लभ सुरभि
श्रद्धा समेत
लाई हूँ...
ये कई बार …
विगत में
मेरी सुगंध सुरभि में
स्नपित स्नात हुए हैं
शान्त हुए हैं।
नितान्त....! प्रभु....!
संक्षेप समास में
सांकेतिक ध्वनि
ध्वनित हुई
वे अन्तर्धान हैं
निर्व्यान हैं
मौन निगूढ़ में
तेरी ही क्या...मेरी भी
अब उन्हें रही नहीं अपेक्षा
विश्व उपेक्षा ही अपेक्षित
निरालम्ब....स्वावलम्ब
शून्याकाश
प्रकाशपुंज
जिस अनुभव के धरातल पर
प्रतिपल
फलित हो रहा है
बहना...बहना...बहना..
वह ना... वह ना...
वह ना ...
नव नवीन नित नूतन होकर भी
तुलना अन्तर
विशेष नहीं
सहज सामान्य
शेष
भेद नहीं अभेद
वेद नहीं अवेद
खण्ड नहीं / द्वैत नहीं
अखण्ड अद्वैत
अविभाज्य स्वराज्य
चल रहा है स्वयं
किसी इतर चालक से
चालित नहीं
गंध...गंध...गंध...!
केवल गंध !
सुगंध कहना भी
अभिशाप है
पाप है अब
अनुतापित करना है
स्वयं को वृथा
संज्ञा बन कर
सूँघना नहीं
मूर्छित ऊँघना नहीं
प्रज्ञा बनकर
सुँघना ही
वरदान....!
मतिमती
मैं नासिका
ध्रुव गुण की
उपासिका
प्रकाश की छाया
प्रकाशिका
न दुर्गंध से
न सुगंध से
प्रभाविता
भाविता
गंध से..
गंधवती
गंधमती
गंधातीता
बंधातीता
मेरा भोक्ता
गंध से परे
अगंध पुरुष!...
मैं भोग्या योग्या
कामपुरुष की
आई हूँ
आशातीता
मैं नासा
चरणों में
मात्र मिले बस!
चिरवासा...
सहवासा...!